‘सेज’ (विशेष आर्थिक क्षेत्र) के जरिए काॅरपोरेट लूट के खिलाफ शक्तिशाली जन प्रतिरोध और भूमि अधिग्रहण कानून बनने में हो रहे विलंब को देखते हुए यूपीए सरकार ने 2013 के आरंभ में एक बाइ-पास रास्ता अपनाया: आर्थिक विनियमन को तेज करने की खातिर प्रशासकीय सुधारों का रास्ता. वृद्धि के मार्ग की अड़चनों को दूर करने के लिए सरकार ने दो उच्च शक्ति-संपन्न निकायों का गठन किया, जिन पर यह जिम्मेवारी थी कि वे आधिकारिक और गैर-आधिकारिक स्तरों पर होने वाले उसूली विरोधों को दरकिनार करते हुए औद्योगिक/व्यावसायिक परियोजनाओं को स्वीकृति प्रदान करने के लिए मनमानी निरंकुश शक्तियों का इस्तेमाल करें. एक है विदेशी निवेश प्रोत्साहन बोर्ड (एफआइपीबी) और दूसरा है राष्ट्रीय निवेश बोर्ड (एनआइबी). जल्द ही, एनआइबी का नाम बदलकर निवेश से संबंधित कैबिनेट समिति (सीसीआइ) कर दिया गया और इसकी अध्यक्षता प्रधानमंत्री को सौंप दी गई, ताकि यह सर्व-शक्ति संपन्न हो जाए.

किनके हित में इन निकायों का गठन किया गया? तथ्य अपनी कहानी आप कहते हैं.

एफआइपीबी के ही निर्देश पर, जैसा कि पहले कहा गया है, आइकेईए को कम से कम 30 प्रतिशत उत्पाद भारतीय छोटे-मंझोले उद्यमों से प्राप्त करने की शर्त को दरकिनार करने की इजाजत दे दी गई. एनआइबी/सीसीआइ के गठन के समय वित्त मंत्रालय ने इसे जरूरी कदम माना था, क्योंकि ग्रीन क्लियरेंस की शर्त के चलते देश के बुनियादी ढांचों का विकास और वृद्धि अवरुद्ध हो गए थे. पर्यावरण और वन मंत्रालय तथा दिल्ली-स्थित विज्ञान और पर्यावरण केंद्र (सीएसई) तथा बंगलोर-स्थित पर्यावरण सपोर्ट ग्रुप (ईएसजी) जैसी अन्य संस्थाओं ने इसका विरोध किया था. ईएसजी के को-आॅर्डिनेटर ने कहा, “यह बोर्ड पूरी तरह अलोकतांत्रिक, संघवाद-विरोधी, प्रति-अंतर्दर्शी (काउंटर-इंट्यूटिव) और अत्यंत खतरनाक प्रस्ताव है, और यह राष्ट्रीय हितों के भी खिलाफ है. यह सु-शासन को नष्ट करता है और हमारी आकांक्षित संवैधानिक विरासत को खतरे में डाल देता है.” लेकिन वित्त मंत्रालय अपनी राह चलता रहा और उद्योगपतियों के लिए काम करने वाले एक फास्ट ट्रैक महा-पंच के रूप में सीसीआइ गठित कर दी गई. दो महीनों के अंदर ही, यानी मार्च 2013 तक इसने 74,000 करोड़ रुपये की उन परियोजनाओं को स्वीकृति प्रदान कर दी, जो विभिन्न अनापत्तियों (क्लीयरेंसेस) के अभाव में रुकी हुई थीं. इनमें से अधिकांश परियोजनाएं बुनियादी ढांचे और ऊर्जा (मुख्यतः कोयला, तेल, बिजली) क्षेत्रों की हैं, और इनसे बड़े पैमाने पर बेदखली तथा पर्यावरण-विनाश की संभावना है. अनेक मामलों में प्रतिरक्षा व तेल मंत्रालयों तथा ‘प्रतिरक्षा शोध व विकास संगठन’ (डीआरडीओ)/भारतीय वायु सेना द्वारा उठाई गई आपत्तियों को खारिज कर दिया गया. इस प्रकार ‘विकास’ की वेदी पर स्थानीय समुदायों के हितों के साथ-साथ पर्यावरण और सुरक्षा के सामग्रिक सरोकारों की बलि चढ़ा दी गई.

राज्य मंत्री जयंती नटराजन ने प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह को चिट्ठी लिखकर ऐसी संस्था के गठन पर अपनी चिंता जाहिर की थी. उन्होंने कहा था कि एनआइबी 1000 करोड़ रुपये और इससे भी अधिक की उन अति विशाल परियोजनाओं को स्वीकृति प्रदान करने के लिए समय-सीमा निर्धारित करने वाला था, जिनके लिए पर्यावरणीय अनापत्ति जरूरी थी. अगर इन परियोजनाओं के प्रस्तावकों को पर्यावरण और वन मंत्रालय के फैसलों से कष्ट पहुंचे, तो वे एनआइबी के पास जा सकते थे. लेकिन अगर इन परियोजनाओं से  साधारण नागरिक को कष्ट हो जाना था तो बोर्ड के पास अपील करने के उसके अधिकार को नहीं माना. राज्य मंत्राी ने कहा था कि उनके मंत्रालय ने परियोजनाओं को कभी किसी भांति नहीं रोका और उसने 11वीं पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत कोई 181 कोयला खान परियोजनाओं को पर्यावरणीय अनापत्तियां दी. उन्होंने आरोप लगाया था कि पर्यावरणीय अनापत्ति क्रियाविधि में इन प्रस्तावित परिवर्तनों का पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के कार्य-संचालन पर दूरगामी असर पड़ना तय था.

यह विवेकसम्मत स्थिति चोटी के उद्योगपतियों को, और इसीलिए कांग्रेस हाई कमान को स्वीकार्य नहीं थी; नरेंद्र मोदी ने भी ‘जयंती टैक्स’ का हौवा खड़ा किया. 2013 के अंत में हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के निराशाजनक प्रदर्शन के बाद, बड़े व्यवसाइयों को संतुष्ट करने तथा लोकसभा चुनाव के पहले निवेश को आगे बढ़ाने की हताशोन्मत्त कोशिश में, पार्टी ने जयंती नटराजन को 21 दिसंबर के दिन मंत्री मंडल से हटा दिया. दो दिन के बाद वीरप्पा मोइली को पर्यावरण एवं वन मंत्रालय का अतिरिक्त प्रभार सौंपा गया – मोइली ने बतौर पेट्रोलियम मंत्री पहले ही खुद को मुकेश अंबानी जैसों की सेवा के सर्वथा योग्य साबित कर दिया था.

वन अधिकार कानून, 2006 के अंतर्गत अनुसूचित जन जातियों और अन्य पारंपरिक वनवासियों के अधिकारों की रक्षा के लिए पर्यावरण मंत्रालय ने वर्ष 2009 में उन सभी ग्राम सभाओं की स्वीकृति को अनिवार्य बना दिया था, जिनकी जमीनें अनेक गांवों तथा विशाल वन क्षेत्र से गुजरनेवाली सड़कों, संचरण लाइनों और पाइपलाइनों जैसी परियोजनाओं में जा रही थी. सीसीआइ (निवेश से संबंधित कैबिनेट समिति) ने इस “रुकावट” को हटाने का आदेश दिया, किंतु नटराजन देश के कानून का, और इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देशों का, अनुपालन करना चाहती थीं. इस अपराध के लिए और अपने कर्तव्य-पालन के लिए उन्हें अपने पद से हाथ धोना पड़ा. प्रथम तीन सप्ताह में 1.5 लाख करोड़ रुपये की (पोस्को स्टील समेत) परियोजनाओं को स्वीकृति देने के बाद, मोइली ने जनवरी-मध्य में कहा कि अगले महीने वे 55 अन्य परियोजनाओं को स्वीकृति प्रदान करेंगे.