विदेशी निवेशकों को खुश रखने के लिए जो कदम उठाए गए, उनमें सबसे शर्मनाक था ‘जेनरल एंटि-एवायडेंस रूल्स’ (जीएएआर) के मामले में पीछे हटना. पिछले ही वर्ष (2012 में) तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी द्वारा लागू किए गए ‘गार’ (जीएएआर) का मकसद था विदेशी निवेशकों द्वारा कर भुगतान से (गैरकानूनी तरीके से बचने के बजाय) ‘कानूनी ढंग’ से बच निकलने के लिए कानून के दुरुपयोग को रोकना. लेकिन इस पूर्णतः जायज और विवेकसम्मत फैसले को जल्द ही लागू होने से रोक लिया गया – पहली बार एक वर्ष के लिए, जब प्रणव मुखर्जी को विस्थापित कर दिया गया और मनमोहन सिंह ने तात्कालिक रूप से वित्त मंत्रालय का प्रभार ग्रहण किया; और फिर दूसरी बार जनवरी 2013 में अगले दो वर्षों के लिए. बहरहाल, बजट के पहले दिन ‘गार’ (जीएएआर) की चर्चा होते ही निवेशकों के खेमे में ढेर सारी विपरीत प्रतिक्रियाएं उत्पन्न हुईं और वित्त मंत्रालय को फौरन सफाई देनी पड़ी कि विदेशी संस्थागत निवेशकों से सिर्फ इतना ही कहा जा रहा है कि वे ‘टैक्स रेजिडेंसी सर्टिफिकेट’ प्राप्त करें, ताकि उनके द्वारा मारीशस से लाए गए निवेशों पर होनेवाली आमदनी के लिए कर भुगतान से बच निकलने पर रोक लगाई जा सके. इसके अलावा, यह भी स्पष्ट किया गया कि ‘गार’ (जीएएआर) के प्रावधान 30 अगस्त 2010 के बाद किए गए निवेशों पर ही लागू होंगे; वह भी तब, जबकि कर-लाभ 3 करोड़ रुपये से ज्यादा होंगे. कहा गया, कि विदेशी निवेशकों का भरोसा बहाल करने और उसे बनाए रखने के लिए ये आश्वासन जरूरी थे (और – यह बात अनकही छोड़ दी गई कि – ये आश्वासन उन देशी निवेशकों के लिए भी जरूरी थे, जो टैक्स से बचने के लिए निवेश का मारीशस-मार्ग अख्तियार करते हैं).

निवेशकों को खुश रखने की यह प्रतीकात्मक भंगिमा वोडाफोन टैक्स मामले में अपना रुख उलटने में भी दिखाई पड़ी. 2007 में हुए वोडाफोन-हचिसन एस्सार करार में भारत से बाहर केमैन द्वीप समूह स्थित एक विदेशी कंपनी (हांगकांग आधारित हचिसन) के शेयरों के हस्तांतरण की बात शामिल थी. इसके पास एक भारतीय कंपनी (हचिसन एस्सार, जिसका नाम बदलकर वोडाफोन एस्सार रखा गया और जो आज वोडाफोन इंडिया नाम से जानी जाती है) के शेयर परोक्ष रूप से मौजूद थे. यह भारत का  सबसे बड़ा कर विवाद था, जिसमें टैक्स प्राधिकरण वोडाफोन से पूंजी-प्राप्तियों पर लगभग 2.5 अरब डाॅलर टैक्स और करीब इतने ही अन्य दंडात्मक शुल्क की मांग कर रहा था. इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने जनवरी 2012 में कहा कि भारत में परोक्ष हस्तांतरण पर कर नहीं लगेगा. न्यायालय ने भारत सरकार और टैक्स प्राधिकरण द्वारा 2012 में दायर समीक्षा याचिका को भी खारिज कर दिया. सर्वोच्च न्यायालय ने कर विभाग को निर्देश दिया कि वह वोडाफोन द्वारा अंतरिम आदेश के अनुसार जमा किए गए 2,500 करोड़ रुपये की राशि उसे लौटा दे. सर्वोच्च न्यायालय का यह आदेश वोडाफोन के लिए जीत माना गया. प्रत्युत्तर में, तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को निरस्त करने के लिए से आय कर कानून, 1961 में पीछे के वर्षों से लागू होने वाला संशोधन कर दिया.

इसके बाद, अंतरराष्ट्रीय और घरेलू निवेशकों ने भारत में निवेश के बारे में अपनी चिंताएं उठानी शुरू कर दीं. तब सरकार ने इस मामले की छानबीन करने के लिए कर विशेषज्ञ पार्थसारथि सोम की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित कर दी. सोम कमेटी ने शीघ्र ही ‘गार’ (जीएएआर) के बारे में मुखर्जी के फैसले को उलटने और वोडाफोन से उक्त धनराशि की मांग छोड़ देने की सिफारिश सुना दी. ये दोनों सिफारिशें सिद्धांततः स्वीकार कर ली गईं और उस बहुराष्ट्रीय कंपनी के साथ समझौता हो गया. उस वक्त पी. चिदंबरम विदेशी निवेश की भीख मांगने के लिए अमेरिका और यूरोप की यात्रा कर रहे थे और दिल्ली में विदेशी निवेशकों के साथ बैठकें कर रहे थे.

इसके अलावा, मानो देश को तमाम किस्म के विदेशी धन से भर देने के मकसद से, सरकार ने वाह्य वाणिज्यिक कर्ज (ईसीबी) कानूनों को और ज्यादा सरल बना दिया.  आइएफसी (इंफ्रास्ट्रक्चर फाइनांस कंपनीज) समेत तमाम गैर-बैंकिंग फाइनांस कंपनियों के लिए स्वचालित रास्ते से ईसीबी की सीमा को उनके अपने कोषों के 50 प्रतिशत से बढ़ाकर 75 प्रतिशत कर दिया गया, जिसमें उनके द्वारा पहले से लिया गया कर्ज भी शामिल था. सेवा क्षेत्र (अस्पताल, पर्यटन आदि) के लिए स्वतः स्वीकृति सीमा को भी 10 करोड़ डाॅलर से बढ़ाकर 20 करोड़ डाॅलर किया गया तथा गैर सरकारी संगठनों और सूक्ष्म वित्त संस्थाओं के लिए यह सीमा 50 लाख डाॅलर से बढ़ाकर 1 करोड़ डाॅलर कर दी गई.

किंतु यह अल्प-दृष्टि वाली ऐसी नीति थी, जो “कर्ज प्रवाह को हतोत्साह करने” की रिजर्व बैंक की घोषित नीति का खंडन करती थी. यह नीति हमारे विदेशी कर्ज व आंतरिक बोझ में और इजाफा करने जा रही थी, जिसके कुप्रभावों के बारे में हम पहले चर्चा कर चुके हैं.