पी. चिदंबरम ने अपने बजट भाषण में कहा, विदेशी निवेश को बुलाने के अलावा देश के पास कोई रास्ता नहीं है. जाहिर है, यह कम कहा गया; उनका मतलब यह था कि देश किसी भी कीमत पर पूंजी अंतर्प्रवाह पुनः हासिल करने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार है. यही बजट प्रस्तावों का केंद्र बिंदु था और सरकार की समग्र आर्थिक सोच की यही बुनियाद थी.

और विदेशी वित्त के आपूर्तिकर्ता, खासकर उनके सबसे मुखर प्रतिनिधि, ऋण रेटिंग एजेंसियां (सीआरए)स्टैंडर्ड एंड पूअर्स, मूडी, क्रेडिट स्यूइस जैसी एजेंसियों की शुरुआत तो वित्तीय संस्थाओं की निर्भरशीलता को मापने के काम से हुई थी ऋ मगर वैश्विक वित्तीय संकट के आगमन के बाद उन्होंने जीडीपी के प्रतिशत के रूप में राजकोषीय व चालू खाता घाटों जैसे विभिन्न संकेतकों के लिहाज से संप्रभु राष्ट्रों की ऋण लेने की क्षमता को आंकने का भी काम आरंभ कर दिया. चरम अनिश्चयता के माहौल का इस्तेमाल करते हुए, उन्होंने यह निर्धारित करने में अपने विश्लेषण को फैसलाकुन बना लिया कि किन राष्ट्रों में कितना विदेशी निवेश किया जा सकता है. ये एजेंसियां दावा तो यही करती हैं कि वे वैज्ञानिक और निष्पक्ष ऋण रेटिंग पद्धति का इस्तेमाल करती हैं, किंतु अनेकानेक मामलों में उनके मूल्यांकन (वित्तीय संस्थाओं व राज्यों के बारे में) गंभीर रूप से गलत साबित हुए हैं. साथ-ही-साथ, अगर किसी राज्य के बारे में उनकी रेटिंग गिर जाती है, तो वहां के लिए विदेशी निवेशकों का आकर्षण भी कम हो जाता है. पूरे विश्व में आर्थिक नीति-निर्माण के क्षेत्र में ऋण रेटिंग एजेंसियों का ऐसा प्रभाव मौद्रिक रूढ़िवादिता के वर्चस्व का एक मानदंड है. बहरहाल, आॅस्ट्रेलिया से शुरू करके अब अमेरिका समेत चंद देश कानून की अदालत में इन एजेंसियों द्वारा मनमानी रेटिंग को चुनौती देने लगे हैं. इस देश को निवेश के लिए सुरक्षित बाजार मानने की सर्वप्रमुख शर्त के बतौर क्या मांग रहे थे? उनकी मांग यही थी कि राजकोषीय और चालू खाता घाटों को, खासकर राजकोषीय घाटे को, अगर समाप्त नहीं तो न्यूनतम स्तर पर लाना होगा.

केलकर समिति का भी यही सुझाव था. बजट में, और इसके पहले तथा इसके बाद लिए गए फैसलों में वित्त मंत्री ने एकाग्र होकर इन्हीं इच्छाओं की पूर्ति के कदम उठाए, और बेशर्मी के साथ उठाए. ऋण रेटिंग एजेंसियों से अनुनय-विनय किया कि वे भारत की रेटिंग को ऊपर ले आएं. बहरहाल, एजेंसियों ने उनकी यह इच्छा पूरी नहीं की.

यह कयास लगाया जा रहा था कि रेलवे बजट 2013-14 में कमखर्ची के उपाय अपनाए जाएंगे, और आम बजट में इस पर संपूर्ण जोर रहेगा. तदनुसार, न केवल यात्री व माल भाड़े और अन्य शुल्क (जैसे आरक्षित बर्थ को रद्द करवाने का शुल्क) काफी बढ़ाए गए, बल्कि यात्री व माल भाड़ों को नियंत्रण-मुक्त बनाकर इन्हें ईंधन की बदलती कीमतों के साथ नत्थी कर दिया गया, जिसका व्यावहारिक मतलब यह था कि डीजल और बिजली की कीमतों में जितनी बार वृद्धि होगी, रेलवे के किराये और भाड़े भी स्वयं बढ़ जाएंगे.

जहां तक आम बजट का सवाल है, तो पी. चिदंबरम ने राजकोषीय रूढ़िवादिता के पैरोकारों की खूब प्रशंसा बटोरी. इसके दो कारण थे: (क) उन्होंने 2012-13 के राजकोषीय घाटे को बजट अनुमान, यानी जीडीपी के 5.2 प्रतिशत के आसपास रखा, हालांकि राजस्व वृद्धि में मंदी हो रही थी; और (ख) 2013-14 में इस घाटे को और कम करके जीडीपी के 4.8 प्रतिशत तक लाने का वादा किया.

पहला लक्ष्य तो उन्होंने अभी समाप्त हुए वित्तीय वर्ष में राजस्व और पूंजी खर्चों में भारी कटौती करके हासिल किया: योजना व्यय बजट प्रावधान से भी कम 90,000 करोड़ रुपये रहा. कृषि व ग्रामीण विकास से लेकर सामाजिक सेवाओं तक के लगभग तमाम क्षेत्रों पर इस कटौती की चोट पड़ी. बहु-प्रचारित ‘मनरेगा’ को 33,000 करोड़ रुपये मिले, जो पिछले वर्ष के ही बराबर था. स्कूली शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्रों में पिछले वर्ष के बजट के मुकाबले सिर्फ 8 प्रतिशत की वृद्धि की गई, मुद्रास्फीति को ध्यान में रखने पर यह वृद्धि शून्य ही थी. जहां तक संशोधित अनुमान 2012-13 का सवाल है, तो कुल पूंजी व्यय में बजट प्रस्ताव के मुकाबले 18 प्रतिशत की कटौती की गई, जबकि केंद्र की ओर से राज्यों को मिलने वाली सहायता में भी बजट प्रस्ताव की तुलना में 14 प्रतिशत की कमी की गई. वस्तुतः, व्यय में इस किस्म की भारी कटौतियां – जो प्रभावी मांग को नीचे लाती हैं और पूंजी निर्माण को धीमा करती हैं – हम आज जिस मंदी का अनुभव कर रहे हैं, उसके लिए अंशतः जिम्मेवार हैं.

जहां तक दूसरे बिंदु, यानी राजकोषीय घाटे को और कम करने के वादे, का सवाल है तो यहां वित्त मंत्री खुद को फंसा पा रहे थे. वर्ष 2013 के अंतिम दिन सरकार द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार अप्रैल-नवंबर की अवधि में राजकोषीय घाटा 50.9 खरब रुपये तक पहुंच चुका था, जबकि 31 मार्च को खत्म होने वाले वर्ष की पूरी अवधि के लिए 54.2 खरब रुपये के घाटे का लक्ष्य रखा गया था. जाहिर है कि शेष बचे चार महीनों के दौरान घाटे को 3.3 खरब रुपये तक ही सीमित रखना संभव नहीं था. हर बार की तरह समस्या यही थी कि आर्थिक धीमेपन की पृष्ठभूमि में बजट और राजस्व संग्रह अनुमान से कम रहे और खर्च बढ़ गए. सरकार की आर्थिक रूढ़िवादिता के मद्देनजर, संभावना तो एकमात्र यही थी कि राजकीय खर्चों में और कटौतियां की जाएं. उस स्थिति में, स्वस्थ राजकीय खर्च के तमाम फायदे – बुनियादी ढांचों का विकास, रोजगार-सृजन और फलतः घरेलू मांग में वृद्धि (जबकि निर्यात बाजार सिकुड़ रहे हैं), जनसमुदाय के जीवन-स्तर और फलतः उनकी उत्पादकता में बेहतरी – साकार नहीं हो पाए. जीडीपी की अपेक्षाकृत मंद वृद्धि से कर राजस्व और भी कम हो गया, जिससे राजकोषीय सुदृढ़ीकरण का लक्ष्य प्राप्त करना ज्यादा मुश्किल हुआ. तब, यह समूची कवायद उसी किस्म के उल्टे नतीजे सामने लाई, जैसे नतीजे ग्रीस और स्पेन जैसे देशों में अपनाए गए कमखर्ची के उपायों से निकले थे.

वैसे, बजट में प्रतीकात्मकता का अभाव नहीं था. जैसे कि उसमें एक बिंदु है एक करोड़ रुपये से अधिक वार्षिक कर योग्य आय वाले व्यक्तियों तथा एक खास सीमा से अधिक कर योग्य आमदनी वाली घरेलू और विदेशी कंपनियों पर अधिभार (एकमुश्त सालाना लेवी) का मामला. बहरहाल, हकीकत तो यह है कि संपत्ति की आय के हक में लगातार जारी पक्षपातपूर्ण प्रावधानों (कोई लाभांश-कर नहीं, शेयरों की खरीद-बिक्री पर कोई दीर्घकालिक पूंजी प्राप्त कराधान नहीं, और कोई उत्तराधिकार कर नहीं) के जरिए इस ‘भार’ की कहीं ज्यादा ही भरपाई कर दी गई थी.