सरकार यह कहते कभी नहीं थकती कि वह समावेशी विकास के लिए प्रतिबद्ध है, किंतु वास्तविक जीवन में वह हर कदम इसकी उल्टी दिशा में उठाती है. इसका ताजातरीन उदाहरण था 2013 में पारित किया गया भूमि अधिग्रहण कानून, जो लाखों मेहनतकश किसानों को बेदखल करके बड़े व्यावसायिक घरानों की भूख मिटाने के लिए बनाया गया था.

इस कानून का शीर्षक तो था “भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्व्यवस्थापन में पारदर्शिता और उचित मुआवजा का अधिकार”; लेकिन दरअसल यह नया कानून मुआवजा या पुनर्वासन के लिए कारगर प्रावधानों के बगैर ही कृषि-योग्य जमीन के त्वरित व निर्बाध हस्तांतरण का मार्ग प्रशस्त करने वाला था.

मूलतः, यह कानून राज्य द्वारा भूमि अधिग्रहण के लिए अपनाई जानेवाली सामान्य क्रियाविधि को निर्धारित करता था. ... निजी मोलतोल के जरिए जमीन की निजी खरीद को इस कानून के पूरे दायरे से बिलकुल बाहर रखा गया था. और, 2011 वाले मसविदे के पाठ के विपरीत, इस अंतिम संस्करण में व्यक्तिगत मोलतोल के आधार पर की जानेवाली इस निजी खरीद-फरोख्त की कोई सीमा नहीं बांधी गई थी (यानी, काॅरपोरेट जमीन-हड़प को खुली छूट दी गई थी); और इसे पूरी तरह ‘उचित सरकार’ के रहमो-करम पर छोड़ दिया गया था.

राज्य द्वारा भूमि अधिग्रहण के लिए ‘सार्वजनिक उद्देश्य’ शब्द जोड़कर वैधता प्रदान की गई थी. इस नए कानून में सार्वजनिक उद्देश्य की परिभाषा को अत्यध्कि लचीला बनाकर दरअसल कृषि के अलावा अन्य किसी भी उद्देश्य को इसमें शामिल कर दिया गया! इसके अंतर्गत, किसी भी तथाकथित ‘रणनीतिक’ मकसद को सार्वजनिक उद्देश्य घोषित करके इसमें ‘केंद्रीय अर्ध-सैनिक बलों समेत नौसेना, थलसेना, वायुसेना और संघीय सशस्त्र बल से जुड़े कार्यों अथवा राष्ट्रीय सुरक्षा या भारतीय प्रतिरक्षा या राज्य पुलिस अथवा जनता की सुरक्षा से संबंधित किसी भी महत्वपूर्ण कार्य’ को शामिल कर लिया गया. इसके बाद, तमाम किस्म की आधारभूत परियोजनाओं, औद्योगिक गलियारों या खनन गतिविधियों व निवेशों और राष्ट्रीय विनिर्माण नीति में दर्ज विनिर्माण अंचलों, तथा खेल-कूद, स्वास्थ्य सेवा व पर्यटन को ‘सार्वजनिक उद्देश्य’ के दायरे में ले आया गया. निजी अस्पतालों, निजी शैक्षिक संस्थाओं और निजी होटलों को इससे बाहर रखा गया; लेकिन सरकारी स्वामित्व वाली भूमि पर निजी-सार्वजनिक भागीदारी वाली परियोजनाओं अथवा ‘सार्वजनिक उद्देश्य’ के बतौर परिभाषित किसी भी गतिविधि में शामिल निजी कंपनियों को इसमें समाहित कर लिया गया. दूसरे शब्दों में, इस कानून के अंतर्गत निजी लाभ के लिए की जानेवाली गतिविधियों को भी ‘सार्वजनिक उद्देश्य’ का दर्जा प्रदान किया गया.

भूमि अधिग्रहण कानून, 1894 के बारे में प्रमुख शिकायत यह थी कि उसमें बलपूर्वक जमीन अधिग्रहण के ऐसे प्रावधान थे जिसमें प्रभावित लोगों को कुछ भी कहने का हक नहीं था. सरकार दावा कर रही थी कि उसने इस शिकायत का समाधान कर दिया है और उसने नए कानून में यह प्रावधान किया है कि निजी-सार्वजनिक भागीदारी वाली परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण करने के पहले सरकार 70 प्रतिशत प्रभावित लोगों की सहमति हासिल करेगी, और निजी कंपनियों को 80 प्रतिशत लोगों की सहमति प्राप्त करनी होगी. लेकिन जहां सरकार अपने इस्तेमाल के लिए अथवा सार्वजनिक उद्यमों के लिए भूमि अधिग्रहण करेगी, वहां उसके लिए यह सहमति हासिल करना जरूरी नहीं होगा.

प्रभावित लोगों की सहमति लेने के बजाय इस कानून में संबंधित स्थानीय निकायों से सलाह-मशविरा करने तथा सामाजिक प्रभाव मूल्यांकन अध्ययन चलाने और किसी विशेषज्ञ समूह से इसका आकलन करवाने की चर्चा की गई है. बहरहाल, विशेषज्ञ समूह की सिफारिशें अनिवार्य नहीं होंगी और कोई भी सरकार लिखित ‘कारण’ दर्ज कराकर उन्हें खारिज कर दे सकती है. इसके अलावा, अगर और जब कभी कोई सरकार किसी रणनीतिक उद्देश्य से जुड़ा कोई ‘अत्यावश्यकता’ प्रावधान प्रस्तुत करे तो उसके लिए सामाजिक या पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन अध्ययन की भी जरूरत नहीं रहनी थी.

इसके बाद सवाल था मुआवजा, पुनर्वास और पुनर्व्यवस्थापन का. यहां भी ‘व्यक्तिगत मोलतोल के आधार पर निजी खरीद’ के मामले में यह प्रश्न सामने नहीं था. निजी कंपनी के मामले में मुआवजा, पुनर्वास और पुनर्व्यवस्थापन के प्रावधान तभी लागू होने थे जब वह कंपनी अपने द्वारा खरीदी जमीन से अतिरिक्त जमीन अधिग्रहीत करने के लिए सरकार से निवेदन करती. व्यापक तौर पर यह देखा जाता है कि भूमि अधिग्रहण से काफी तादाद में वैसे लोग भी प्रभावित होते हैं, जो खरीदी गई जमीन के मालिक नहीं होते हैं. यह नया कानून ‘प्रभावित परिवारों’ की परिभाषा करते वक्त इस हकीकत को तो मानता था, किंतु भूमिहीनों के लिए मुआवजे की कोई बात नहीं करता.आम तौर पर जो लोग विस्थापन का शिकार होते हैं, उन्हें पुनर्वास और पुनर्व्यवस्थापन के मार्फत कुछ तो हासिल हो जाता है, लेकिन भूमिहीन खेत मजदूरों को, बटाईदारों को या भूमि अधिग्रहण से जिन लोगों की आजीविका प्रभावित होती है वैसे पेशेवरों को शायद ही कुछ हासिल होता.

जमीन और जीविका के प्रत्यक्ष नुकसान के अलावा, वर्तमान या संभावनामय कृषि भूमि के अधिग्रहण से खाद्य सुरक्षा पर विपरीत प्रभाव पड़ता है. नए कानून में ‘खाद्य सुरक्षा की हिफाजत के लिए विशेष प्रावधान’ शीर्षक से एक छोटा खंड था, किंतु वह कोई ठोस हिफाजत प्रदान नहीं करता. जो परियोजनाएं ‘प्रकृति में एकरेखीय हैं, जैसे कि रेलवे, उच्च पथ, प्रमुख जिला सड़कें, सिंचाई नहरें, बिजली संचरण लाइनें, आदि’ उन्हें इस प्रावधान से अलग रखा गया; और हाल के अनुभव यह स्पष्ट दिखाते हैं कि एक्सप्रेस वे और गलियारों के नाम पर बड़ी मात्रा में खेतिहर जमीन दखल की जाती रही है. बहरहाल, खेतिहर जमीनों का अधिग्रहण सिर्फ ‘एकरेखीय प्रकृति’ की ऐसी परियोजनाओं के लिए ही नहीं होता. यह कानून ‘सार्वजनिक उद्देश्य’ की किसी भी परियोजना के लिए सिंचित व बहुफसली जमीन समेत तमाम किस्म की खेतिहर जमीनों के अधिग्रहण की इजाजत देता था.

ऐसे वक्त में, जब भारत को खाद्य उत्पादन बढ़ाने और कृषि के अंतर्गत वास्तविक रकबे को विस्तारित करने की जरूरत है, राज्य ऐसे कदम उठा रहा है जिससे कृषि भूमि की कारगर उपलब्धता में लगातार गिरावट आती जाएगी, और इस प्रकार देश को गहनतर खाद्य व कृषि संकट की ओर धकेला जा रहा है. इस बुनियाद पर किस किस्म की संवृद्धि होगी, और किसके लिए?