जैसा कि मार्क्स ने बहुत पहले बताया था, “आधुनिक राज्य की कार्यपालिका संपूर्ण पूंजीपति वर्ग के साझा क्रियाकलापों को संभालने वाली एक कमेटी भर होती है.” दूसरे शब्दों में, व्यवसाय और राज्य अथवा व्यवसाय और राजनीति का गठबंधन पूंजीवादी राजनीतिक तंत्र का मूल अवयव होता है. जब से भारतीय राज्य की उत्पत्ति हुई है, इसका भी यही हाल रहा है.

बहरहाल, चूंकि संसदीय प्रणाली में सरकार को मतदाताओं का भी थोड़ा ख्याल रखना पड़ता है, इसलिए आम जन समुदाय और शोषक धनी वर्ग के बीच लगातार खींचतान मची रहती है, जिसमें हर पक्ष राज्य-नीति को प्रभावित करने तथा उसे अपने पक्ष में मोड़ने का प्रयास करता है; और इसका परिणाम इस प्रणाली की व्यापक सीमाओं के अंदर, दोनों पक्षों के बीच के शक्ति संतुलन से निर्धारित होता है. भारतीय संदर्भ में, पूंजीपति वर्ग आर्थिक रूप से जैसे-जैसे मजबूत होता गया, एक के बाद एक आने वाली सरकारों पर उसका राजनीतिक प्रभाव भी उतना ही मजबूत बनता गया. 1980 के दशक से यह बात स्पष्टता से दिखाई पड़ने लगी और 1990 के दशक में तो वह और भी साफ हो गई, जब राज्य की भूमिका अर्थतंत्र के नियामक से बदलकर निवेश का सहायक भर होकर रह गई.

इसीलिए, आज जिसे हम लोकप्रिय शब्दावली में “व्यवसाय-राजनीति गठजोड़” कहते हैं, वह विकास की एक लंबी प्रक्रिया की उपज है, जो आज एक ऐसी अवस्था में पहुंच गया है, जहां उसकी ठीक-ठीक व्याख्या के लिए नए नामकरण की आवश्यकता हो गई है. यह नाम क्रोनी पूंजीवाद या महज क्रोनीवाद है, जहां “क्रोनी” का मतलब होता है पुराने मित्र या चहेते लोग, जिन्हें उनका गुण-अवगुण देखे बगैर बेजा विशेषाधिकार/रियायतें/लाभदायक पद आदि प्रदान किए जाते हैं.भारत में क्रोनीवाद की उत्पत्ति 1970- दशक की शुरुआत में मानी जा सकती है, जब अनुभवहीन संजय गांधी को 50,000 मारुति कार बनाने का लायसेंस प्रदान किया गया, जो उस समय काफी बड़ी संख्या समझी जाती थी.

इसी प्रकार, हम सब जानते हैं कि आर्थिक घोटाले – या सामान्य अर्थों में भ्रष्टाचार – भी कोई नई चीज नहीं हैं. नया सिर्फ यह है कि आज भ्रष्टाचार का पैमाना अतुलनीय रूप से बड़ा हो गया है, जो नवउदारवाद की ही देन है. अगर हम 1991 के पहले के आर्थिक घोटालों के साथ हाल में हुए घोटालों की तुलना करें, तो यह बात बिलकुल साफ हो जाएगी. उदाहरण के लिए बोफोर्स घोटाले को लीजिए. यह ‘महज’ 64 करोड़ रुपये का घोटाला था. मुद्रास्फीति के साथ सामंजित करने के बाद भी यह आंकड़ा अभी लगभग 300 करोड़ रुपये तक पहुंचेगा. जबकि 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला में 1.76 लाख करोड़ रुपये की राशि शामिल है! अर्थात्, बोफोर्स राशि का लगभग 600 गुना!

उस धनराशि पर भी नजर डालिए, जो हमारे देश से अवैध तौर पर स्विट्जरलैंड और अन्य कर-स्वर्गों (जहां से व्यवसाय करने पर कर नहीं लगता है) में खींच ली जाती है. अमेरिका-स्थित शोध निकाय ग्लोबल फाइनांशियल इंटिग्रिटी द्वारा तैयार की गई एक रिपोर्ट के अनुसार 1948 से 2008 के बीच की 60 वर्षों की अवधि में 20 लाख करोड़ रुपये से भी अधिक राशि इसी प्रकार देश से निकल चुकी है. इसमें से लगभग आधी राशि की निकासी 1992-2008 के बीच, यानी 16 वर्षों में हुई, जबकि 21वीं सदी के आठ वर्षों में करीब एक तिहाई राशि निकली है.

दिमाग चकरा देने वाले ये आंकड़े दिखाते हैं कि “लायसेंस-कोटा-परमिट राज” – पिछले वर्षों में बेलगाम भ्रष्टाचार का सबसे असरदार जरिया – पर ग्रहण लगने से भी इस रोग में कोई कमी नहीं आई है. इसके विपरीत, सर्वव्यापी उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण ने भ्रष्टाचार के दरवाजे को पूरी तरह खोल दिया है. यह गौरतलब है कि 2-जी घोटाला अभी हाल में सतह पर आया; किंतु इसकी शुरूआत काफी पहले, यानी 2000-दशक के उभार के दौरान ही हो चुकी थी. यही बात उन अन्य अधिकांश घोटालों के लिए भी सही है, जो वृद्धि दर में गिरावट शुरू होने के बाद सामने आए हैं. यह दिखाता है कि वृद्धि दर में सबसे बड़ी उछाल की अवधि भ्रष्ट आचरण के सबसे बड़े विस्फोटों की भी अवधि रही है.

इसीलिए, नई बात यही है कि राजनीति और व्यवसाय के बीच का युगों पुराना गंठजोड़ आज सत्ता की आंच में तपकर एकाकार हो गया है. वाड्रा-डीएलएफ करार और गडकरी के पूर्ति कंपनी समूह के क्रियाकलापों से उन जटिल तौर-तरीकों का संकेत मिलता है, जिनके जरिए राजनीतिक प्रभाव को दंडमुक्त काॅरपोरेट संपदा में तब्दील किया जाता है और फिर इस धन का इस्तेमाल आगे के लिए जरूरी ‘संपर्कों’ को साधने में किया जाता है. लेकिन, इसके लिए सिर्फ “राजनीतिक वर्ग” पर आरोप नहीं मढ़ा जा सकता है. हर तरह की नई और पुरानी कंपनियों और संगुटों (कंग्लोमरेट्स) ने तमाम किस्म के घोटालों में बड़े मजे से नाजायाज फायदे बटोरे हैं – और हवाई अड्डों के आधुनिकीकरण से लेकर कोल ब्लाॅकों के आवंटन तथा सैन्य बलों के लिए ट्रकों व ताबूतों की खरीद तक में ये घोटाले किए गए हैं. टाट्रा ट्रक ठेका जैसे कुछ मामलों में तो विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी शामिल हैं, जबकि 2-जी स्पेक्ट्रम की बिक्री जैसे कुछ अन्य मामलों में जिन कंपनियों ने निर्धारित दक्षता या क्षमता के बगैर ही बोली लगाने की प्रक्रिया में भाग लिया, उन्होंने विदेशी खिलाड़ियों को भरपूर मुनाफे में अपने शेयर बेच दिए. इसके अलावा, ढेर सारे बड़े खिलाड़ी ट्रांस्फर प्राइसिंग, मिस-इनवाइसिंग (गलत आंकड़े पेश करना) और हवाला जैसे गैर कानूनी तरीकों से निरंतर हमारे देश से पूंजी बाहर ले जा रहे हैं.