क्रोनीवाद और घोटालों की भर्त्सना सिर्फ नैतिक और राजनीतिक आधारों पर ही नहीं की जानी चाहिए. इसके आर्थिक परिणाम भी कम गंभीर नहीं होते. रुचिर शर्माब्रेकडाउन नेशंसः इन परसूट आॅफ द नेक्स्ट इकाॅनोमिक मिरेकल, एलेन लेन, 2012 से उद्धृत ने अपने लेख “द ग्रेट इंडियन होप ट्रिक” में इस बात को शानदार ढंग से सामने लाया है. पूंजीवादी विशेषज्ञ के दृष्टिकोण से ही इस लेखक ने भारत की प्रकटतः सफल वृद्धि-रणनीति में मौजूद खामियों के बारे में मूल्यवान अंतर्दृष्टि प्रदान की है. विभिन्न अर्थव्यवस्थाओं के प्रतिनिधिमूलक वर्गीकरण के तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर दुनिया भर की यात्रा कर चुके इस लेखक ने बेबाकी से अपने विचार पेश किए हैं: “भारत के मौजूदा हालात में क्रोनी पूंजीवाद वास्तविक चिंता का विषय बन गया है. व्यापक रूप से फैला भ्रष्टाचार पुरानी समस्या है, किंतु आज स्थिति यहां तक पहुंच चुकी है कि किसी भी व्यावसायिक करार में सटीक सरकारी संपर्क एक निर्णायक कारक बन गया है. जब मैंने न्यूजवीक इंटरनेशनल (सितंबर 2010) के कवर स्टोरी ‘इंडियाज फैटल फ्रलाॅ’ में अपनी ये बातें रखीं, तो काम बिगाड़नेवाले के बतौर मेरा स्वागत किया गया. शीर्ष सरकारी अधिकारियों ने मुझे बताया कि ऐसा क्रोनीवाद विकास-प्रक्रिया में एक सामान्य कदम है और इसे साबित करने के लिए उन्होंने उन्नीसवीं सदी के अमेरिका में बड़े व शक्तिशाली व्यवसाइयों (जिसे राॅबर बैरन्स कहा जाता था) का हवाला दिया (इन उद्धरणों के अंत में देखिए कि श्री शर्मा ने कैसे इस तर्क का खंडन किया है – अ. सेन) ...”

“2010 से यह मुद्दा उच्च-स्तरीय घोटालों की शृंखला में फूट पड़ा है... ‘ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल’ द्वारा सबसे कम और सबसे ज्यादा भ्रष्ट राष्ट्रों के बारे में किए गए वार्षिक सर्वेक्षण में भारत वर्ष 2010 में 178 देशों की सूची में गिरकर 88वें स्थान पर आ गया – जबकि 2007 में वह 74वें स्थान पर था. भारत उस मोड़ पर पहुंच रहा है, जहां लैटिन अमेरिका और पूर्वी एशिया के कुछ देश 1990- दशक में खड़े थे, जब आर्थिक सुधारों के खिलाफ पलटवार शुरू हो गया था, क्योंकि अर्थतंत्र को खोलने का मतलब कुछ चुनिंदों की तरफदारी भर रह गया था. मध्य वर्ग के विक्षोभ का पहला आलोड़न वर्ष 2011 में दिखाई पड़ा जब अनेक शहरी भारतीय सामाजिक कार्यकर्ता अन्नाहजारे के इर्द गिर्द गोलबंद होने लगे.”

क्या क्रोनीवाद और घोटालों के दुहरे रोग तथा धन के अत्यधिक संकेंद्रण के बीच कोई रिश्ता है? श्री शर्मा इसका जवाब ‘हां’ में देते हुए भारतीय पूंजीवाद के कुछ विशेष लक्षणों व प्रवृत्तियों की ओर – खासकर, इसकी विसंगतिपूर्ण प्रकृति और शीर्ष पर गतिरोध की ओर – ध्यान आकृष्ट करते हैं, जो अंततः वृद्धि के खिलाफ चली जाती हैंः “... इस देश में धन उत्तराधिकार पर कोई कर नहीं लगता है. शीर्ष पर धन का विस्फोट हो रहा है और इसकी गति किसी भी दूसरे देश के मुकाबले ज्यादा तेज है. वर्ष 2000 में, दुनिया के सबसे बड़े एक-सौ अरबपतियों में भारत का कोई भी धन्नासेठ शामिल नहीं था, लेकिन आज सात लोग उनमें शामिल हैं; तीन देशों – अमेरिका, रूस और जर्मनी – के अलावा किसी अन्य देश में इनकी इतनी संख्या नहीं है. इस श्रेणी में भारत का स्थान चीन (एक अरबपति) और जापान (शून्य) से भी ऊपर उठ चुका है.”

“परखने का तरीका: चोटी के अरबपतियों की सूची खंगालिए, जानिए कि उन्होंने अपनी अरबों की संपत्ति कैसे बनाई, और गौर कीजिए कि उन्होंने कितने अरब की संपदा हासिल की. ये सूचनाएं हमें तमाम आय-वर्गों व उद्योगों के बीच वृद्धि-संतुलन मापने का पैमाना मुहैया कराती हैं. अगर किसी देश में उसके अर्थतंत्र के आकार के सापेक्ष कहीं ज्यादा अरबपति पैदा हो रहे हैं, तो यह संतुलन के परे है... अगर किसी देश के औसत अरबपति ने अरबों नहीं, दसियों अरब इकट्ठा कर लिए हैं, तो वहां संतुलन का अभाव गतिरोध को जन्म दे सकता है. (रूस, भारत और मैक्सिको ही ऐसी उभरती बाजार-अर्थव्यवस्थाएं हैं, जहां चोटी के दस अरबपतियों की औसत शुद्ध परिसंपत्ति 10 अरब डाॅलर से ज्यादा है.) ...”

“आगर किसी देश के अरबपति नए उत्पादक उद्योगों के बजाय मुख्यतः सरकारी संपर्कों से अपनी संपदा बनाते हैं, तो इससे विक्षोभ पैदा हो सकता है (जिसने 1990 के दशक में इंडोनेशिया में विद्रोह की चिंगारी सुलगाई थी). स्वस्थ उभरते बाजार अरबपतियों को जरूर पैदा करें, लेकिन उनकी संख्या निश्चय ही देश के अर्थतंत्र के आकार के अनुपात में होनी चाहिए; उन अरबपतियों को शीर्ष पर प्रतियोगिता और टर्नओवर का सामना करना होगा; और आदर्श रूप से उन्हें राजनेताओं के साथ सुखदायी संबंधों के जरिए नहीं, बल्कि मुख्यतः उत्पादक आर्थिक क्रियाकलापों के जरिए विकसित होना चाहिए.”

इस जगह पर यह देखना रोचक होगा कि हमारे देश में सबसे बड़े अरबपति किस प्रक्रिया में उभरते हैं और वे किस हद तक इजारेदारी की शक्ति हासिल कर लेेते हैं. एक उदाहरण के बतौर हम मुकेश अंबानी पर नजर डाल सकते हैं, जिन्होंने अपनी 21.5 अरब डाॅलर की संपत्ति के साथ लगातार छह वर्षों से भारत के सबसे बड़े धन्नासेठ का खिताब अपने नाम कर रखा है.