“क्रोनी पूंजीवाद एक कैंसर है, जो प्रतियोगिता को ध्वस्त करता है और आर्थिक वृद्धि को मंद बनाता है. इसी के चलते अमेरिका के सामने भी समस्या आई और उसने 1920 के दशक में राॅबर बैरन की इजारेदारी को तोड़कर उन्हें काबू में लाया. ट्रस्ट-विरोधी कानूनों के पारित होने के बाद से अमेरिकी अर्थतंत्र में धनी और शक्तिशाली लोगों व कंपनियों की पांतों में लगातार बदलाव होते रहे हैं. चोटी की 30 अमेरिकी औद्योगिक कंपनियों के ‘डाॅव’ (डीओडब्ल्यू) सूचकांक में नामों का आना-जाना लगा रहता है और औसतन, हर 15 वर्षों पर इसके आधे सदस्य बदल जाते हैं. भारत के बाजार में भी भारी बदलाव हुआ करता था, लेकिन 2011 के अंत में बेंचमार्क सेंसेक्स सूचकांक द्वारा अवलोकित चोटी की 30 कंपनियों में 27 कंपनियां (90 प्रतिशत) 2006 से अपने स्थानों पर बरकरार हैं. 2006 में यह तुलनात्मक आंकड़ा सिर्फ 68 प्रतिशत था. ... यह चीज समृद्धिशालियों के सबसे ऊपरी हिस्से में पैठ बनाती गतिरुद्धता का ठोस प्रतीक है. ...”

ऐसा नहीं कि रुचिर शर्मा ऊंची वृद्धि दर और भारतीय अर्थतंत्र के कतिपय मजबूत लक्षणों से इन्कार करते हैं. लेकिन उनका यकीन है कि वृद्धि ‘चमत्कार’ के बारे में यह सारा शोर-शराबा महज एक भ्रम है – ठीक उसी तरह जैसे कि औपनिवेशिक भारत में यहां के सड़क-छाप जादूगर रस्से की बाजीगरी (रोप ट्रिक्स) दिखाते थे; शायद यहीं से उन्होंने अपने लेख के शीर्षक के लिए शब्द निकाले हैं.

शर्मा की भांति रघुराम राजन (आईएमएफ के भूतपूर्व प्रमुख अर्थशास्त्री, जिन्हें पहले मनमोहन सिंह का मुख्य आर्थिक सलाहकार बनाया गया, फिर रिजर्व बैंक के गवर्नर के बतौर प्रोन्नत किया गया) भी इस ‘चोरी-छिपे निजीकरण’ (क्या वे वही कहना चाहते थे, जिसे हम बेदखली/अतिक्रमण के जरिए संचय कहते हैं?) के काफी आलोचक हुआ करते थे. उनका तर्क था कि भारत में धन के प्रधान स्रोत भूमि, प्राकृतिक संसाधन और सरकारी संविदाएं (कंट्रैक्ट) हैं, और उन्होंने बताया कि रूस के बाद भारत में ही प्रति दस खरब डाॅलर जीडीपी सबसे अधिक संख्या में अरबपति हैं. उन्होंने चेतावनी दी कि “अगर राजनेताओं और व्यवसाइयों के बीच गठबंधन को मजबूत होने दिया गया तो प्रतियोगिता खत्म हो जा सकती है. इससे भयानक मंदी छा जाएगी. ...” (टाइम्स आॅफ इंडिया, 31 जुलाई 2010). राजन ने इस संभावना के बारे में भी आगाह किया था कि उभरता अल्पतंत्र (आॅलिगार्की) प्रमुख व्यवसायों पर और नतीजतन, सरकार की नीति पर नियंत्रण स्थापित कर ले सकता है और देश को भ्रष्टाचार तथा क्रोनीवाद के चलते मध्य आमदनी के जाल में धकेल दे सकता है – जैसा कि मेक्सिको जैसे देशोें में देखा गया. यह अलग बात है कि अब श्री राजन रिजर्व बैंक के गवर्नर पद पर सुखपूर्वक विराजमान हैं, और क्रोनीवाद के खतरों के बारे में अब हम उन्हें कभी कुछ कहते नहीं सुनते हैं.

इस बीच क्रोनीवाद की ताकत बढ़ती चली गई. राडिया टेप प्रकरण ने दिखाया है कि काॅरपोरेट गुटबाजों के प्रभाव में आकर कैसे संसद सदस्यों ने अनेक नीतिगत मुद्दों पर खास-खास निगमों को फायदा पहुंचाने के लिए काम किया. दोषियों को दंड देने के बजाय, यह प्रस्ताव रखा जा रहा है कि इस किस्म की गुटबंदी को वैध बना देना चाहिए, और लोकपाल बिल कहता है कि निर्वाचित जन प्रतिनिधियों द्वारा किए गए ऐसे भ्रष्ट आचरण की जांच लोकपाल नहीं कर सकता है. सचमुच, मुकेश अंबानी ने निजी वार्तालाप के दौरान जो कुछ कहा, उसे उद्धृत करते हुए हम कह सकते हैं कि सभी शासक पार्टियां सबसे बड़े काॅरपोरेट घरानों की “अपनी दुकान” हो गई हैं.