अब इस रहस्य से पर्दा उठ चुका है कि 2012 के अंत में जयपाल रेड्डी को पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्रालय से इसीलिए हटाया गया था ताकि रिलायंस इंडस्टीज कृष्णा-गोदावरी (केजी) बेसिन से उत्पादित गैस की कीमत को मनोवांछित स्तर तक ऊंचा उठा सके. इसके पूर्व रिलायंस ने गैस की कीमतों में तेज वृद्धि की मांग करते हुए इसे पूर्व-सहमत 4.2 डाॅलर प्रति दस लाख ब्रिटिश थर्मल युनिट्स (एमएमबीटीयू) से बढ़ाकर 14 डाॅलर प्रति एमएमबीटीयू से भी ज्यादा करना चाहा था (पूर्व का वह समझौता 31 मार्च 2014 तक के लिए वैध था) – अर्थात् तिगुनी से भी अधिक बढ़ाने की मांग कर रहा था. शक्तिसंपन्न मंत्री समूह के लिए तैयार एक नोट में रेड्डी ने बताया था कि रिलायंस की मांग को मान लेने का मतलब होगा निम्न उत्पादन के मौजूदा स्तरों पर भी उस कंपनी को 2 वर्षों में 43,000 करोड़ रुपये (8.5 अरब डाॅलर) का अतिरिक्त मुनाफा तथा केंद्र व राज्य सरकारों पर 53,000 करोड़ रुपये (10.5 अरब डाॅलर) का अतिरिक्त वित्तीय बोझ डाल देना. प्रकारांतर से इसका यह भी मतलब  होगा कि देश में बिजली और खाद की कीमतें बढ़ेंगी, अथवा सरकार पर सब्सिडी का भार बढ़ेगा. इन्हीं वैध आधारों पर उन्होंने रिलायंस की मांग को खारिज कर दिया. कंपनी ने तब उत्पादन को आधा करके इसका बदला लिया और दावा किया कि तकनीकी समस्याओं के कारण उसे ऐसा करना पड़ा. उसने अपनी गैस उत्पादन प्रक्रिया का संपूर्ण आॅडिट भी नहीं करने दिया और यह आरोप लगाते हुए रेड्डी पर दबाव बनाया कि “नीति अवरोध” के चलते क्षमता-निर्माण में निवेश रुक गया है. कांग्रेस हाई कमान ने इस ब्लैकमेल के सामने घुटने टेक दिए. रेड्डी को विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय में भेज दिया गया और आज्ञापालक वीरप्पा मोइली को उनकी जगह पर लाया गया. रिलायंस ने घूस के बल पर मुख्य विपक्षी दल और काॅरपोरेट मीडिया का मुंह लगभग बंद कर दिया और यह पूरा प्रकरण तब तक दबा रहा, जबतक कि “इंडिया अगेंस्ट कॅरप्शन” ने इस मामले का पूरा भंडाफोड़ न कर दिया.

इस बदलाव का असर तुरंत दिखा. 2013 के मध्य में जब ‘कैग’ (सीएजी) ने केजी-डी 6 ब्लाॅक के आॅडिट में सहयोग करने के मामले में रिलायंस के इन्कार की शिकायत संबंधित मंत्रालय से की, तब मोइली ने कंपनी को ‘क्लीन चिट’ दे दिया. लगभग एक महीने बाद सितंबर में ‘कैग’ ने एक बार फिर सरकार से शिकायत की कि वह कंपनी महत्वपूर्ण मुद्दों पर सूचनाएं उपलब्ध नहीं करा रही है, लेकिन इसका कोई नतीजा नहीं निकला.

यह सब कोई नई बात नहीं है. इसके पूर्व 2006 में मणि शंकर की जगह मुरली देवड़ा को लाया गया था, और उन्होंने शीघ्र ही रिलायंस के पूंजी व्यय आकलन में वृद्धि (2.39 अरब डाॅलर से बढ़ाकर 8.8 अरब डाॅलर करने) को स्वीकृति प्रदान कर दी (जिसका मतलब था करों में भारी छूट), और उन्होंने गैस की कीमत को 2.34 डाॅलर प्रति एमएमबीटीयू से बढ़ाकर 4.2 डाॅलर प्रति एमएमबीटीयू करने के प्रस्ताव को भी मंजूरी दे दी. ऐसा लगता है मानो, वाजपेयी सरकार के अंतर्गत राम नाइकवर्ष 2000 में एनडीए शासन काल के दौरान आरआइएल ने यह ठेका प्राप्त किया था जिससे इस कंपनी को कई बेजा और बिलकुल असामान्य फायदे मिले. से लेकर यूपीए -2 तक, रिलायंस कंपनी पेट्रोलियम मंत्री के पद पर अपना पसंदीदा आदमी बहाल करवाने में महारत हासिल कर चुकी है. सीएजी के अनुसार, इस बात के मजबूत प्रमाण हैं कि कंपनी गलत-सलत तरीके से अपने पूंजी व्यय को बढ़ाकर दिखाती रही है, क्योंकि मूल संविदा की शर्तों के अनुसार इससे मुनाफे में उसका हिस्सा बढ़ जाता है.

और भी कई अनियमितताएं हुईं, लेकिन हर आने वाली सरकार ने उन्हें माफ कर दिया. मसलन, रिलायंस इंडिया लिमिटेड (आरआइएल) ने 2004 में एनटीपीसी के साथ करार किया था कि वह 17 वर्षों तक एनटीपीसी के बिजली संयंत्रों को 2.34 डाॅलर प्रति एमएमबीटीयू की दर से गैस आपूर्ति करेगी, और इसी किस्म का समझौता रिलायंस नेचुरल रिसोर्सेज लिमिटेड (आरएनआरएल) के साथ भी हुआ था. लेकिन, आरआइएल अपने वादे से मुकर गया. आरआइएल के दबाव पर प्रणव मुखर्जी की अध्यक्षता में गठित शक्ति संपन्न मंत्री समूह ने सितंबर 2007 में गैस की कीमत को संशोधित करते हुए 4.2 डाॅलर प्रति एमएमबीटीयू कर दिया. एनटीपीसी और आरएनआरएल को इस बढ़ी हुई कीमत पर आरआइएल से गैस लेने को बाध्य किया गया, जिससे आरआइएल को भारी-भरकम मुनाफा हुआ.

एक शब्द में कहें तो, आरआइएल को इस रूप में आचरण करने की इजाजत दी गई है, मानो वही इन संसाधनों का स्वामी हो, जबकि तथ्य यह है कि वह गैस निकालने के लिए सरकार द्वारा भाड़े पर नियुक्त एक संवेदक (ठेकेदार) मात्रा है, और गैस का स्वामी तो भारत की जनता है. इसके अलावा क्षमता उपयोग, उत्पादक लागत आदि के लिहाज से इस कंपनी का प्रदर्शन पेट्रो रसायन क्षेत्र के सार्वजनिक उद्यमों से काफी बदतर रहा है. ऐसे शर्मनाक राजकीय संरक्षण के चलते ही वित्तीय वर्ष 2011 में उसने 20,000 करोड़ रुपये से भी ज्यादा मुनाफा कमाया, जबकि उसका राजस्व 2.5 लाख करोड़ रुपया से भी अधिक हो गया.

आगे तो और बड़ी बात हुई. तथाकथित “विशेषज्ञ” रंगराजन समितिविस्तृत जानकारी के लिए देखें ‘लिबरेशन’ (अगस्त 2013) में प्रकाशित तापस रंजन साहा का लेख प्राइसिंग नेचुरल गैसः यूपीएज लेटेस्ट गैंबिट फाॅर रिलायंस. ने यह सिफारिश की थी कि प्राकृतिक गैस के कीमत-निर्धारण की मौजूदा प्रशासित और समझौता आधारित पद्धति की जगह भारत को आयात समतुल्यता पर आधारित एकल गैस कीमत निर्धारण फार्मूला अपनाना चाहिए. इसी को मानकर आर्थिक मामलों की कैबिनेट कमेटी (सीसीएई) ने 28 जून 2013 को प्राकृतिक गैस की कीमत 4.2 डाॅलर प्रति एमएमबीटीयू से बढ़ाकर 8.4 डाॅलर प्रति एमएमबीटीयू करने की घोषणा कर दी, जो अप्रैल 2014 के बाद पांच वर्षों तक लागू रहेगा. इस फैसले से सर्वाधिक फायदा रिलायंस इंडस्ट्रीज को होगा, जबकि गैस का इस्तेमाल करने वालों – मुख्यतः बिजली, खाद और एलपीजी उत्पादकों – को भारी खर्च उठाना पड़ेगा, और ये सब अधिकांशतः सार्वजनिक क्षेत्र के अंतर्गत आते हैं! यही कारण है कि शहरी विकास मंत्रालय, ग्रामीण विकास मंत्रालय, रसायन व उर्वरक मंत्रालय तथा बिजली मंत्रालय ने इस कीमत-वृद्धि का विरोध किया. लेकिन, स्वाभाविक है कि अंततः वही हुआ, जो मनमोहन- चिदंबरम की जोड़ी चाहती थी. अहलूवालिया जैसे लोगों के समर्थन से इस जोड़ी ने इस बात की भी परवाह नहीं की कि ऊंची कीमतों का मतलब होगा खाद और बिजली के सब्सिडी बिल में वृद्धि, राष्ट्रीय खजाने का नुकसान और बिजली, परिवहन व खाद्य पदार्थों की उच्चतर कीमतों के रूप में आम जनता के जेब की और अधिक कटौती.

रिलायंस इंडस्ट्रीज का साम्राज्य सिर्फ पेट्रो रसायन, तेल, प्राकृतिक गैस और इसके शुरूआती क्षेत्र पोलिस्टर फाइबर तक ही सीमित नहीं है. इसके साम्राज्य में अब विशेष आर्थिक जोन (‘सेज’), ताजा खाद्य पदार्थों की खुदरा बिक्री, उच्च विद्यालय, जीवन विज्ञान शोध, स्टेम सेल भंडारण सेवाएं, और क्या नहीं आते हैं. वह ‘इंफोटेल’ में भी 95 प्रतिशत हिस्सेदारी का दावा करता है, जो सीएनएन-आइबीएन समेत 27 टीवी समाचार और मनोरंजन चैनलों का नियंत्रण करने वाला दूरदर्शन संकाय है. सिर्फ इसी को 4-जी ब्रौड बैंड के लिए राष्ट्रव्यापी लायसेंस प्राप्त है. यह साम्राज्य आइपीएल टीम “मुबई इंडियंस” का भी नियंत्रण करता है और उसके आवास “अंतिला” में 27 मंजिलें, तीन हैलिपैड, नौ लिफ्ट, हैंगिंग गार्डेन, नृत्य गृह, मौसमी कमरे, अनेक स्वीमिंग पूल, जिम्नाजियम, वाहन पार्किंग के लिए 6 मंजिलें और मालिक की सेवा में नियुक्त 600 कर्मचारी मौजूद हैं.

यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि अगर मुकेश अंबानी अपने भाई अनिल अंबानी से अलग नहीं हुए होते तो संपूर्ण अंबानी परिवार की संयुक्त संपदा कितनी हो सकती थी. पिछले वर्ष (2013) अप्रैल में वे निजी क्षेत्र के पहले व्यक्ति बने, जिन्हें जेड-सुरक्षा प्रदान की गई, क्योंकि जैसा कि भारत सरकार के एक प्रवक्ता ने बताया, वे एक “राष्ट्रीय परिसंपत्ति” हैं.