अब, इस अध्याय में वर्णित सात किस्म के उपायों की वांछनीयता के प्रश्न को क्षण भर अलग हटाते हुए, हम यह देखें कि क्या इन उपायों से पिछले वर्षों की उच्च वृद्धि दर को पुनः हासिल किया जा सकता है? ऐसा लगता तो नहीं है. यहां तक कि उच्चस्तरीय सुधार-पैकेज (यानी, बड़ी पूंजी को दी गई नई रियायतें) भी अधिकांश मामलों में आशानुकूल नतीजे नहीं दे रहे हैं. पिछले वर्ष लगभग तमाम क्षेत्रों में विदेशी निवेश की सीमा को बढ़ाने के फैसले का नतीजा यही निकला कि दक्षिण कोरियाई कंपनी पोस्को ने कर्नाटक में अपनी 6 अरब डाॅलर की परियोजना को रद्द कर दिया और दुनिया के सबसे बड़े इस्पात निर्माता आर्सेलर-मित्तल ने ओड़िशा में अपनी 12 अरब डाॅलर की इस्पात संयंत्र परियोजना वापस ले ली. और इस किस्म के धक्कों के पीछे कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है. भारतीय अर्थतंत्र की अस्थिर स्थिति को देखते हुए यही आशा की जा रही थी कि मुनाफा के पीछे दौड़नेवाली विदेशी कंपनियां इस देश में निवेश करने में अध्कि रुचि नहीं दिखाएंगी. पिछले एक वर्ष से अधिक समय के वास्तविक अनुभव तो यही साबित करते हैं (उदाहरण के लिए, रिटेल में एफडीआई का मामला देखा जा सकता है जहां उनका प्रत्युत्तर नरम से भी काफी कम रहा).

इसी प्रकार, अर्थतंत्र की खस्ताहाल स्थिति अनेक भारतीय व्यवसायियों को भी अपने देश की बजाय विदेशों में निवेश करने के लिए अधिक प्रेरित कर रही है. उनका यह परिणामवादी रवैया दिसंबर 2013 में आयोजित ‘फिक्की’ के 76वें कन्वेंशन में इसके पूर्व-उपाध्यक्ष प्रसिद्ध उद्योगपति वाइके मोदी द्वारा दिए गए भाषण में आधिकारिक रूप से सामने आया है. तेज निवेश के लिए राहुल गांधी की अपील के जवाब में उन्होंने कहा कि वे भारत में इसलिए निवेश नहीं करेंगे, क्योंकि देश को इसकी जरूरत है; बल्कि वे अपने खुद के और अपने शेयरधारकों के हित में ही ऐसा करेंगे; अन्यथा वे दूसरे मुल्कों में निवेश करना ज्यादा पसंद करेंगे.

दूसरा उदाहरण देखिए. काॅरपोरेट बैंक खोलने के मामले में भी कोई खास प्रगति नहीं हुई है. वीडियोकोन के वेणुगोपाल धूत द्वारा शुरू किए गए वैल्यू इंडस्ट्रीज के नक्शे-कदम पर चलते हुए टाटा सन्स ने भी नया बैंक खोलने का अपना आवेदन वापस ले लिया. और महिंद्रा फाइनांस जैसी कुछ अन्य प्रमुख हस्तियों ने घोषणा की है कि वे इस क्षेत्र से अलग रहना ही पसंद करेंगे.

स्पष्ट है, कि मनमोहनोमिक्स का जादू समाप्त हो चुका है. जो कुछ शेष है और तेजी से बढ़ रहा है, वह है इसका जहरीला सह-उत्पाद (बाई-प्रोडक्ट).