अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) की “वर्ल्ड आॅफ वर्क रिपोर्ट 2011” (विश्व श्रम रिपोर्ट) ने स्थायी रूप से बने रहने वाली बेरोजगारी को “सर्वाधिक विकसित देशों में आर्थिक रोग-निवृत्ति की सबसे कमजोर कड़ी (एकिलस हील)” बताया है और कहा है कि “... कमजोर अर्थतंत्र द्वारा रोजगार और समाज पर कुप्रभाव डाले जाने का एक दुष्चक्र (विसियस साइकिल) चल रहा है, जो फिर वास्तविक निवेश और उपभोग को गिरा रहा है, और इस तरह अर्थतंत्र को ही मंदी में डाल रहा है, और यही चलता जा रहा है. इस दुष्चक्र को तब तोड़ा जा सकता है जब बाजारें रोजगार का सृजन करें, इसके विपरीत नहीं.” मगर, ऐसा नहीं किया जा रहा है. “हाल के रुझान इसी तथ्य को दर्शा रहे हैं कि रोजगार को रोग-निवृत्ति की प्रमुख चालक-शक्ति मानते हुए उसकी स्थिति पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है. तमाम देशों ने वित्तीय बाजारों के तुष्टीकरण पर ही अपना अधिक-से-अधिक ध्यान केन्द्रित कर लिया है.” (जोर हमारा)

वास्तव में इसी नीतिगत दिशा के कारण रोजगार संकट बद से बदतर होता जा रहा है. आईएलओ द्वारा जुलाई 2012 में जारी रिपोर्ट “यूरोजोन में रोजगार का संकट: प्रवृत्तियां और नीतिगत कदम” के अनुसार, संकट से पहले की तुलना में आज कुल रोजगारप्राप्त लोगों की संख्या 35 लाख कम है. “सबसे ज्यादा खतरे की बात है कि वर्ष 2010 और 2011 में सामान्य सी रोग-निवृत्ति के बाद यूरोजोन के देशों में, जिनके ताजातरीन आंकड़े उपलब्ध हैं, वर्ष 2012 की शुरूआत से रोजगार गिर गया है.” यही प्रवृत्ति अधिकांश अन्य देशों में देखी जा रही है और उसका कारण भी उपरोक्त नीतिगत दिशा है.

सितम्बर 2012 में विश्व बैंक द्वारा जारी की गई वल्र्ड डेवलपमेंट रिपोर्ट (विश्व विकास रिपोर्ट, डब्लूडीआर) 2013 के अनुसार, एक ऐसे समय में जब दुनिया वैश्विक संकट से उबरने की कोशिश में जुटी है, लगभग 20 करोड़ लोग बेरोजगार हैं, जिनमें 25 वर्ष से कम उम्र के 7.5 करोड़ युवा शामिल हैं. विश्व विकास रिपोर्ट के निदेशक मार्टिन रामा कहते हैं कि “नौजवानों की यह चुनौती अकेले ही स्तब्ध कर देने वाली चीज है”, और वे जोड़ देते हैं कि “62.5 करोड़ से ज्यादा नौजवान लोग न तो काम कर रहे हैं और न शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं. महज रोजगार की दर को स्थिर बनाये रखने के लिये दुनिया भर के कुल रोजगार की संख्या में, अगले 15 वर्षों की अवधि में, लगभग 60 करोड़ की वृद्धि करनी होगी.”

जनता के परिप्रेक्ष्य से देखने पर बेरोजगारी की समस्या प्रणालीगत संकट की सबसे कष्टदायक अभिव्यक्तियों में से एक है और खाद्य संकट के साथ इसे जोड़ दिया जाय तो यह खुद व्यवस्था के सामने गंभीर खतरा बन जाती है. वल्र्ड इकनाॅमिक फोरम ने इसको बेहतरीन ढंग से समझा है (देखें इस पुस्तिका के तीसरे कवर पर छपी रिपोर्ट), जिससे जाहिर होता है कि अंतर्राष्ट्रीय अधिकारीगण भी इस मामले में कम चिंताग्रस्त नहीं दिखते.

विश्व बैंक के मुख्य अर्थशास्त्री एवं वरिष्ठ उपाध्यक्ष कौशिक बसु के अनुसार, “गरीबी और असुरक्षा के खिलाफ सर्वोत्तम बचाव का साधन रोजगार है. एक ऐसा कारोबारी माहौल, जिसमें श्रम की मांग बढ़े, पैदा करने के जरिये सरकारें इस मामले में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं” [वे यहां जोड़ना भूल गये कि उन्हें ऐसा करना तो चाहिये मगर करती नहीं हैं]. विश्व बैंक समूह के अध्यक्ष जिम योंग किम ने कहा, “हमें छोटी कम्पनियों और फार्मों की वृद्धि में मदद करने के लिये सर्वोत्तम तरीके खोजना जरूरी है. रोजगार का अर्थ है उम्मीद. रोजगार का अर्थ है शांति. रोजगार ऐसे कमजोर मुल्कों में स्थिरता ला सकते हैं, जो टूटने की कगार पर हैं.” यकीनन, एकाधिकारी वित्तीय पूंजी द्वारा भाड़े पर नियुक्त नीति-निर्माताओं में से एक ने भी इस किस्म की सलाह पर कान नहीं दिया.