वर्ष 2007 से ही सरकारों ने संकट से पार पाने के लिये सिलसिलेवार ढंग से कई कदम उठाये हैं. हाल में उठाये गये कदमों में से विश्व स्तर पर जोखिम को घटाने के मकसद से बनाये गये नये वित्तीय विनियमों का अवश्य ही उल्लेख किया जाना चाहिये, मसलन बैसेल-3 के नाम से विदित अंतर्राष्ट्रीय सहमति के आधार पर बनी रूपरेखा और अमरीका का डाॅड-फ्रैंक वाॅल स्ट्रीट रिपफार्म एंड कंज्यूमर प्रोटेक्शन ऐक्ट (वाॅल स्ट्रीट सुधार एवं उपभोक्ता सुरक्षा अधिनियम). डाॅड-फ्रैंक कानून के तहत कायम की गई फाइनेंशियल स्टेबिलिटी ओवरसाइट काउंसिल (वित्तीय स्थिरता निगरानी परिषद, एफएसओसी) को कार्यभार दिया गया है कि वह अमरीकी वित्तीय व्यवस्था के लिये, बड़े बैंकों अथवा वित्तीय कम्पनियों के1 मुश्किल में पड़ने या दिवालिया होने से पैदा होने वाली अत्यधिक जोखिम भरी चीजों को चिन्हित करे और उनकी निगरानी करे. एक और अंतर्राष्ट्रीय संगठन है यूरोपियन स्टेबिलिटी मेकेनिज्म (ईएसएम), जो अभी गठन के दौर में है और जब वह क्रियाशील हो जायेगा तो वित्तीय कठिनाइयां आने पर यूरोजोन के सदस्यों को वित्तीय सहायता प्रदान करेगा. आलोचकों का कहना है कि ईएसएम ने अपने नियंत्रक मंडल (बोर्ड आॅफ गवर्नर्स) को बेहद ज्यादा अध्किार और सुरक्षा-कवच दे रखे हैं और वह सदस्य देशों की आर्थिक संप्रभुता में भारी काट-छांट करता है.

अमरीकी केन्द्रीय बैंक (फेडरल रिजर्व), ब्रिटिश केन्द्रीय बैंक (बैंक आॅफ इंगलैंड) और यूरोजोन का केन्द्रीय बैंक (यूरोपियन सेन्ट्रल बैंक) ने परिमाणात्मक सुविधापरिणामात्मक सहूलियत (क्वांटिटेटिव ईजिंग, क्यूई) का अर्थ यह है कि केन्द्रीय बैंक एक पूर्व-निर्धारित मात्रा में मुद्रा का अर्थतंत्र में प्रवेश कराने के लिये वाणिज्यिक बैंकों एवं अन्य निजी संस्थानों से वित्तीय परिसम्पत्तियां खरीद लेता है. इसके फलस्वरूप बैंकों में धनराशि का अतिरिक्त भंडार बढ़ जाता है और खरीदी गई वित्तीय परिसम्पत्तियों की कीमतें बढ़ जाती हैं, जिससे निवेश की गई राशि के प्रतिशत के बतौर इन परिसम्पत्तियों से प्राप्त आय गिर जाती है. जब अल्पकालीन ब्याज की दरें शून्य के आस-पास हों, तो सरकारी बांड खरीदने की परम्परागत नीति के जरिये ब्याज की दरों को और नहीं घटाया जा सकता. मुद्रा का संचालन करने वाले अधिकारियों द्वारा अर्थतंत्र को अधिक आवेग प्रदान करने के लिये अल्पकालीन सरकारी बांजों के बजाय लम्बे अरसे में परिपक्व होने वाली परिसम्पत्तियों की खरीद के जरिये परिमाणात्मक सहुलियत का इस्तेमाल किया जा सकता है और इसके जरिये दीर्घकालीन ब्याज दरों को और भी घटा दिया जाता है. लेकिन इस बात का खतरा हमेशा रहता है कि यह नीति मुद्रा-संकुचन (डिफ्लेशन) के खिलाफ क्रियाशील होने में जरूरत से ज्यादा असरदार हो जाय – जिससे मुद्रास्फीति और बढ़ जायेगी, अथवा, अगर बैंक अपने अतिरिक्त धनराशि के भंडार को कर्ज पर देने के लिये उपयुक्त अवसर नहीं पा सके तो इसका कोई वांछित परिणाम नहीं निकलेगा. विशेष उदारहण के बतौर अमरीका में क्यूई-3 (तृतीय परिमाणात्मक सहू. लियत) के मामले में लगता है कि उसका मुख्य लक्ष्य वॉल स्ट्रीट के बैकों और बड़े निवेशकों को अंतहीन रूप से पिछले दरवाजो का इस्तेमाल कर संकट से राहत दिलाने के एक और कदम के बतौर, जरहीले असर वाली बंधकी द्वारा समर्थित सिक्योरिटी (टॉक्सिक मॉर्टगेज-बैक्ड सिक्योरिटीज) को खरीदना ही है. (क्यूई) का सहारा ले रखा है जिसके कारगर होने की क्षमता संदिग्ध है. अमरीका में सितम्बर 2012 में जिस तृतीय क्यूई (यहां तृतीय का अर्थ यह है कि संकट के आगमन के बाद तीसरी बार इस किस्म का कदम उठाया गया) की घोषणा की गई वह रिपब्लिकन और डेमोक्रैट प्रतिनिधियों के बीच विवाद का विषय बना हुआ है. जबकि डेमोक्रैट इससे उम्मीद करते हैं कि वह अर्थतंत्र को आवेग प्रदान करेगा और रोजगार के अवसर पैदा करेगा, वहीं रिपब्लिकनों का मत है कि इसके परिणामस्वरूप परिसम्पत्ति का एक और बुलबुला बनेगा तथा यह अर्थतंत्र के दीर्घकालीन हितों को नुकसान पहुंचायेगा.

लेकिन यहां तक कि पूंजीवादी विशेषज्ञ भी इस बात को मानते हैं कि ये सारे उपाय अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय प्रणाली के सामने खड़े जोखिमों का समुचित समाधान नहीं हैं और विश्व अर्थतंत्र वर्ष 2008-09 की अपेक्षा ज्यादा तीखे ढलान पर फिसल रहा है. वैश्विक विस्तार के पूर्ववर्ती आर्थिक चालक अपनी क्षमता खो बैठे हैं. दुनिया के सबसे बड़े अर्थतंत्रा में मैन्युपफैक्चरिंग की वृद्धि की गति गत जुलाई माह में पिछले तीन वर्षों की अवधि में सबसे धीमी रही है और विशाल मात्रा में हुए अमरीकी राजस्व घाटे को सुधारने के लिये उठाये गये अनिवार्य कदमों (खर्च घटाना और टैक्स बढ़ाना) से वर्ष 2013 के बाद से स्थिति बिगड़ेगी. दुनिया की दूसरे सबसे बड़े अर्थतंत्र चीन का फैक्टरी उत्पाद आठ महीनों की अवधि में सबसे धीमी गति से बढ़ा. कुल मिलाकर ब्रिक देशों में (ब्राजील, रूस, भारत, चीन), जिन्होंने इस शताब्दी के प्रथम दशक में वृद्धि को नया आवेग प्रदान किया था, अर्थतंत्र अब कमोबेश तेजी के साथ अपनी गति खोते जा रहे हैं. संसाधनों के घटने, कर्ज के ज्यादा होने और पूंजीवादी व्यवस्था को बचाने का बोझ डाले जाने के खिलाफ बढ़ते जन-प्रतिरोध के कारण राष्ट्रीय राज्यों और वित्तीय पूंजी के अंतर्राष्ट्रीय अंगों को यह समझ में नहीं आ रहा कि करें तो क्या करें?

सच है कि नीति-निर्माताओं को अब और विकल्प नहीं दिख रहे हैं. मौद्रिक नीति के औजार -- जैसे ब्याज की दरों में कमी लाना और नोट छपवाना या फिर इलेक्ट्राॅनिक माध्यम से मुद्रा का सृजन -- अब अत्यधिक इस्तेमाल के कारण नाकारगर हो गये हैं. वर्ष 2008-09 में और उसके बाद, आसमान छूते वित्तीय उत्प्रेरकों का सहारा लिया गया (अधिकांशतः बैंकों और उसके बाद आइसलैंड और ग्रीस जैसे देशों को संकट से रिहाई दिलाने के लिये), लेकिन पहले से संचित कर्ज के ऊपर अपनाये गये इस उपाय का परिणाम सर्वाधिक विकसित अर्थतंत्रों में अरक्षणीय बजट घाटे और सार्वजनिक ऋण के रूप में हुआ, और इस हद तक हुआ कि बजटीय उत्प्रेरक के ठीक विपरीत “कमखर्ची” अब नया मंत्र बन गया.