नियत समयावधि पर आने वाले संकटों के पीछे -- जैसा कि हमने मार्कस के उद्धरणों से समझा है -- अनगिनत शक्तियों की जटिल अंतःक्रिया छिपी रहती है, जिनमें सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है “अतिउत्पादन की महामारी” अथवा पूंजी का अतिसंचय, जो आय और सम्पदा के क्रमशः बढ़ते असमान वितरण के साथ-साथ चलता है.

मार्कस ने संकट के बारे में पूर्णरूपेण द्वंद्वात्मक नजरिया विकसित किया था. एक ओर, वे अधिशेष अथवा अतिसंचित पूंजी का स्वतःस्फूर्तत रूप से और निर्ममतापूर्वक विनाश करने के लिये पूंजीवाद की अंतर्जात व्यवस्था हैं, “ताकि (व्यापार) चक्र फिर नये सिरे से अपने गतिपथ पर चलना शुरू हो” (पूंजी). दूसरी ओर, वे इसे ऐसे तरीके से हासिल करते हैं जो “अधिक व्यापक, अधिक विनाशकारी संकटों का रास्ता तैयार करता है, और ऐसे साधनों को घटाता जाता है जिनसे इन संकटों को रोका जा सके” (कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र) और अंततः पूंजी के शासन का “हिंसात्मक रूप से तख्ता पलटने” की ओर ले जाता है (ग्रुंड्रिस). इसी नजरिये से हमने नवउदारवाद के संकट को समझने की कोशिश की है.

वित्तीय विपदा और उसके बाद की चीजों से जो केन्द्रीय सबक हमारे सामने आता है वह यह है कि 1970 के दशक के संकट की प्रतिक्रिया में वैश्विक पूंजीवाद द्वारा अपनाई गई रणनीति नाकाम रही है. वह तितरफा रणनीति थी, जिसमें नियंत्रणों से मुक्ति (डीरेगुलेशन) अथवा बाजार रूढ़िवाद (मार्केट फंडामेंटलिज्म), वैश्वीकरण और वित्तीयकरण शामिल थे. चूंकि यही तीन वे स्तम्भ थे जिन पर 1970 के दशक के बाद का पूंजीवाद खड़ा था -- और एक मायने में, और विश्व के कुछेक देशों में, फलफूल भी रहा था -- अतः इन स्तम्भों को जो बड़ा नुकसान झेलना पड़ा है उससे पूंजीवाद की समूची इमारत ही डगमगा रही है. यही कारण है कि यूरोपीय सरकारी (साॅवरेन) ऋण संकट जैसे बाद में लगने वाले धक्कों का कोई अंत नहीं हो रहा. इसी कारण से संकट के आगमन के पूरे पांच वर्ष बीत जाने पर भी विश्व अर्थतंत्र अभी तक निष्क्रियता में फंसा है.

लेकिन वर्तमान संकट जैसे किसी व्यवस्थागत संकट का अर्थ आवश्यक रूप से यह नहीं कि व्यवस्था जल्द ही, बस किसी भी क्षण भहराकर गिरने वाली है. अगर पिछले अनुभव से हम कोई सबक लें तो यह कह सकते हैं कि एक किस्म का ढांचागत पुनर्गठन जरूर होने वाला है. इसकी मूल अंतर्वस्तु और दिशा (श्रम-पक्षीय अथवा श्रम-विरोधी) तो मुख्यतः निर्भर करेगी वर्ग-युद्धों के नतीजे पर -- जो रक्षात्मक और आक्रमणात्मक, गैर-संसदीय और संसदीय -- रूपों में आज सारे विश्व में दिखाई दे रहे हैं. क्या हम अमरीका और यूरोप में जनसमुदाय द्वारा उसी भूमिका को दुहराया जाना देखेंगे, जिसके दौरान उन्होंने अपने शासक कुलीनतंत्र को न्यू डील अपनाने और कल्याणकारी राजकीय नीतियों को ग्रहण करने पर मजबूर कर दिया था? क्या पूंजीपति वर्ग के अंदर गैर-वित्तीय हित अपने सहजात दूरदर्शी बुद्धिजीवियों को साथ लेकर, जो भी आपेक्षिक स्वाधीनता उनके पास बची है उसका जोर दिखलाते हुए नियंत्रण कायम करने वाली (रेगुलेटरी) नीतियों को लागू कर सकेंगे और ऐसे सुधार ला सकेंगे जो पूंजीवाद की खोई वैधता को थोड़ी-बहुत हद तक बचा सकें? या फिर, वित्तीय अल्पतंत्र को नीतियों में ऐसे रस्मी और दिखावटी बदलाव पेश करने में सफलता मिलेगी, जो वास्तव में उनकी अपनी वर्चस्वशाली स्थितियों को सुदृढ़ करेंगे तथा विशाल मुनाफों की गारंटी करेंगे?

नहीं, हमें महज इसका इंतजार नहीं करना होगा.

जब हम ये पंक्तियां लिख रहे हैं, तो भारत की जनता डा. मनमोहन सिंह और उनके आकाओं द्वारा नवउदारवादी ‘सुधारों’ की और भी बड़ी खुराक दिये जाने के खिलाफ सिर उठाकर खड़ी हो गई है. सारी दुनिया में लोग यही कर रहे हैं. 26 सितम्बर को, एथेंस में आम हड़ताल के अंग के बतौर दो लाख से ज्यादा लोगों ने विशाल प्रदर्शन में भाग लिया और सड़कों पर छा गये. प्रदर्शनकारियों ने ड्रम बजाते हुए “जनता, लड़ो, वे लोग तुम्हारा खून पी रहे हैं” के नारों से आसमान गुंजा दिया. लोगों ने पुलिस से टक्कर ली और पेट्रोल बमों व बोतलों का इस्तेमाल किया. उसी दिन, ग्रीस के कर्जदाताओं की मांग के सामने झुकते हुए, सरकार ने 11.5 अरब यूरो (14.87 अरब डाॅलर) राशि के खर्च में कटौती के पैकेज का ऐलान किया. लगभग उसी समय हजारों लोगों ने मैड्रिड में संसद को घेर लिया और पांच लाख से ज्यादा लोगों ने पुर्तगाल में सरकार के सामाजिक सुरक्षा व्यय में कटौती के खिलाफ विभिन्न जगहों में सड़कों पर मार्च किया.

हम सभी को इस लड़ाई में अपनी पूरी ताकत के साथ शरीक होना होगा, फिलहाल के लिये जिसका लक्ष्य होगा नवउदारवादी नीतियों को वापस करवाना और प्रगतिशील सुधारों को लाना, और अंततः इस अविवेकपूर्ण, उत्पीड़क, अमानवीय सामाजिक व्यवस्था में आमूलचूल बदलाव लाना.