(लिबरेशन, जनवरी 1996 से)

हाल फिलहाल दिल्ली में सीपीआई की 16वीं कांग्रेस संपन्न हुई. सीपीएम, आरएसपी और फारवर्ड ब्लाक के अलावा एसयूसीआई, पीजेंट्स वर्कर्स पार्टी के साथ-साथ हमारी पार्टी को भी इस कांग्रेस के खुले सत्र में शामिल होने और प्रतिनिधि सत्र को संबोधित करने के लिए आमंत्रित किया गया था. इन तमाम पार्टियों के, जो एक साथ मिलकर वामपंथी शक्तियों के विशाल बहुमत का प्रतिनिधित्व करती हैं, एक मंच पर आने से मीडिया जगत में उनके नजदीक आने को लेकर अटकलें लगने लगीं. कुछ समाचारपत्रों ने तो यहां तक भी छापा कि इन पार्टियों के बीच कुछ आपसी सहमति भी बनी है. बहुतेरे संवाददाताओं और अनेक कामरेडों की उत्सुकता का जवाब देते हुए मुझे इस भ्रम को तोड़ना पड़ा और इसे अक्सरहां यूं ही की जाने वाली बात की तरह पेश करना पड़ा. मुझे उनके उत्साह पर पानी फेरने का दुख है. लेकिन जब बात वाम एकता जैसे गंभीर और जटिल मसले पर हो तब कोई भी शब्दों से खेलने का आनन्द उठाना नहीं चाहेगा.

अब देखा जाए कि सीपीआई की कांग्रेस में वाम एकता के पूरे मसले को किस तरह से देखा गया. अक्सरहां पूंजीवादी मीडिया जगत की भी खबर बनते रहने वाले एकता के सवाल पर सीपीआई-सीपीएम के बीच चल रहे तीखे वाद-विवाद से पाठकगण संभवतः अवगत होंगे. सीपीआई अपनी इस बात पर कायम है कि 1964 का विभाजन बेबुनियाद है और इससे बचा जा सकता था. इसी आधार पर सीपीआई दोनों पार्टियों को मिलकर एक हो जाने का आह्वान करती है. दूसरी तरफ, सीपीएम 1964 के  विभाजन के पीछे बुनियादी मतभेद की बात को दोहराती रहती है. यह मतभेद मूलतः भारतीय राज्य और भारतीय क्रांति के चरित्र को लेकर था जिसे वह आज भी प्रासंगिक मानती है. इसलिए सीपीएम-सीपीआई के कार्यक्रम में पूरी तरह संशोधन की मांग करती है और इस बीच, अपनी बेहतर शक्ति और संगठन के बलबूते, सीपीआई में विभाजन कराने तथा इसके जनाधार को अपनी तरफ खींच लेने का मंसूबा बांधे हुए है. सीपीआई और सीपीएम के बीच झारखंड, उत्तराखंड तथा उत्तर-पूर्वी राज्यों के क्षेत्रीय स्वायत्तता आंदोलनों पर अपनी अलग-अलग स्थितियों को लेकर तथा इसके अलावा, इस या उस प्रांत में बुर्जुआ विपक्षी पार्टीयों के बीच से अपना-अपना साझीदार चुनने को लेकर भी कुछ मतभेद हैं. विलय को लेकर सीपीएम की चिढ़ का ख्याल करते हुए इस कांग्रेस ने विलय के प्रस्ताव को फिलहाल स्थगित रखा. इस बाबत सीपीआई की सांगठनिक रिपोर्ट कहती है, “इस दरम्यान हमारी कतारों को इस सवाल पर भ्रमित हो जाने की कोई गुंजाइश नहीं छोड़नी चाहिए क्योंकि सीपीएम का मंसूबा कुछ और ही है.” आगे रिपोर्ट “पार्टी की स्वतंत्र पहचान और कार्यवाही” जारी रखने तथा “सीपीएम के रूबरू पार्टी की कार्यक्रमगत एवं सांगठनिक स्थितियों” पर पार्टी के सैद्धांतिक पक्ष को उजागर करने पर जोर देती है. आखिरकार, अपने को बचाए रखने का सहजबोध एक ही पार्टी के भीतर एकताबद्ध हो जाने की पवित्र आकांक्षाओं पर हावी हो ही गया.

वाम एकता के प्रश्न की ओर रुख करते हुए कांग्रेस ने इस पूरे एजेंडे को आगामी लोकसभा चुनावों के तात्कालिक परिणामवादी संदर्भों में समेटकर पेश किया. फलतः, जो कांग्रेस वाम एकता के ढोल-नगाड़े के साथ शुरू हुई थी वह मुलायम सिंह यादव के साथ चुनावी तौर पर ज्यादा मुफीद एकता कायम करने का रास्ता साफ करते हुए खत्म हुई.

संक्षेप में, सीपीआई की यह कांग्रेस आगामी संसदीय चुनाव के लिए पार्टी को गोलबंद करने के एक अभ्यास के अलावा और कुछ नहीं थी. अपने उदघाटन भाषण में इसका टोन सेट करते हुए का० इंद्रजीत गुप्त ने कहा “जो भी इस बात से सहमत हैं कि एक समान न्यूनतम कार्यक्रम पर आधारित बहुतेरी पार्टियों की साझेदारी वाली एक वाम-जनवादी और धर्मनिरपेक्ष सरकार का केंद्र में होना न केवल अपेक्षित है बल्कि मुमकिन भी है, उन्हें अपनी पूरी ताकत और संसाधन ऐसी चुनावी एकता हासिल करने में लगा देनी चाहिए, जिसके बगैर केंद्र में सत्ता परिवर्तन असंभव है. शक्तियों का एक ऐसा संतुलन ही जनता, खासकर गरीब जनता की आकांक्षाओं और राष्ट्र के हितों का प्रतिनिधि हो सकता है.” लेकिन का० गुप्त का दुर्भाग्य यह है कि उनकी शानदार योजना पर उनकी अपनी पार्टी के अलावा और कोई वामपंथी दल सहमत नहीं है. मगर सीपीआई की इस कांग्रेस को उपरोक्त कार्यक्रम को सूत्रबद्ध करने की श्रमसाध्य कसरत से बिल्कुल नहीं डिगाया जा सका, जिसे रंगबिरंगे वामपंथी, लोकतांत्रिक एवं धर्मनिरपेक्ष दलों का न्यूनतम साझा कार्यक्रम कहा जा रहा है.

जनवादी और खासकर धर्मनिरपेक्ष पार्टियों का दायरा बेशक बेहद व्यापक है. इसका विस्तार तिवारी-अर्जुन कांग्रेस तक है जो बकौल इंद्रजीत गुप्त “प्रधानमंत्री की नीतियों और कार्यशैली को एक सैद्धांतिक चुनौती देने” के श्रेय का हकदार है. कांग्रेस की रिपोर्ट में अपनी आत्मालोचना करते हुए इस बात पर अफसोस जाहिर किया गया है कि उत्तरप्रदेश के पिछले चुनाव में पार्टी विजयी सपा-बसपा गठबंधन से गठजोड़ कायम करने से चूक गई. उड़ीसा और मणिपुर की राज्य इकाइयों को संघवाद पर अमल करने और राष्ट्रीय परिषद की सलाहों की अनदेखी करने तथा गलत घोड़े पर दांव लगाने को लेकर खिंचाई की गई है. इसके विपरीत बिहार और आंध्रप्रदेश के प्रयोग का सही चुनावी कार्यनीति के नमूनों के बतौर गुणगान किया गया है. हां, बिहार राज्य कमेटी की, लोकसभा के उपचुनाव में पटना सीट लड़ने पर दबाव डालने के लिए, आलोचना की गई है.

तामिलनाडु की राज्य इकाई में जारी संघवाद को लेकर पार्टी केंद्र अब भी चिंतित रह सकता है जो अपना रिश्ता डीएमके के साथ जारी रखे हुए है. जबकि तामिलनाडु में मजबूत ताकत एआइडीएमके है और राजनीतिक रिपोर्ट का संकेत यह है कि पार्टी उसकी ओर से एक अनुकूल चुनावी रणनीति की प्रतीक्षा में है.

तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियों में से बहुतेरी फिलहाल राज्यों में सरकार चला रही हैं और पूरी तत्परता से नई आर्थिक नीतियों के खिलाफ जन आंदोलन चलाने में उनकी बहुत रुचि नहीं है. फिर, उनमें से कई भ्रष्टाचार और घोटालों में, माफिया-राजनेता गठजोड़ बनाने को बढ़ावा देने, जातिवादी, सांप्रदायिक और कट्टरपंथी ताकतों के साथ गलबंहियां डालने और गांव के गरीब-दलित जनता पर पुलिसिया जुल्म जारी रखने में काफी नाम कमा चुकी हैं. खुद सीपीआई की रिपोर्ट में भी इन बातों को लेकर इन दलों और सरकारों के खिलाफ कई आलोचनात्मक टिप्पणियां की गई हैं.

फिर सीपीआई उन्हें उस न्यूनतम कार्यक्रम के तहत एकताबद्ध करने की आशा किस बिना पर लगाए हुए है. जबकि कार्यक्रम अन्य बातों के अलावा तमाम दमनकारी कानूनों व अध्यादेशों की वापसी, पुलिस बल में सुधार और ऊपर से नीचे तक पूरा फेरबदल, सांप्रदायिक और कट्टरपंथी ताकतों का चौतरफा प्रतिरोध, अनुसूचित जातियों और जनजातियों के अधिकारों की पूरी दृढ़ता से रक्षा, सार्वजनिक क्षेत्र की सुरक्षा, सीलिंग कानूनों को जोर-शोर से लागू करना, शिक्षा का अधिकार और काम का अधिकार, आपराधिक रिकार्ड वाले व्यक्तियों को टिकट देने से मनाही और काले धन का पर्दाफास आदि-आदि पर जोर देता है?

कहना न होगा कि अगर सीपीआई इस न्यूनतम कार्यक्रम के प्रति ईमानदार बनी रहती है तो वाम-जनवादी और धर्मनिरपेक्ष मोर्चे का दायरा खुद ब खुद काफी तंग हो जाएगा. पार्टियों की संख्या के लिहाज से, खासकर उन पार्टियों की जो सीपीआई को एक बेहतर संख्या में सीटें जितवाने में सक्षम हैं, यह दायरा तो निश्चय ही तंग हो जाएगा. बेशक, इससे पार्टी का दायरा व्यापक जनसमुदाय तक जरूर फैल जाएगा जो फिलवक्त कोई चुनावी लाभ नहीं दे सकता. जहां तक सीपीआई की प्राथमिकताओं का सवाल है उसकी यह कांग्रेस किसी के लिए भ्रम की कोई गुंजइश नहीं छोड़ती. इसलिए किसी के पास यह निष्कर्ष निकालने के अलावा और कोई चारा नहीं बचता कि न्यूनतम कार्यक्रम की यह पूरी कवायद महज धोखे की टट्टी है, मोर्चे और गठबंधन तो उन मजबूत बुर्जुआ सहयोगियों की तलाश के आधार पर बनाए जाएंगे जो चुनावी लाभ दिला सकें. अर्थात, सत्ता की चाहत में पार्टी अपने न्यूनतम कार्यक्रम को ताक पर रख देगी. यह बात समापन वक्तव्य से पूरी तरह साफ हो जाती है, जिसमें कहा गया है कि “न्यूनतम कार्यक्रम को जब विस्तारित, ठोस और अंतिम स्वरूप प्रदान किया जाए तो उसे वस्तुगत परिस्थितियों और वक्त के तकाजों के अनुकूल होना चाहिए.” दूसरे शब्दों में इस न्यूनतम कार्यक्रम को अनंत तक न्यूनतम किया जा सकता है.

आगे बढ़िए तो आप चकरा जाएंगे कि इस शानदार योजना में आखिरकार आप अपने को कहां फिट बैठाएंगे. रिपोर्ट कहती है, “रामो-वामो के भीतर एकताबद्ध वामपंथ चुनाव अभियान में एक प्रेरक का और गठबंधन के लिए गारा और सीमेंट का काम करेगा.”

“इसलिए यह जरूरी है कि एसयूसीआई, सीपीआई(एमएल), मार्क्सिस्ट कोअर्डिनेशन कमेटी इत्यादि जैसी पार्टियों को सीपीआई, सीपीएम, फारवर्ड ब्लाक और आरएसपी के साथ हाथ मिलाने के लिए कायल कर देने के वास्ते पूरी ताकत लगा दी जानी चाहिए ताकि देश के भविष्य के लिए बेहद गंभीर अगले आम चुनाव में वामपंथ की स्थिति को सुदृढ़ किया जा सके. वाममोर्चा सरकार के प्रति अपनी वैमनस्यता का त्याग करने के लिए उन्हें समझाना-बुझाना चाहिए.”

इस तरह वामपंथी एकता की यह पूरी कवायद हम लोगों को “समझाने-बुझाने” के एकतरफा प्रयास में विलीन हो जाती है. अर्थात, हम लोग उनके द्वारा परिभाषित रामो-वामो के दायरे में चलें और वाम मोर्चा सरकार के प्रति वैमनस्यता छोड़ दैं.

संक्षेप में, इस नजरिए में बड़े भाई वाला भाव मौजूद है. इसे उन्होंने पूर्व सोवियत संघ के अपने आकाओं से निष्ठापूर्वक सीखा है. यहां हमलोगों के पक्ष को महत्व देने की जरूरत ही नहीं समझी गई है और न मतभेदों को स्वीकृति देते हुए साझा बिंदुओं की तलाश का कोई प्रयास है जो कि एकता की तरफ बढ़ने का उचित मार्क्सवादी तौर-तरीका है. सीपीएम और सीपीआई के बीच रुख का फर्क “धौंस जमाने” और “फुसलाने” के बीच का फर्क है. हम इन दोनों रुखों को घृणापूर्वक ठुकराते हैं और ये इसी लायक हैं.

वाम मोर्चा सरकार के प्रति ‘वैमनस्यता’ की यह कैसी बेतुकी बात की जा रही है? उनके यह भले न अच्छा लगे लेकिन हमलोगों द्वारा वाम मोर्चा सरकार के प्रति अपनाई गई स्थिति पूरी तौर पर उसूली और ऐतिहासिक प्रक्रिया द्वारा अपनाई गई क्रांतिकारी वाम विपक्ष की स्थिति है. इन मतभेदों को उसूली वाद-विवाद के जरिए और राजनीतिक विकास की प्रक्रिया में ही हल किया जा सकता है, दयालु बड़े भाई के लाख समझाने-बुझाने व मान-मनौवल के जरिए नहीं. सीपीएम और वाम मोर्चा सरकार के साथ हमारे संबंधों को वैमनस्यता के तहत नहीं व्याख्यायित किया जा सकता. क्योंकि जब और जहां कहीं भी संभव हुआ है हम सीपीएम के साथ सहयोग करने से कभी नहीं हिचकिचाए हैं. यहां तक कि कांग्रेस-भाजपा की साजिशों के बरखिलाफ वाम मोर्चा सरकार का समर्थन करने तक से भी हम कभी नहीं हिचकिचाए. उन्माद के हद तक वैमनस्यता, हमलोगों के प्रति बरते जाने वाले सीपीएम के रुख की खासियत है और सीपीआई के लिए बेहतर यह होता कि वह मान-मनौवल की अपनी सर्वोत्तम प्रतिभा का इस्तेमाल वामपंथी एकता के हित में सीपीएम को मनाने के लिए करती.

कामरेड नागभूषण पटनायक ने सीपीआई की कांग्रेस को संबोधित करते हुए यह बात साफ कर दी थी कि वामपंथी एकता और संसदीय बौनापन साथ-साथ नहीं चल सकता अर्थात् चने चबाना और बंसी बजाना साथ-साथ संभव नहीं है.

हमारा यह दृढ़ मत है कि एकताबद्ध वामपंथ केंद्र में साझा सरकार बनाने के बेताब रामो-वामो ढांचे से अपने को न बांधे. उसे ऐसी किसी सरकार से दूर ही रहना चाहिए. बहुत हो तो गैर कांग्रेस, गैर भाजपा राजनीतिक संरचना को आलोचनात्मक समर्थन दे और वहीं तक अपने को महदूद रखे. तात्पर्य यह कि इस तरह की किसी भी सरकार पर वह वामपंथ के साझा कार्यक्रमों को संभव हद तक लागू करने का दबाव बनाए रखे. जो हो, आलोचनात्मक रुख का अर्थ सक्रिय आलोचना का होना चाहिए. किसी भी तरह उसकी भूमिका वैसी नहीं होनी चाहिए जैसी 1989 में रही.

वामपंथी एकता का सर्वाधिक बेहतर स्वरूप फिलहाल महासंघ ही हो सकता है जहां अलग-अलग दल अलग-अलग राज्यों में अपनी कार्यनीतियों पर अमल करने के लिए स्वतंत्र हों. सीपीआई यह कहकर कोई बड़ी भूल नहीं कर रही है कि सीपीएम नेताओं द्वारा किए गए 1964 के विभाजन से बचा जा सकता था. 1977 से लेकर अब तक 18 वर्षों से वे जिस तरह विभिन्न स्तरों पर समन्वय समितियां बनाते हुए एक साथ काम करते आ रहे हैं और कमोबेश एक जैसी कार्यनीति पर अमल कर रहे हैं उससे उनके बीच बुनियादी विरोधों की हवा निकल चुकी है. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि अब भी उनके बीच इस या उस राज्य में अपना सहयोगी तलाशने या कि सीटों के बंटवारे को लेकर यदा-कदा विवाद उठते रहते हैं. तब तो और, जब सीपीएम बिना किसी ना-नुकुर के मुलायम सिंह यादव, लालू यादव और चंद्रबाबू जैसे ताकतवर बुर्जुआ विपक्षी मित्रों का समर्थन करने की सीपीआई की परंपरा पर चल पड़ी हो, जब दोनों साथ-साथ अंधराष्ट्रवाद का आलाप कर रही हों, गांव के गरीबों के जुझारू संघर्ष के प्रति जब दोनों एक जैसी बेरुखी दिखा रही हों, नव धनिकों, कुलकों से एक तरह से रिश्ते जोड़ रही हों और चुनावी जीत हासिल करने के लिए जात-पांत की गोटी बैठाने में दोनों समान रूप से जुटी हों, ऐसे में दोनों के विलय का प्रस्ताव इस समूची प्रक्रिया की एक तार्किक परिणति जैसा ही है.

सीपीएम, मजदूर वर्ग के नेतृत्व में जनवादी क्रांति करने के 1964 की अपनी स्वीकृत नीति से बहुत दूर निकल आई है. अब वह बुर्जुआ के ताकतवर हिस्सों के साथ साझेदारी में सुधारों के लिए काम कर रही है. दूसरी तरफ सीपीआई भी गैर इजारेदार पूंजीपति के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतंत्र और समाजवाद की शुरूआत करने की अपनी स्थिति से बहुत पीछे हट गई है क्योंकि सोवियत पतन और नई विश्व व्यवस्था के इस दौर में उसे पूछने वाला कोई रह नहीं गया.

सीपीआई और सीपीएम विलय की ओर बढ़ भी सकती हैं और नहीं भी, लेकिन इस सबसे 1964 के विभाजन की प्रासंगिकता खत्म नहीं हो जाएगी. किसी को भी यह नहीं भूलना चाहिए कि 1964 के विभाजन के एक शक्तिशाली हिस्सेदार क्रांतिकारी कम्युनिस्ट भी रहे हैं जो 1967 में उसके संगत निष्कर्षों तक पहुंचे.

फिर भी असल सवाल तो यह है कि सीपीआई खुद में कितनी एकताबद्ध है? कांग्रेस से ठीक पहले सीपीआई के एक वरिष्ठ सिद्धांतकार का० चतुरानन मिश्र ने अपने एक विवादास्पद लेख में लिखा था कि जहां आर्थिक शक्ति बनने के लिए भारत को विदेशी सहायता की जरूरत है वहीं अमरीका और दूसरे विकसित देशों को भारत जैसे बाजार की. “इनके बीच यही मिलन बिदु है और यह कहीं से भी विश्व साम्राज्यवाद के सामने समर्पण नहीं है.” वे आगे कहते हैं, “भारतीय राष्ट्र विदेशी दबाव के खिलाफ अब भी संघर्ष कर रहा है. जैसा कि दिल्ली में निर्गुट देशों के सम्मेलन में दिखाई दिया जहां उसने (भारत ने) अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक की स्वर्ण जयंती के अवसर पर एक विपक्ष की भूमिका अदा की. भारत ने परमाणु परिसीमन संधि और मिसाइलों के सवाल पर अमेरिकी दबाव का प्रतिरोध किया ... वर्तमान सरकार में यह धारणा प्रबल होती जा ही है कि भारत भी विदेशी दबाव का प्रतिरोध करने में कठिनाई महसूस कर रहा है.”

सीपीआई की इस कांग्रेस ने नरसिम्हा राव सरकार की इस निर्लज्ज तरफदारी को खारिज किया यह एक अच्छा और सकारात्मक पहलू है. यह पार्टी को कांग्रेस की गोद में बैठा दिए जाने से रोकेगा. फिर भी यह तो भविष्य ही बताएगा कि यह किस कीमत पर हुआ.

1993 में सीपीआई के एक वरिष्ठ नेता ने हमारे कुछ विधायकों द्वारा दलबदल कर लेने पर कटाक्ष करते हुए मुझसे इसका कारण पूछा. जवाब में मैंने कहा कि संभवतः व्यक्तिगत लाभ-लोभ की प्रवृत्ति और जनता दल के पक्ष में पिछड़ों के ध्रुवीकरण ने वैचारिक रूप से कमजोर तत्वों को दलबदल के लिए प्रेरित किया हो. मैंने इस बात पर जोर दिया कि बिहार की हमारी पार्टी की नेतृत्वकारी इकाई पूरी तरह एकताबद्ध है और इन विधायकों में से कोई भी हमारी पार्टी के किसी भी स्तर के नेतृत्वकारी पद पर नहीं था. वे संतुष्ट नहीं हुए और बोले, “व्यक्तिगत लाभ-लोभ की भावना भला किसी कम्युनिस्ट को कैसे गुमराह कर सकती है? जरा हमारे विधायकों को देखिए.” उन्होंने हमसे और गहराई में जांच करने को कहा. मैंने चुप रहना बेहतर समझा. विडंबना देखिए कि दूसरे ही दिन अखबारों में यह खबर आई कि सीपीआई की उत्तर प्रदेश इकाई के सचिव, जो विधायक भी थे, पार्टी छोड़कर मुलायम सिंह की पार्टी में चले गए. जल्दी ही दूसरे विधायक ने भी यही किया. इसलिए मैं सीपीआई की कांग्रेस में प्रस्तुत रिपोर्ट में इस परिघटना के गहरे विश्लेषण की उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहा था. रिपोर्ट कहती है कि “उन्होंने व्यक्तिगत लाभ-लोभ के चलते पलायन किया.” फिर रिपोर्ट इसका सामान्यीकरण करते हुए कहती है कि “ऐसा हमारे साथ ही नहीं हुआ, दूसरों के साथ भी हुआ है. ऐसा होना एक आम बात है. कुछ धर्मनिरपेक्ष पार्टियां भी ऐसी टूट-फूट का शिकार हुई हैं. इस परिघटना को सभी राजनीतिक दलों में होने वाली एक आम घटना की पृष्ठभूमि में ही समझा जा सकता है.” बहुत बढ़िया, लेकिन आप जैसी एक कम्युनिस्ट पार्टी में ऐसा क्यों? क्या राजनीतिक गतिप्रवाह का सामाजिक औचित्य नहीं होता? रिपोर्ट जाति-विचारधारा इत्यादि के प्रभाव के खिलाफ लड़ने की बात जरूर करती है लेकिन साथ ही पार्टी के भीतर पिछड़ों की मलाईदार परत और बाकी बचे पिछड़ों के बीच फर्क करने की जरूरत को बड़ी रुखाई के साथ परे हटाते हुए. क्या यह लोहियाइटों के जाति सिद्धांत के सामने पार्टी के आत्मसमर्पण का सबूत नहीं है?

मेरे सवाल अनुत्तरित हैं. और भविष्य में ऐसे दलबदल से रोकथाम का पार्टी क्या इंतजाम कर रही है? बहुत खूब! तो उत्तरप्रदेश से जो इसने सीख ली वह यह कि मुलायम से संबंध बनाने में वह असफल रही. इससे जो बात निकलती है वह यही कि कुछ का दलबदल रोकने के लिए पूरी पार्टी ही बदल दी जाए. क्या बिहार में यह नुस्खा भलीभांति अपना काम नहीं कर रहा है?