(30 जुन 1996 को का० रामजी राय, सम्पादक, समकालीन लोकयुद्ध द्वारा का० विनोद मिश्र से लिया गया एक साक्षात्कार)

वर्तमान राजनीतिक स्थिति को आप किस तरह से देखते हैं?

वर्तमान राजनीतिक परिस्थिति ने कई तरह के मिथकों को तोड़ा है. सत्ता की भागदौड़ में भाजपा ने उन तमाम मुद्दों को दरकिनार कर बहुमत जुटाने की कोशिश की जो मुद्दे उसकी खास पहचान बनाते थे. दूसरी ओर जनता दल और वामपंथियों ने जितनी तेजी से व जीतनी सहजता से नरसिम्हा राव की कांग्रेस व उसकी आर्थिक सुधार की दिशा से सहअस्तित्व कायम कर लिया, उसकी उम्मीद बहुतों ने न की होगी.

भारतीय जनता पार्टी का सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी के रूप में उभरना और मध्यमार्गी-वामपंथी व आंचलिक पार्टियों से लेकर कांग्रेस तक के बीच ‘धर्मनिरपेक्षता व आर्थिक सुधारों’ के लिए आम सहमति का बनना भारतीय राजनीति में एक नया मोड़ है. इस मोड़ पर सामाजिक न्याय के एजेंडे को पुनर्परिभाषित करना होगा व नए सिरे तीसरी ताकत के निर्माण में लगना होगा.

संसद के इस चुनाव में किसी भी दल को स्पष्ट जनादेश का न मिलना शासक वर्ग के किसी संकट को सूचित करता है या उसकी लोकतांत्रिक शक्ति को? अगर संकट को सूचित करता है तो किस तरह के संकट को?

भारतीय जनता पार्टी के भारतीय राष्ट्रवाद व उसकी कड़ी के रूप में हिंदुत्व की अवधारणा के बरखिलाफ हम कम्युनिस्ट हमेशा ही भारत की बहुराष्ट्रीय, बहुभाषी व बहुआयामी सांस्कृतिक विशिष्टता को चिह्नित करते रहे हैं. राष्ट्रीय एकता की कड़ी साम्राज्यवाद विरोध, लोकतंत्र व आधुनिक राष्ट्र की प्रगतिशील विचारधारा पर आधारित होनी चाहिए न कि पुरातन ब्राह्मणवादी मूल्यों पर. भारतीय संसद का वर्तमान चेहरा व अपनी उदार छवि पेश करने की तमाम कोशिशों के बावजूद बहुमत जुटाने में भाजपा की विफलता, भारतीय समाज की हमारी समझ को ही पुष्ट करती है.

संकट तो है. कांग्रेस के विघटन के बाद दूसरी किसी केन्द्रीय अखिल भारतीय राजनीतिक संरचना की सीमाएं हम देख चुके हैं. भारतीय समाज एक ‘ग्रेट कोएलिशन’ हो ही सकता है लेकिन, इसे एक स्थाई राजनीतिक कोएलिशन में रूपान्तरित कर पाना टेढ़ी खीर है, खासकर जब उसके पास कोई मजबूत केन्द्रक न हो.

इस दोहरे संकट से उबरने के लिए प्रयोगों का सिलसिला जारी रहेगा और देखना यह है कि संसदीय लोकतंत्र की संस्थाएं इस तनाव को कहां तक और कब तक झेल पाती हैं.

राजनीतिक विश्लेषक और अधिकांश बुर्जुआ दल इस स्थिति को मोर्चा सरकारों के नए दौर की शुरूआत के रूप में देख रहे हैं और अपनी कार्यनीति को उसके अनुकूल बनाने में लगे हैं. आपको नहीं लगता कि भारतीय राजनीति सचमूच मोर्चा सरकारों के नए दौर से गुजर रही है ... एक लंबे अरसे के लिए?

मोर्चा सरकारों के दौर की बात 1977 और 1989 में भी कही गई थी. लेकिन ये दौर क्षणिक ही साबित हुए. इस बार की मोर्चा सरकार में पार्टियों की तादाद काफी है, लेकिन उसके सबसे बड़े घटक के पास भी मात्र 42 सांसद हैं. भाजपा और कांग्रेस ही पहले और दूसरे नम्बर की पार्टियां हैं और दोनों ही सत्ता से बाहर हैं. पहली विपक्ष के रूप में और दूसरी बाहर से सरकार के सहयोगी के रूप में. दोनों की कार्यनीति मोर्चा सरकार के तनावों व टूट का अपने पक्ष में इस्तेमाल करना है. इसलिए मोर्चा सरकार का यह प्रयोग आनेवाले लंबे समय की आम दिशा निर्धारित करेगा, वर्तमान प्रयोग के आधार पर यह निष्कर्ष निकालना जल्दबादी ही होगी.

सीपीआई(एमएल) ने सीपीएम द्वारा मोर्चा सरकार में शामिल न होने के फैसले के लिए शाबाशी दी है. यह तो उसकी पुरानी कार्यदिशा है. फिर इसमें शाबाशी देने की जरूरत क्या आ पड़ी? क्या इसमें कोई नई बात है?

सरकार मे शामिल होने के लिए इस बार सीपीआई(एम) पर दबाव बहुत अधिक था और जैसी कि खबर है कि नेतृत्व का एक हिस्सा भी इसके लिए मन बना चुका था. इन हालात में पार्टी की केन्द्रीय कमेटी द्वारा पार्टी कार्यक्रम की दिशा पर डटे रहना महत्वपूर्ण तो है ही. राजनीतिक स्तर पर ‘धर्मनिरपेक्ष विकल्प’ की सीधी-सापट लाइन की तार्किक परिणति सरकार में शामिल होने की ओर ही ले जाती है. ऐसे ही तर्कों के सहारे सीपीआई अतीत में कांग्रेस के साथ भी सरकार में गई थी. सीपीआई(एम) की केन्द्रीय कमेटी के फैसले ने इस प्रवाह में बह जाने के खिलाफ एक ब्रेक का काम किया है. आपने देखा होगा सीपीआई ने इस फैसले को दुर्भाग्यपूर्ण बताया है जबकि हमने इस फैसले का स्वागत किया है.

लेकिन इस फैसले के बाद बहुतेरे सवाल उभरते हैं जिनपर सीपीआई(एम) को अपना रुख स्पष्ट करना होगा. मसलन, पिछले समय राष्ट्रीय मोर्चे के साथ संश्रय बनाते वक्त वाम मोर्चे ने अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रखा था. लेकिन इस बार सीपीआई(एम) व अन्य वाम पार्टियां संयुक्त मोर्चे की घटक बन गई हैं और सरकार जब संयुक्त मोर्चे की ही है तब उसमें शामिल न होने पर भी उसके दोषों के आप उतने ही भागीदार होंगे. सीपीआई द्वारा सरकार में शामिल होने के फैसले ने वाम मोर्चा की एकल सत्ता होने पर सवालिया निशान खड़ा कर दिया है. और भी, नए प्रधानमंत्री देवगौड़ा नरसिम्हा राव की आर्थिक नीतियों के कट्टर प्रशंसक रहे हैं. कांग्रेस शुरू से ही आर्थिक सुधारों की निरंतरता के सवाल को समर्थन की प्रमुख शर्त बनाती रही है. देवगौड़ा का प्रधानमंत्री बनना व चिदम्बरम का वित्तमंत्री बनना सभी इसी शर्त के सामने आत्मसमर्पण है. विड़ंबना यही है कि कांग्रेस बाहर से भी सरकार को अपनी दिशा पर चला रही है और सीपीआई(एम) संयुक्त मोर्चे में रहकर भी ऐसा करने में विफल है.

सीपीआई(एम) का यही विरोधाभास एक ओर उसपर सरकार में शामिल होने पर पुनर्विचार करने के लिए बाहरी दबाव बढ़ा रहा है  वहीं दूसरी ओर संयुक्त मोर्चे से बाहर रहकर आलोचनात्मक समर्थन देने की अंदरूनी मांग भी तेज हो रही है. भाजपा के साथ-साथ कांग्रेस से भी दूरी बनाए रखने के लिए सीपीआई(एम) नेतृत्व के किसी भी निर्णय का हम अवश्य स्वागत करेंगे.

क्या आपको लगता है कि वामपंथ को मोर्चा सरकारों में शामिल होने की अपनी पुरानी कार्यनीति में बदलाव लाने की जरूरत है? पुरानी अर्थात् सरकार की नीतियों को प्रभावित कर पाने की स्थिति में ही मोर्चा सरकारों में शामिल होने की नीति में?

जब कहा जाता है कि हम किसी भी सरकार में तभी हिस्सा लेंगे जब हम उसकी नीतियों को निर्धारित करने लायक शक्ति रखते हों, तब अमूमन यह बात राज्य सरकारों के संबंध में ही कही जाती है. संसदीय रास्ते में केन्द्र में ऐसी कोई संभावना दूर-दूर तक नजर नहीं आती. इसबार भी जबकि वाम मोर्चा तीन-तीन राज्यों में सरकार चला रहा है तब भी संसद में उसकी उपस्थिति पुरानी संख्या के ही इर्द-गिर्द है. राज्य सरकारों के जो प्रयोग अब तक चले हैं, उससे राष्ट्रीय स्तर पर मजदूर-किसान गोलबंदी पर या वामपंथ की शक्तिवृद्धि पर शायद ही कोई असर पड़ा है. दूसरे राज्यों में, विशेषतः भारतीय राजनीति के केन्द्रस्थल हिन्दी प्रदेशों में, थोड़ी-मोड़ी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए भी वाम दल मध्यमार्गी ताकतों पर बुरी तरह निर्भरशील हैं.

इन हालात में बुर्जुआ-जोतदार सरकार में इक्का-दुक्का वामपंथी मंत्री वर्ग-शांति और वर्ग-समझौतों पर प्रवचन देने के सिवा और कुछ नहीं कर सकते. यूरोप में सामाजिक जनवादी अरसे से यह सब करते रहे हैं और उससे वामपंथी व कम्युनिस्ट आंदोलन के बिखरने व पतित होने के सिवा और कुछ हासिल नहीं हुआ.

सीपीआई के थके-हारे बुजुर्गों की बात अलग है. लेकिन कम्युनिस्ट आंदोलन की युवा कतारों को शार्टकट के इस मोह से बचना ही होगा.

इसी संदर्भ में एक जरूरी सवाल यह कि आपकी पार्टी इसबार भी किसी संयुक्त मोर्चे में जाने से वंचित रह गई. यह पार्टी की मोर्चे नीति की विफलता का संकेत है, उसकी किसी कमी का या अभी परिस्थिति के उस नीति के अनुकूल विकसित न हो पाने का? क्या आपको अपनी मोर्चा नीति पर किसी तरह के पुनर्विचार की जरूरत महसूस हो रही है?

अभी भी जिस स्तर पर हम काम कर रहे हैं उसमें हमारा प्रधान जोर अपनी ताकत के निर्माण पर ही है. सामाजिक स्तर पर जनता के विभिन्न वर्गों व तबकों के साथ संयुक्त मोर्चा बनाने का हमारा प्रयास लगातार जारी है. यह एक कष्टसाध्य लंबी साधना है जिसका कोई विकल्प नहीं है.

राष्ट्रीय स्तर पर हमने हमेशा भाजपा-कांग्रेस विरोधी तीसरी ताकत के खेमे से अपने आपको आइडेन्टिफाइ किया है (पहचान बनाई है) और संयुक्त कार्यवाहियों में हमेशा शरीक रहे हैं. लेकिन सांगठनिक स्तर पर ऐसे किसी संयुक्त मोर्चे से अपने को बांध लेना विभिन्न राज्यों में हमारी पहलकदमी को कुंद कर देगा और ऐसा करना अभी के स्तर में पार्टी के विकाश के लिए आत्मघाती हो सकता है. फिर भी, हम अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के बीच हर विभाजन का अपने अनुकूल इस्तेमाल करने के लिए लगातार कार्यनीति विकसित कर रहे हैं, और इस संदर्भ में और भी गहन विचार-विमर्श की आवश्यकता है.

क्या आपको लगता है कि वर्तमान परिस्थिति वामपंथ की एकता को संभव बनाने की ओर बढ़ रही है?

अपनी राख से पुनर्जीवित जिस सीपीआई(एमएल) को आज आप देख रहे हैं उसके विकास में नक्सलपंथी आंदोलन के विभिन्न गुटों व सीपीआई-सीपीएम से आई बहुत-सी कतारों का योगदान है. इसके अलावा हम हमेशा ही दूसरी वामपंथी ताकतों के साथ संवाद व संयुक्त कार्यकलाप के लिए दरवाजों को खोलने के प्रयास में लगे हुए हैं.

हम जब वामपंथी एकता की बात करते हैं तो इसका अर्थ एकता के पुराने पैमाने को तोड़ते हुए नया आधार खड़ा करना होता है. वर्तमान परिस्थिति इस दिशा में नई बहसों को जन्म दे रही है और इन अर्थों में वह वामपंथी एकता के लिए अवश्य ही अनुकूल है.

इस संसदीय चुनाव में आपके अपनी पार्टी का प्रदर्शन कैसा लगा? क्या आपकी पार्टी इससे संतुष्ट है?

इसबार के चुनाव में बिहार में हमारे पास खोने के लिए कुछ नहीं था, पाने के लिए भी आरा की एक अदद सीट और इस लाख मतों का लक्ष्य. हमारे हर साथी ने इस लक्ष्य प्राप्ति के लिए अपनी पूरी ताकत उड़ेल दी. ठोस राजनीतिक-सांगठनिक परिस्थितियों में जितना आगे बढ़ा जा सकता था उसे पाने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई.

असम में हमारा प्रयोग आगे बढ़ा और देश भर में 45 स्थानों पर उम्मीदवार देकर हमने बड़े पैमाने पर राजनीतिक प्रचार संगठित किया.

लक्षय प्राप्ति में जो कमियां रह गई उन्हें पूरा करने का मौका संभवतः जल्द ही फिर आएगा.

वामपंथी और मध्य दलों में से किसी के साथ मोर्चा तो नहीं बन पाया, सामाजिक धरातल पर भी मध्य जातियों या मध्य वर्ग के किसी हिस्से से आपकी पार्टी को मोर्चा बनाने में सफलता नहीं मिल पाई. इसे आप किस रूप में देखते हैं? इसको लेकर आपकी भावी रणनीति या कार्यक्रम क्या है?

मध्य जातियां या मध्य वर्ग के कुछ हिस्सों का समर्थन हमें अवश्य मिला है अन्यथा तीन-तीन  क्षेत्रों में एक लाख से अधिक मत प्राप्त करना शायद संभव न होता. फिर भी, इस चुनाव में हमारा जोर अपने वर्ग आधार को सुदृढ़ करने पर ही रहा. हमारे जनाधार में सेंधमारी की जनता दल की कोशिशों के चलते हमारे लिए यह आवश्यक भी था. जनता दल को लगे धक्के के परिप्रेक्ष में मध्य जातियों में प्रभाव-विस्तार की अनुकूल परिस्थिति अवश्य ही तैयार हुई है और हमने योजनाबद्ध तरीके से इस काम को हाथ में लेने का फैसला किया है.

वर्तमान स्थिति वामपंथ से आज किस तरह की भूमिका की मांग कर रही है? क्या वामपंथी दल एकताबद्ध होकर उस दिशा में बढ़ पाएंगे?

वामपंथी नेताओं को कांग्रेस और मध्यमार्गी ताकतों के बीच बिचौलिए की भूमिका त्याग कर साम्प्रदायिकता और विदेशी पूंजी पर निर्भर आर्थिक विकास के दर्शन के खिलाफ आवाज बुलंद करनी चाहिए. संसद में संयुक्त मोर्चा से अलग वाम विपक्ष की भूमिका निभानी चाहिए. वामपंथी कतारों की भावना यही है. वामपंथी दलों का नेतृत्व एकताबद्ध होकर इस दिशा में बढ़ेगा या नहीं, यह तो वक्त ही बताएगा.