(समकालीन जनमत, 23-29 दिसम्बर 1990 से)

एक खुशफहमी थी, सो खत्म हुई. खुशफहमियां अपनी प्रकृति से ही चार दिन की चांदनी हुआ करती हैं, और अगर वीपी सिंह करीब ग्यारह महीने सत्ता में टिके रहे, तो यह उनके जैसे राजनेता के लिए – एक ऐसे राजनेता के लिए, जिसकी भारतीय राजनीति में, और वह भी ‘विपक्ष’ की राजनीति में कोई जड़ ही न हो – कुछ कम बड़ी उपलब्धि नहीं है. विडंबना यह कि जिस शख्स ने इस्तीफे की कला में महारत हासिल कर रखी थी, अंततः उसे संसद में शक्ति-परीक्षण के जरिए हटाए गए इकलौते प्रधानमंत्री का खिताब अर्जित करना पड़ गया. वीपी सिंह जा चुके हैं. राजनीति की मुख्यधारा में शीघ्र ही उनकी वापसी होगी या वह परिधि की राजनीति का कोरा सिद्धांतकार बनकर रह जाएंगे – फिलहाल इस सवाल पर कुछ भी कहना बड़ी जल्दबाजी होगी. इसलिए आइए, अभी “रुकिए-देखिए” की सदियों पुरानी सीख पर ही अमल किया जाए.

वीपी सिंह बारम्बार यह दावा करते हैं कि उन्होंने धर्मनिरपेक्षता के ऊंचे उसूलों की बलिवेदी पर अपनी सरकार को कुर्बान कर दिया. उनकी दलील है कि भाजपा की मांगों के सामने सर झुकाकर, अगर वह चाहते तो, अपनी सरकार को बचा ले सकते थे. वह खुद को धर्मनिरपेक्षता के महान लक्ष्य के लिए मर मिटनेवाले शहीद के रूप में पेश कर रहे हैं, और अपने विश्वासमत प्रस्ताव को यूं चित्रित करते हुए, जैसे उसके जरिए सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता के संघर्ष की हद तय कर दी गई हो, उन्होंने पार्टी-सांसदों से अपनी-अपनी अंतरात्मा के अनुसार वोट देने की अपील तक कर डाली. लेकिन मतदान के रंग-ढंग से यह स्पष्ट हो गया कि संघर्ष की हद – बल्कि उसकी हदें – भिन्न-भिन्न धरातलों पर तय की गई थीं और उनकी अपनी ही पार्टी के कुल सांसदों के लगभग आधे हिस्से ने पार्टी-ह्विप को धता बता दिया था. अगर वीपी सिंह की बात का यकीन करें, तो सांसदों की भारी बहुसंख्या ने सांप्रदायिकता के पक्ष में ही मतदान किया था.

तब, आखिर जनता दल में हुई टूट-फूट की व्याख्या कैसे की जाए – और वह भी इस हाल में, जबकि मुलायम सिंह, चिमन भाई पटेल जैसे लोग राजी-खुशी चंद्रशेखर खेमे के साथ जा बैठे हैं. नए प्रधानमंत्री चंद्रशेखर भी धर्मनिरपेक्षता बनाम सांप्रदायिकता के मुद्दे पर ऐसे ही लटकों-झटकों का इस्तेमाल कर रहे हैं. सच तो यह है कि अगर वीपी सिंह भाजपा की मांगों के सामने झुक जाते, तो उनकी सरकार और भी बेआबरू होकर गिरती, क्योंकि वैसी स्थिति में, वामपंथी अपना समर्थन वापस लेने को विवश हो जाते और चंद्रशेखर-देवीलाल खेमा तब भी बगावत करता – और इस बगावत का नैतिक आधार भी अपेक्षाकृत ज्यादा मजबूत होता. सो, उस मोड़ पर वीपी सिंह के लिए अपनी सरकार को बचा लेना किसी भी तरह संभव नहीं था. दरअसल, आखिरी वक्त उन्होंने भाजपा के साथ सुलह-सफाई की कोई सूरत निकाल लेने की हरचंद कोशिश की थी – मस्जिद-मंदिर विवाद के सिलसिले में जारी विवादास्पद अध्यादेश इसका सबूत है. अब वीपी सिंह जो कुछ कह रहे हैं, वह एक राजनीतिज्ञ का सच है – एक ऐसा सच, जो उनको सबसे ज्यादा रास आता है. लेकिन उनके पतन के कारण दूसरे हैं. जो कुछ बताया जा रहा है, उससे काफी अलग हैं. उनकी जड़ें सामाजिक विभाजनों में, विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के बीच की और खुद उनकी अपनी पार्टी के अंदर के विभिन्न गुटों के बीच की परंपरागत प्रतिद्वंद्विता में, गहरे गड़ी हैं. संसद के अंदर सामाजिक शक्तियों का भी – और उनके प्रतिबिंब के रूप में, राजनीतिक शक्तियों का – संतुलन वीपी के खिलाफ पड़ा और इसीलिए सत्ता उनके हाथ से जाती रही. इस समूची परिघटना की व्याख्या महज बुर्जुआ राजनीतिज्ञों की सत्ता-लोलुपता को दोषी ठहराकर, किन्हीं थोथे आदर्शो  और नैतिकता का सवाल उठाकर, और पैसे के जोर का अति-मूल्यांकन करके नहीं की जा सकती. इस तरह की बातें राह चलते आदमी की मामूली राजनीतिक समझदारी को व्यक्त करती हैं, और एक ऐसे उदार-नैतिकतावादी रवैये का परिचय देती हैं, जिसमें इस बात का कोई ख्याल ही नहीं किया जाता कि राजनीतिक पार्टियां किन्हीं पेशेवर राजनीतिज्ञों की मनमर्जी से जन्म नहीं लिया करतीं, बल्कि वे स्वाभाविक और निरपवाद तौर पर पैदा होती हैं आधुनिक समाजों के गर्भ से, और उनके (यानी राजनीतिक पार्टियों के) जरिए, विभिन्न सामाजिक वर्ग और तवके अपने-अपने हितों को मुखर करते हैं और सत्ता में हिस्सेदारी के लिए एक-दूसरे के साथ होड़ करते हैं. जहां तक राजनेताओं की व्यक्तिगत लालसा, कुर्सी और मलाई की लूट-खसोट, पैसे-कौड़ी आदि की बात है, तो ये चीजें महज सामाजिक शक्तियों के संयोजन-पुनर्संयोजन के दायरे में ही क्रियाशील हो सकती हैं.

बहरहाल, आइए, हम भारतीय राजनीति में वीपी-परिघटना के विश्लेषण से अपनी बात शुरू करें.

वीपी सिंह को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने कांग्रेस के विकल्प के रूप में अखिल भारतीय स्तर पर एक बुर्जुआ दलबंदी (फार्मेशन) तैयार करने की संजीदा कोशिश की. विपक्ष की राजनीति का दामन थामने के लिए मजबूत होकर, उन्होंने अपने कांग्रेसी अतीत को बेसाख्ता खारिज कर दिया, और खुद को लोहिया-जयप्रकाश के गैर कांग्रेसवाद का उत्तराधिकारी बताते हुए, विपक्ष के स्वाभाविक नेता के बतौर पेश कर दिया. उनके राजनीतिक जीवन की शुरूआत संजय गांधी की छत्रछाया में इमर्जेंसी के दौरान हुई. जल्दी ही वह उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री बन गए, जहां उनके निर्मम “इनकाउंटर” अभियान में मुख्यतः पिछड़ी जातियों के सैकड़ों नौजवान मारे गए (प्रसंगवश, वीपी सिंह से मुलायम सिंह की प्रतिद्वंद्विता उन्हीं दिनों शुरू हुई). आगे चलकर राजीव-सरकार के वित्तमंत्री के रूप में उन्होंने आर्थिक उदारीकरण की जोरदार हिमायत की. और अंत में, सब कुछ छोड़-छाड़कर वह जिस तरह रातों-रात विपक्ष की केंद्रीय हस्ती बन गए, वह अपने-आप में भारतीय राजनीति का एक चमत्कार ही था. उन्होंने वामपंथियों को अपना स्वाभाविक मित्र बताया और बहुत से ऐसे गैर-पार्टी राजनीतिक संगठनों व ‘ग्रासरूट’ आंदोलनों के साथ नजदीकी रिश्ता कायम कर लिया, जो अस्सी के दशक में कांग्रेसी सर्वसत्तावाद के बरखिलाफ उभर आए थे. वह उन सबको राजनीतिक प्रक्रिया की मुख्यधारा में समेट लाए. सबसे मार्के की बात यह हुई कि वह कांग्रेस के क्षेत्रीय विपक्ष की महत्वपूर्ण पार्टियों के साथ मिलकर एक राष्ट्रीय मोर्चे का निर्माण करने में सफल रहे. उनकी मंशा एक ऐसा राजनीतिक समीकरण तैयार करने की थी, जो कांग्रेस को न केवल संसद में संख्या-बल के लिहाज से पछाड़ सके, बल्कि आज की भारतीय परिस्थिति से अपेक्षाकृत अधिक मेल खाती एक नई किस्म की राजनीतिक संरचना का द्योतक भी हो. जनता दल के अंदर उनकी स्थिति शुरू से ही नाजुक थी, क्योंकि वहां वह एक परायी सेना के कमांडर की भूमिका अदा कर रहे थे. जनता दल, परंपरागत रूप से खासी मजबूत हैसियत रखनेवाले भांति-भांति के गुटों का घालमेल था, जिनकी वफादारी दल के सर्वोच्च कमांडर से पहले अपने-अपने सरदारों के प्रति थी. मगर वीपी सिंह को उम्मीद थी कि एक गुट के खिलाफ दूसरे गुट को शह देकर, और इससे भी बढ़कर – जनता दल के अंदर से उभरनेवाली किसी भी चुनौती के खिलाफ राष्ट्रीय मोर्चे के घटकों के साथ अपनी जोड़-गांठ का इस्तेमाल करके, वह अपनी पार्टी के गुटीय विभाजन पर नियंत्रण रख सकेंगे. उनकी मूल योजना में भाजपा के लिए कोई जगह नहीं थी और चुनाव-अभियान के दौरान उन्होंने सतर्कतापूर्वक उससे एक दूरी बनाए रखी थी.

उनका ‘अजगर’ समीकरण गुजरात से बिहार तक बखूबी काम आया. पिछड़ी जातियों के कुलकों की एक प्रबल बहुसंख्या के साथ-साथ उनकी अपनी राजपूत जाति के नए-पुराने देहाती कुलीनों ने भी जनता दल की हिमायत की. भागलपुर के दंगों और शिलान्यास के विवादास्पद फैसले के कारण कांग्रेस से मुंह मोड़ते मुस्लिम समुदाय ने जनता दल के पक्ष में मतदान किया. उड़ीसा में जनता दल जैसे समीकरण हमेशा कांग्रेस के स्वाभाविक विपक्ष की भूमिका निभाते रहे हैं और इस बार भी उन्होंने कांग्रेस-विरोधी लहर की भरपूर फसल काटी. वामपंथियों ने बंगाल में 1984 के चुनाव में कांग्रेस के हाथों हुई पराजय की कसर निकालकर अपनी स्थिति सुधार ली और कहीं कुछ खोकर, कहीं कुछ पाकर संसद में मजे की जगह बना ली.

बहरहाल, वीपी को सबसे बड़ा धक्का दक्षिण भारत में लगा. दक्षिण की लहर उत्तर की लहर के बिलकुल उलट थी और उसका स्वरूप कहीं ज्यादा हाहाकारी था. दक्षिण में मतदान का जो रुझान देखने में आया, उसकी किसी ने कल्पना तक नहीं की थी और वह आज भी राजनीतिक विश्लेषकों के लिए एक पहेली बना हुआ है. पर इतना तो है ही कि दक्षिण के इस रुझान और महाराष्ट्र में अपनी संतोषजनक स्थिति के चलते कांग्रेस संसद में अकेली सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर आई.

एक अन्य अप्रत्याशित विकास था – भाजपा का चमत्कारी उत्थान. भाजपा उत्तरी और पश्चिमी भारत में अपने बलबूते हमेशा से एक मजबूत शक्ति रही है और मध्यप्रदेश, राजस्थान व हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों में तो परंपरागत रूप से कांग्रेस के मुख्य विपक्ष की भूमिका निभाती रही है. इन राज्यों में कोई भी कांग्रेस-विरोधी लहर उसी के उत्थान का बायस बन जाती है. 1989 के चुनावों में भाजपा ने अपने विस्तारित ढांचे की मदद से और रामकार्ड का भरपूर इस्तेमाल करके इतनी सीटें हासिल कर लीं कि जिसका अंदाज उसके नेताओं तक को नहीं था. चुनाव के नतीजों से जाहिर होता है कि उसने कुछ गैर परंपरागत क्षेत्रों में भी हाथ-पांव फैलाए हैं और किसानों, पिछड़ी जातियों, दलितों और आदिवासियों के बीच भी जगह बना ली है. भाजपा के विरुद्ध एकमात्र सुसंगत शक्ति समझे जानेवाले वामपंथी हिंदी-क्षेत्र में भाजपा के बढ़ाव को नियंत्रित करने के लिए व्यवहारिक तौर पर कुछ नहीं कर सके और भाजपा को अलगाव में डालने का उनका नारा टांय-टांय फिस्स हो गया.

लिहाजा, गौर से देखिए तो, दो प्रतिकूल कारकों ने एकदम शुरू से ही वीपी के हाथ बांध रखे थे. इनमें से एक कारक था कांग्रेस का अकेली सबसे बड़ी पार्टी के रूप में सामने आना, और इस तरह, किसी भी परिस्थिति को अपने पक्ष में मोड़ लेने के लिए जरूरी तुरुप के पत्ते को अपने हाथ में रखना. दूसरा कारक था भाजपा का अप्रत्याशित उत्थान, जिससे तुरुप के पत्ते की भूमिका निभाने की उसकी आकांक्षा बलवती हो उठी थी. इसके अलावा, वीपी सिंह को संसद के अंदर राष्ट्रीय मोर्चे के अपने क्षेत्रीय सहयोगियों का निर्णायक समर्थन भी नहीं मिल पाया; और इसके चलते, जनता दल के भीतर की गुटगत तू-तू-मैं-मैं को दबाकर रखना लगभग उनके वश के बाहर हो गया.

यहां लाजिमी तौर पर इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि भाजपा की वस्तुगत अवस्थिति महत्वाकांक्षा के बीच मार्के का फर्क है. अगर बंगाल और केरल जैसे वामपंथ के परंपरागत दुर्गों में जनता दल का कोई अस्तित्व नहीं है, तो उधर जनता दल के मजबूत केन्द्रों में वामपंथ की भी कोई असरदार पहुंच नहीं देखी जाती. राष्ट्रीय राजनीति में वामपंथियों ने वस्तुतः जनता दल के टहलुओं का बाना धारण कर लिया है, और हिंदी-क्षेत्र के साथ-साथ आंध्र, उड़ीसा, कर्नाटक, महाराष्ट्र आदि राज्यों में अपने हाथ-पांव फैलाने का जो थोड़ा-बहुत सपना वे संजो भी पाते हैं, तो बस जनता दल और राष्ट्रीय मोर्चा के उसके सहयोगियों की पूंछ पकड़कर. लिहाजा, वामपंथी एक लंबे अरसे तक जनता दल के साथ अपनी चूलें बिठाए रख सकते हैं. पर भाजपा के साथ स्थिति बिलकुल दूसरी है. उसके और जनता दल के काम-काज के इलाके एक-दूसरे से घुले-मिले हैं; और उसका वजूद और फैलाव जनता दल की कीमत पर ही संभव हो सकता है. दोनों पार्टियों के बीच की प्रतिद्वंद्विता एक अंतर्निहित-वस्तुगत परिघटना है. इसके अलावा, भाजपा के सर पर ‘हिंदूराष्ट्र’ के आक्रामक फलसफे का भूत  सवार है, उसके पास सिद्धांतवेत्ताओं और प्रचारकों का एक सुविस्तृत ढांचा है, और उसकी पीठ पर आरएसएस की सुसंगठित कार्यकर्ता-शक्ति का हाथ है. इन सबकी मदद से उसने भारतीय राजनीति का किला फतह कर लेने का मंसूबा बांध रखा है. ईरान और पाकिस्तान में धार्मिक कट्टरपंथ के उभार, पूर्वी यूरोप में कम्युनिस्ट सरकारों के पतन, सोविययत संघ में समाजवाद को लगे गंभीर धक्के, और साथ ही साथ, चर्च की बढ़ती हुई निर्णायक भूमिका ने उसके लिए एक अनुकूल विचारधारात्मक माहौल पैदा कर दिया है और इधर, देश के अंदर, राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए धर्म के इस्तेमाल में मिली सफलता ने उसका दिमाग सातवें आसमान पर चढ़ा दिया है.

अपने त्रिशंकु स्वरूप में नवीं लोकसभा भारतीय समाज के गंभीर अंतर्विरोधों और उभरते रुझानों का दर्पण थी. अगर दक्षिण बनाम उत्तर का अंतर्विरोध कांग्रेस-परस्त और कांग्रेस-विरोधी लहरों का रूप लेकर सामने आया, तो हिंदू कट्टरपंथ का उभार भाजपा के उत्थान में अभिव्यक्त हुआ. जहां तक परंपरागत वामपंथ का सवाल है, तो यह बिलकुल साफ हो गया कि उन्होंने खुद को जनता दल के मुकाबले गौण भूमिका में डाल रखा है. अकाली दल (मान) ने पंजाब में चुनाव का मैदान मार लिया. बहुजन समाज पार्टी, और यहां तक कि आईपीएफ ने भी, अपने-अपने स्वतंत्र आधारों पर पैर टिकाकर संसद में जगह बनाई.      

वीपी सिंह इस स्थिति में नहीं रह गए कि अपनी पसंद का विकल्प चुन सकें. भाजपा का समर्थन लिए बिना सरकार बनाना उनके लिए कतई नामुमकिन हो गया. सो, जाहिरा तौर पर जनदबाव का रोना रोते हुए रातो-रात तमाम सूत्रीकरण बदल दिए गए. उन्हें इलहाम हो गया कि मूल्य-आधारित राजनीति नाम की कोई चीज नहीं हुआ करती. उल्टे, मूल्य ही हैं जो व्यवहारिक राजनीति के माल-भत्ते पर टिके होते हैं और बची राजनीति, तो वह अंतर्विरोधों के प्रबंधन की बाजीगरी के अलावा और कुछ नहीं होती. वामपंथियों ने, जिनके पास भाजपा और कांग्रेस के बीच – या जैसा कि ईएमएस ने कहा था, ‘हैजा और प्लेग के बीच’ – फर्क करने के लिए कुछ भी नहीं था, कमाल की कलाबाजी खाई और “भाजपा को अलगाव में डालने” के नारे की जगह “भाजपा से सहयोग करने” के नारे को ला बिठाया. भाजपा को राजनीतिक पार्टी और विहिप, बजरंग दल,  शिवसेना को सांप्रदायिक उन्मादी बताकर उनके बीच फर्क करने की कोशिशें की जाने लगीं. राजेश्वर राव ने तो भाजपा के कार्यक्रम में “सकारात्मक सामाजिक-आर्थिक अंतर्वस्तु” तक ढूंढ़ निकाली. भाजपा से सहयोग की इस हरकत को जायज ठहराने के लिए राष्ट्रीय एकता और अखंडता का नारा बैठे-ठाले उनके हाथ लग गया. और सच पूछिए तो आडवाणी ने फरमाया कि राष्ट्रीय एकता, पाकिस्तान, पंजाब आदि के बारे में हमारे विचार जनता दल से ज्यादा वामपंथियों के करीब हैं. अपनी अंदरूनी सर्किल में तो वामपंथी नेता यहां तक दावा करते रहे कि भाजपा को सरकार से बाहर रखते हुए सरकार के प्रति जिम्मेवार बनाने, और इस तरह, उसके सांप्रदायिक उन्माद पर रोक लगाने की उनकी रणनीति ने झंडे गाड़ दिए हैं. इतिहास ने बता दिया है कि यह सब जनता से किया गया राजनीतिक छल था. भाजपा के बारे में पक्के तौर पर एक भ्रम फैलाया गया और जनता को बाकायदा असावधानी कि स्थिति में डाल दिया गया.

भाजपा से यह उम्मीद करना, कि वह अपने रामकार्ड को – उस कार्ड को, जिसकी बदौलत उसकी पांचों उंगलियां घी में रही हैं – तिलांजलि दे देगी और वामपंथियों की ही शैली में पूरे भक्ति-भाव से जनता दल सरकार की टहल बजाने लगेगी, निरी कुढ़मगजी थी. भाजपा ने जनता दल सरकार को बिनाशर्त समर्थन देने की बात से इनकार करके पहले ही दिन जता दिया था कि उसकी नीयत क्या है और आडवाणी ने तो एलानिया कहा था कि उनका इरादा सरकार के “ब्रेक और एक्सेलेटर” (नियंत्रक और संचालक) दोनों की भूमिका निभाने का है. यानी, चीजें पूर्वानुमान के अनुसार ही चली हैं; और अब अगर वामपंथियों को कोई कूल-किनारा नजर नहीं आता, तो उनकी कुढ़मगजी के लिए, उनके राजनीतिक परिणामवाद के लिये, धार्मिकटटरपथ के खिलाफ संघर्ष पर पानी फेरने के उनके अपराध के लिए, वे ही – सिर्फ वे ही – दोषी ठहराए जा सकते हैं. मैं अब भी महसूस करता हूं कि वामपंथियों की सबसे अच्छी कार्यनीति यह होती कि वे जनता दल और भाजपा को मिलकर केंद्र में सरकार बनाने देते और अपने लिए “एक्सेलेटर और ब्रेक” की भूमिका सुरक्षित रखते, इससे वामपंथ की स्वतंत्र छवि को एक नई चमक मिल गई होती.  

वीपी सिंह ने अपने राजनीतिक जीवन का दूसरा दौर राजनीति-आधारित मूल्यों और अंतरविरोधों के प्रबंधन की बाजीगरी से शुरू किया. प्रधानमंत्री के रूप में उनका राज्यरोहण चंद्रशेखर के खिलाफ देवीलाल को शह देने की उनकी चतुराई भरी चाल का नतीजा था. लेकिन राजनीति में हर समर्थन अपनी कीमत वसूलता है, और आखिरकार एक ऐसा मोड़ भी आया, जहां वीपी लाख जतन करके भी बेलगाम देवीलाल-चौटाला मंडली पर कोई लगाम नहीं डाल सके. एक के बाद दूसरे संकट ने जनता दल की चूलें हिला दीं और अंततः वीपी को देवीलाल से संबंध-विच्छेद कर लेना पड़ा.

वह अपने घोषणापत्र की तमाम महत्वहीन धाराओं को ताबड़तोड़ लागू करने लगे, जिनसे जनसमुदाय का कोई खास सरोकार नहीं था. बोफोर्स के अहम मुद्दे पर उनकी सरकार कोई नया सबूत जुटाने में विफल रही. उल्टे, हुआ यह कि बोफोर्स मामले में शक की जो सुई राजीव गांधी की तरफ घूमी थी, वह वीपी के राज में उनसे दूर-ही-दूर होती गई.

पंजाब के सवाल पर वह कोई पहलकदमी नहीं ले पाए और जल्दी ही अकाली दल(मान) के साथ अपनी रब्त-जब्त खो बैठे, जिससे ले-देकर मामला जहां-का-तहां पहुंच गया. केंद्रीय सत्ता में धारा 370 के खात्मे की मांग पर अड़ी रहनेवाली भाजपा की निर्णायक मौजूदगी के प्रतिक्रियास्वरूप, कश्मीरी लड़ाकों की कार्रवाइयों में बला की तेजी आ गई. वीपी सिंह ने, जगमोहन के माध्यम से, भाजपा के रास्ते से समस्या को सुलझाने की कोशिश की. इससे कश्मीर में राजनीतिक प्रक्रिया की रही-सही आस भी जाती रही.

आर्थिक स्थिति बद से बदतर होती गई, और कीमतें आकाश छूने लगीं. राजीव गांधी के राज में पैदा हुई आर्थिक समस्याएं सुलझने के बजाए उलझती चली गई. और ऊपर से खाड़ी-संकट क्या आया, कि भारतीय अर्थव्यवस्था ही ध्वंस के कगार पर पहुंच गई है, और खतरा मंडराने लगा है कि कहीं भारत को कर्ज चुकाने में असमर्थ बाकीदारों के बीच न शुमार कर लिया जाए.

वीपी सिंह ने सर्वदलीय सहमति की जो शैली अपनाई थी, वह देखते-न-देखते मजाक बनकर रह गई. उन्हें एक विकट आर्थिक स्थिति में काम करना पड़ रहा था. उनपर एक ओर से कांग्रेस का, जो उनकी हर असफलता से लाभ उठाने के मौके की ताक में थी, और दूसरी ओर से भाजपा का, जो निर्णायक भूमिका निभाने के लिए कमर कसे हुए थी, घेरा तंग होता जा रहा था. उधर जनता दल के अंदर सर उठाता चंद्रशेखर-देवीलाल गिरोह उनके लिए एक और दहशत पैदा कर रहा था. ऐसे में, बचाव की सहज-वृत्ति से   प्रेरित होकर उन्होंने अचानक मंडल आयोग रपट लागू करने की घोषणा कर डाली. इसके जरिए उन्होंने साफ तौर पर अपना खुद का राजनीतिक आधार तैयार करने, जनता दल के अंदर अपना रुतबा बुलंद करने और अपने तमाम प्रतिद्वंद्वियों को रक्षात्मक स्थिति में धकेलने की कोशिश की थी. लेकिन जैसा कि घटनाओं ने साबित किया, उनका सारा हिसाब-किताब गड़बड़ था, और मंडल रपट को लागू करके वह अपने पतन को ही बुलावा दे बैठे थे. इससे उनकी अपनी राजपूत जाति में उनका सामाजिक आधार सिकुड़ गया. हरियाणा, उत्तरप्रदेश और राजस्थान के शक्तिशाली जाटों तथा कुछ और प्रमुख जातियों ने, जो अबतक हिंदी क्षेत्र में जनता दल का सामाजिक आधार हुआ करते थे, अपना पाला बदल लिया. और चंद्रशेखर-देवीलाल मंडली फिर से सीन पर आ गई.

छात्र और नौजवान, उसमें भी खासकर दिल्ली और उसके आसपास के इलाकों के छात्र-नौजवान, खुद को बुरी तरह छला हुआ महसूस करने लगे – उस आदमी के हाथों छला हुआ महसूस करने लगे, जिसके सिद्धांतवादी होने का उन्हें पूरा विश्वास था और रोजगार के अधिकार को मौलिक अधिकार बनाने के जिसके वायदे को सुनकर, उन्होंने उम्मीद लगा रखी थी कि अब रोजगार के अवसर कुछ-न-कुछ जरूर बढ़ेंगे. पर उस सबके बजाए, उन्हें वीपी के रूप में नजर आया एक कोरा मंसूबे==बाज राजनीतिज्ञ, जो रोजगार के रहे-सहे अवसरों से भी उन्हें वंचित किए दे रहा था. उनकी चरम निराशा मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग के दर्जनों जवान लड़के-लड़कियों के ‘आत्मदाह’ के रूप में फूट पड़ी, उस रूप में, जिसे नौजवान अमूमन अख्तियार नहीं करते.

मंडल रपट लागू करने से कुछ प्रमुख पिछड़ी जातियों में वीपी की स्थिति मजबूत तो हुई, पर इससे उनके पिछड़ी जाति आधार में कोई इजाफा नहीं हुआ. दूसरी ओर, समाज के अन्य तमाम हिस्सों का जो समर्थन उन्हें प्राप्त था, उसमें भी काफी गिरावट आई. और इस पर से, जब छात्रों-नौजवानों का गुस्सा ‘आत्मदाह’ के रूप में फट पड़ा, तो सत्ता में उनकी मौजूदगी के सामने एक गंभीर नैतिक प्रश्न उठ खड़ा हुआ. शक्तिशाली प्रेस-जगत उनके खिलाफ हो गया; और कांग्रेस एवं भाजपा के साथ-साथ चंद्रशेखर-देवीलाल गिरोह भी उनकी फजीहत से फायदा उठाने की चतुराई भरी चालें चलने लगा.

वीपी सिंह की दलील इस प्रकार थी कि कुछ पिछड़ी जातियों ने हरित क्रांति के चलते पर्याप्त आर्थिक-राजनीतिक शक्ति अर्जित कर ली है और अब वे नौकरशाही के ऊपर के पायदानों में भी आनुपातिक प्रतिनिधित्व पाने के हकदार हैं. ऐतिहासिक तौर पर, चूंकि वे सामाजिक व शैक्षणिक रूप से पिछड़ी रही हैं, इसलिए एक लंबे अरसे तक, वे प्रतिभा के आधार पर ऊंची जातियों से होड़ करने में सक्षम नहीं हो सकतीं. लिहाजा, उनके प्रतिनिधित्व की गारंटी करने का एकमात्र जरिया है – नौकरियों में आरक्षण.

उनका अगला तर्क था कि सवाल केवल सामाजिक न्याय का नहीं है, बल्कि उससे बढ़कर सामाजिक सामंजस्य का है. “परिवार के अंदर बड़े भाई को ज्यादा शक्ति और अधिकार का उपभोग करना चाहिए; पर तब, उसे छोटे भाई को भी कुछ अधिकार देना चाहिए, उसकी भी निर्णय की प्रक्रिया में भागीदार बनाना चाहिए.”

बुर्जुआ राजनीतिज्ञ के संकीर्ण नजरिए से चीजों को देखनेवाले वीपी सिंह की असली मंशा पिछड़ी जातियों के उन हिस्सों को शासन-व्यवस्था के ढांचे में खपा लेने की थी, जिन्होंने समाज में पर्याप्त आर्थिक-राजनीतिक शक्ति अर्जित कर ली है – यानी, जो कुलक लॉबी के हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं. आज जनता के नाम पर, और यहां तक कि क्रांति की जुगाली करते हुए, अपने संकीर्ण वर्गीय स्वार्थ की हिमायत करना बुर्जुआ राजनीति का पुराना कौशल रहा है.

बेशक, वर्गीय समायोजन की उक्त प्रक्रिया एक वस्तुगत स्वाभाविक प्रक्रिया है और वीपी सिंह सत्ता में रहें या न रहें, यहां-वहां कभी तनाव, कभी तालमेल की स्थितियों से गुजरते हुए यह प्रक्रिया चलती रहेगी. जातियों के अंदर वर्गो की रचना-प्रक्रिया को बढ़ावा देने, वर्गीय ध्रुवीकरण और वर्ग संघर्ष को तेज करने के सर्वथा भिन्न परिप्रेक्ष्य से किसी तदबीर का समर्थन करना बिलकुल दूसरी चीज है; मगर ऊपर-ऊपर से वीपी जो कुछ कहते हैं, उसी को सच मानकर मंडल-रपट के क्रियान्वयन को एक प्रकार की क्रांति घोषित कर देना और वीपी के पीछे-पीछे घूमने लगना निरी राजनीतिक मूर्खता और कम्युनिस्टों की वर्ग-स्थिति का परित्याग कर देने के समान है.

वीपी सिंह ने पार्टियों की हदबंदी से परे बैकवर्ड-फारवर्ड आधार पर अखिल भारतीय राजनीतिक ध्रुवीकरण का जो तूमार बांध रखा है, उसमें लोहियावादी राजनीतिज्ञों की गलत व संकीर्ण समझदारी ही अभिव्यक्त होती है. यह उनका गुनाह-बेलज्जत ही था, कि उन्होंने (विश्वास-मत प्रस्ताव के समय) इस उम्मीद में सांसदों से अंतरात्मा की आवाज के अनुसार वोट डालने की अपील कर डाली कि कांग्रेस और भाजपा के अंदर जातीय अंतर्विरोध भारतीय समाज का एक प्रमुख अंतर्विरोध है और कुछ राज्यों में, खासकर बिहार में, इसी से राजनीति की मुख्यधारा का स्वरूप तय होता है. लेकिन यह कोई सर्वव्यापी अंतर्विरोध नहीं है. अलग-थलग ढंग से देखिए, तो तमिलनाडु का द्रविड़ आंदोलन ऊंची जातियों के खिलाफ पिछड़ी जातियों के उभार का द्योतक है. लेकिन तब, यह भी है कि तमिल राष्ट्रीय पहचान – दक्षिण भारतीय पहचान – का सवाल इसमें और भी बड़ी भूमिका अदा करता है. इधर द्रविड़ आंदोलन भी द्रमुक और अन्नाद्रमुक की दो बड़ी धाराओं में विभाजित हो चुका है और हाल के वर्षों में वन्नियार जैसी अन्य पिछड़ी जातियों का उत्थान एक महत्वपूर्ण परिघटना बनकर सामने आया है.

फिर, पिछड़ी जातियों का व्यवहार किसी एकल-एकरूप सामाजिक श्रेणी जैसा भी नहीं होता और यहां तक कि बिहार जैसे राज्यों में भी वे अपनी अंदरूनी प्रतिद्वंद्विता में उलझी रहती हैं. इन प्रतिद्वंद्विताओं का नतीजा अक्सर कुछ एक बैकवर्ड-फारवर्ड जातियों के संश्रय के खिलाफ कुछ अन्य बैकवर्ड-फारवर्ड जातियों के संश्रय के रूप में सामने आता है. बंगाल जैसे राज्यों में शक्तिशाली पिछड़ी जातियों की कोई विशिष्ट श्रेणी नहीं है और न ही अगड़ी-पिछड़ी जातियों का ऐसा कोई झगड़ा है.

उत्तर प्रदेश में, कुछ विश्लेषणकर्ताओं का ख्याल था कि मुलायम सिंह “पिछड़ों में भी पिछड़े” के प्रतिनिधि हैं. उन्हें कुलक-जाट लॉबी के खिलाफ गरीब-मंझोले किसानों का संगठनकर्ता समझा जाता था. और माना जाता था कि मामला चाहे मंडल आयोग का हो या राम-जन्मभूमि का, हर लिहाज से वह वीपी सिंह के पक्के सहयोगी हैं. लेकिन, पलड़ा परंपरागत राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता का ही भारी रहा और वस्तुगत रूप से वीपी सिंह की तमाम कोशिशों का एक ही मकसद रहा – मुलायम सिंह की कीमत पर उत्तरप्रदेश में अपने खुद के आधार-क्षेत्र का निर्माण. मुलायम सिंह-अजीत सिंह विवाद भी एक जाना-पहचाना मामला है और मूलतः उत्तरप्रदेश में जनता दल इन्हीं तमाम आधारों पर टूटा है. मुलायम सिंह के इस आरोप में कुछ-न-कुछ सच्चाई जरूर है कि वीपी सिंह ने विभिन्न हथकंड़ों से उनकी सरकार को गिराने की कोशिश की थी.

उत्तरप्रदेश में वीपी-अजीत गठजोड़ के मुकाबले मुलायम सिंह-चंद्रशेखर-कांशीराम गठबंधन एक अरसे से आकार ग्रहण कर रहा था और 12 अक्टूबर की सांप्रदायिकता-विरोधी केंद्रीय रैली में मंच पर इन तीनों की मौजूदगी किसी भी संजीदा राजनीतिक प्रेक्षक की नजर से बची न होगी. यह रैली इस बात की भी परिचायक थी कि जनता दल के अंदर गुटगत संघर्ष की जड़े मजबूत हो रही हैं. आश्चर्य है कि ज्योति बसु-इन्द्रजीत गुप्त जैसे महानुभाव, जो खुद भी मंच पर विराजमान थे और मुलायम की तारीफ में कसीदे पढ़ रहे थे, इस सांप्रदायिकता-विरोधी गुल-गपाड़े के पीछे की असली राजनीति को नहीं भांप पाए. आजकल की राजनीतिक पार्टियां न तो महज पिछड़ी या महज अगड़ी जातियों की पार्टियां हैं और न हो सकती हैं. इन पार्टियो  के अंदर भांति-भांति के जातीय और वर्गीय समीकरण क्रियाशील रहते हैं और उनका कुलयोग ही किसी खास जाति-वर्ग की तरफदारी में अभिव्यक्त होता है. यह तरफदारी भी किसी खास मोड़ पर ज्यादा मुखर होकर सामने आती है और वह भी सिर्फ सारवस्तु में. इसके बाद चीजों फिर अपनी सहज-स्वाभाविक गति प्राप्त कर लेती हैं. उदाहरण के लिए, हिंदू समुदाय और ऊंची जातियों की तरफदारी निश्चित रूप से कांग्रेस का मूल तत्व है, लेकिन इसकी अभिव्यक्ति बहुत जटिल प्रक्रिया में होती है.

मंडल आयोग ने उत्तर भारत में भाजपा के लिए एक हद तक खतरा जरूर पैदा कर दिया था, क्योंकि यह ‘हिंदू एकता’ की उसकी मुहिम के खिलाफ पड़ता था. रथयात्रा और उसे अतिवादी स्थितियों तक पहुंचाने  का उसका सोचा-समझा अभियान निश्चित रूप से मंडल आयोग के प्रभाव की काट करने के लिए खेला गया दांव था. आडवाणी ने कहा था कि उनकी गिरफ्तारी विनाशकारी सिद्ध होगी, और उनकी यह बात भविष्यवाणी सिद्ध हुई. केंद्र में वीपी-सरकार जा चुकी है, जनता दल कई एक गुटों में बंट चुका है, और वीपी गुट ले-देकर सिर्फ बिहार में ही कुर्सी बचा पाया है. भाजपा संसद में प्रमुख विपक्षी पार्टी के बतौर उभरकर सामने आई है.

सामाजिक और राजनीतिक रूप से अंतरविरोधों का कुल योग वीपी के खिलाफ कब का क्रियाशील हो चुका था. भाजपा का समर्थन वापस लेना इसका कारण नहीं, बल्कि इसका परिणाम था और इसने उनके पतन के लिए आवश्यक उत्प्रेरक का काम किया. सवाल सिर्फ भाजपा-शिवसेना गठबंधन के 90 सदस्यों की समर्थन-वापसी का ही नहीं था, बल्कि इसके साथ-साथ, सवाल था जनता दल की टूट का और कांग्रेस(आइ) के साथ ताजा-ताजा बिठाए गए समीकरण का. अपनी अंतर्वस्तु में चंद्रेशेखर-कांग्रेस(आइ) गठजोड़ का मतलब है – चोर दरवाजे से कांग्रेस शासन की वापसी. निश्चय ही यह एक अस्थिर गठबंधन है, क्योंकि अगर चंद्रशेखर कांग्रेस के अंदर खपा लिए जाएं, तब भी देवीलाल और जनता दल(एस) का एक हिस्सा कांग्रेस के साथ बहुत दिनों तक सहयोग नहीं कर सकता. इसलिए, हमें क्षितिज पर मंडराते चुनाव और जनसंघर्षों के विकास – दोनों को मद्देनजर रखते हुए फौरन जनता के बीच पहुंच जाना चाहिए.

वीपी सिंह का जनता दल और वामपंथी स्वाभाविक विपक्ष की स्थिति में लौट आए हैं, जहां हम पहले से ही उनका इंतजार कर रहे थे. निश्चय ही, अब हमारे और उनके बीच संयुक्त कार्यवाही, सहयोग और संश्रय की ज्यादा गुंजाइश है और हमें हर संभावना का भरपूर इस्तेमाल करना चाहिए. पर तब, यहीं एक सावधानी बरतने की भी जरूरत है. सांप्रदायिक उपद्रव और उसका प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टी भाजपा ने बिलाशक भारतीय समाज के विशिष्ट रचना-तंतुओं के लिए खतरा पैदा कर दिया है. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि व्यवहारिक राजनीति में उनकी यह कोशिश, इस या उस बुर्जुआ-जोतदार समीकरण के पीछे-पीछे घिसटने की उनकी लाइन का खोटा सिक्का चलाने का हथकंडा भर है. जनता को उसकी बुनियादी मांगों पर, जनवादी संघर्षों और जुझारू जनआंदोलन में, संगठित और गोलबंद करने के समानांतर प्रयासों को – उन परंपरागत प्रयासों को, जो सांप्रदायिकता और कट्टरपंथ के खिलाफ वामपंथ की सबसे कारगर चुनौती के रूप में समय की कसौटी पर खरे उतरे हैं – कतई चलता कर दिया गया है; और यहां तक कि उन्हें सांप्रदायिकता-विरोधी संघर्ष के रूप में देखने से भी कन्नी कटा लिया गया है.

लिहाजा, जबकि वामपंथी, सांप्रदायिकता-विरोधी संघर्ष में अपनी सारी आशा बुर्जुआ राजनीतिज्ञों पर टिकाए हुए हैं और मानव श्रृखला, गोष्टी-सेमिनार जैसे तमाशों में मशगूल हैं, तब नीचे जनता के दिल-दिमाग पर कट्टरपंथ का साया गहरा – और गहरा – होता जा रहा है. धुआं-धुआं-सा विचारधारात्मक माहौल, विकट निराशाजनक आर्थिक संकट, ब्रिटिशराज-विरोधी संघर्ष के दौरान निर्मित राष्ट्रीय पहचान का क्षरण – ये सब चीजें मिलकर धार्मिक विचारधारा को एक शक्ति बना देती हैं. धर्म ढाढस बंधाने लगता है, हिंदू पहचान राष्ट्रीय पहचान को बरकरार रखने का एकमात्र जरिया नजर आने लगती है, और भाजपा अपने घोर कम्युनिस्ट-विरोधी और फासिस्ट लक्ष्यों की दिशा में एक-एक कदम आगे बढ़ती रहती है. सिर्फ वामपंथ की विरासत को, उसकी विचारधारात्मक व राजनीतिक आक्रामकता को, बुनियादी और जनवादी मुद्दों पर उसके जुझारू जन आंदोलनों के सिलसिले को एक नई जिंदगी देकर ही सांप्रदायिकता का जोरदार मुकाबला किया जा सकता है.

पिछड़ी हुई सामाजिक स्थितियां, जनवादी चेतना का अभाव, आर्थिक तबाही – यही वो चीजें हैं, जो फासिज्म की पैदाइश के लिए उपजाऊ जमीन मुहैया करती हैं. लेकिन ठीक यही स्थितियां क्रांति की अग्रगति के लिए भी उपयुक्त होती हैं – बशर्ते, वे स्वतंत्र रूप से और जनता को साथ लेकर कदम बढ़ाने का साहस करें.

वीपी सिंह-लालू यादव एक हद तक ही हमारे साथ चल सकते हैं. एक बार फिर विपक्षी बेंच पर पहुंच जाने के कारण वे और भाजपा गैर कांग्रेसवाद के नाम पर कदम-ब-कदम दुबारा एक-दूसरे से रिश्ता कायम कर ले सकते हैं. ऐसे रिश्तों की शुरुआत लोहिया के जमाने में ही हुई थी, जबकि उन्होंने सन् साठ के बाद वाले दशक में पहली बार गैर कांग्रेसवाद का सिद्धांत गढ़ा और तत्कालीन जनसंघ के साथ एक समन्वय कायम कर लिया. यही किस्सा जनता पार्टी के अंदर सन् 1977 में, और फिर एक भिन्न रूप में 1989 में दुहराया गया. जब वे विपक्ष मे होते हैं, निकट आते हैं. जब सत्ता में पहुंचते हैं, छिटक जाते हैं. सिलसिला अब तक ऐसे ही चलता रहा है. सीपीआई-सीपीआईएम एक बार फिर भ्रम फैला रहे हैं कि कांग्रेस और भाजपा के विरुद्ध एक निर्णायक धर्मनिरपेक्ष समीकरण ने आकार ग्रहण कर लिया है और अब तो बस इसका सीधा-सपाट विकास ही किया जा सकता है. अगर हम बाहरी रूप को देखकर ही दिग्भ्रमित हो जाते हैं और अपने तमाम पत्ते वीपी सिंह-लालू यादव जैसे महानुभावों के हवाले कर देते हैं, तो तय जानिए कि वामपंथ को एक बार फिर करारी चोट खानी पड़ेगी.

इसलिए, बुर्जुआ की धर्मनिरपेक्ष व उदारवादी शक्तियों के साथ किसी भी किस्म के कार्यनीतिक, अस्थायी और संक्रमणकालीन संश्रय के लिए अपना दरवाजा खुला रखते हुए, आइए, हम स्वतंत्र रूप से आगे बढ़ें. क्रांतिकारी परिस्थिति एक अनुकूल दिशा में बढ़ रही है. शासक वर्ग गंभीर राजनीतिक अस्थिरता का सामना कर रहे हैं. समय आ गया है कि हम अपनी गतिविधियों को संसदवाद और औपचारिकतावाद के दायरे में कैद रखने के बजाए, साहसपूर्वक जनता को जागृत करें और कमर कसकर जुझारू जनसंघर्षों की दिशा में प्रस्थान करें. आइए, हम स्वतंत्रता और जनसंघर्ष की पताका बुलंद करें.