(लिबरेशन, अक्टूबर 1998 से)

दो सप्ताह पहले कांग्रेस की पंचमढ़ी सभा पर टिप्पणी करते हुए हमने कहा था, “खासकर सरकारी वाम ने इस मंत्रणा सभा द्वारा आर्थिक नीति पर किए जानेवाले पुनर्विचार पर भारी उम्मीदें टिका रखी थीं. वे बड़ी बेसब्री से इंतजार कर रहे थे कि इस सिलसिले में कोई सकारात्मक संकेत मिले ताकि वे कांग्रेस के साथ घनिष्ठ संयोग की अपनी लाइन बेच सकें. सीपीआई व सीपीआई(एम) की आगामी कांग्रेसों के मद्देनजर इसकी खास तौर से अहमियत थी, क्योंकि वहां प्रतिनिधियों की ओर से कांग्रेस के साथ तालमेल का कड़ा प्रतिरोध किए जाने की उम्मीद थी.” और यह भी कि “बहरहाल, वाम नेताओं को लगा कि वे बुरी तरह ठगे गए, क्योंकि ‘गरीबी हटाओ’ जैसे चंद पुराने फिकरों और समाजवादी ढांचे आदि की परंपरागत सूक्तियों को दुहराने के सिवा वहां और कुछ नहीं किया गया. आर्थिक प्रस्तावों पर मनमोहनॉमिक्स पूरी तरह छाई रही.” (माले समाचार, 9-09-1998)

अब जबकि सीपीआई की चेन्नई कांग्रेस संपन्न हो चुकी है, हम यही बात उसके दिग्गजों के मुंह से सुन रहे हैं. 19 सितंबर के हिंदुस्तान टाइम्स ने वर्धन महाशय को यह कहते हुए उद्धृत किया कि “कांग्रेस से यह आशा की जा रही थी कि उसका पंचमढ़ी अधिवेशन अपनी नीतियों की समीक्षा करेगा ... (लेकिन) वहां आर्थिक नीति के बुनियादी मुद्दे पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया.” बहरहाल, आर्थिक नीति के प्रति यह चिंता सरकारी वाम और कांग्रेस के बीच विभेद का प्रमुख बिंदु होने के बजाय एक दिखावा ज्यादा है. अंतिम तौर पर, संयुक्त मोर्चा सरकार अपने न्यूनतम साझा कार्यक्रम में कोई भिन्न आर्थिक कार्यक्रम तो पेश नहीं कर सकी. विवाद का विषय यह है कि संयुक्त मोर्चा प्रयोग के ध्वस्त हो जाने के बाद कांग्रेस और सरकारी वाम के बीच सहयोग का नया दौर वास्तव में शुरू हो चुका है. हां, इसकी रफ्तार जरूर धीमी है क्योंकि पंचमढ़ी से पर्याप्त सकारात्मक संकेत नहीं मिले और नतीजतन वाम नेतृत्व कांग्रेस के साथ सक्रिय सहयोग की लाइन चालू करवा पाने में सक्षम भी नहीं हो सका. अच्छी-खासी संख्या में प्रतिनिधियों ने ‘उपर-उपर दांवपेंच खेलने’ की इस नीति का विरोध किया और इस बात पर जोर दिया कि कठिन-कठोर काम का कोई विकल्प नहीं है. प्रतिनिधियों के इस सक्रिय प्रतिरोध के देखते हुए चेन्नई कांग्रेस कोई आम गठबंधन या साझा धर्मनिरपेक्ष मोर्चा बनाने के बजाय कांग्रेस को बाहर से समर्थन देने तक सीमित रह गई.

सीपीआई(एम) नेतृत्व भी उसी दिशा में आगे बढ़ रहा है. कामरेड ज्योति बसु कांग्रेस के और करीब जाने की काफी उत्सुक हैं, लेकिन सीपीआई की कांग्रेस के अनुभवों और कलकत्ता में अपनी पांतों के बीच से और अधिक प्रतिरोध होने की संभावनाओं को देखते हुए पार्टी नेतृत्व सतर्कता से अपना कदम उठा रहा है. दिल्ली में हाल-फिलहाल आयोजित माकपा की रैली में ज्योति बसु अपनी बीमारी के बहाने अनुपस्थित रहे और सुरजीत ने इस मौके पर कांग्रेस को काफी लानतें भेजीं. जो भी हो, अपनी पांतों की फीकी प्रतिक्रिया और खुद नेतृत्व के अंदर गहरे विभाजनों के मद्देनजर तथा उससे भी अधिक कांग्रेस के अंदर वामपंथ के साथ पुरजोर दोस्ती करने के जोश का अभाव देखकर भाकपा और माकपा दोनों के नेतृत्व ने धीमी चाल चलने का फैसला लिया है. लेकिन मूल संदेश स्पष्ट है. तीसरे मोर्चे की जुगाली बस यूं ही बंद कर दी गई है और कांग्रेस के साथ घनिष्ठतर सहयोग का नया दौर शुरू हो गया है.

इस तरह एक चक्र पूरा हो गया. आपको याद होगा कि ठीक दो वर्ष पहले ये ही वामपंथी नेता संयुक्त मोर्चा सरकार के लिए कांग्रेस का समर्थन स्वीकार करने के बारे में लंबी-चौड़ी हांक रहे थे. उस वक्त वे कांग्रेसी समर्थन उसकी बाध्यता बता रहे थे. इन्द्रजीत गुप्त ने तो कांग्रेस को चुनौती ही दे डाली थी कि वह अपना समर्थन वापस लेने के बाद मजा चख लेगी. लेकिन जब समर्थन वापसी का खतरा सचमुच उत्पन्न हो गया तो संयुक्त मोर्चा ने देवगौड़ा की कुर्बानी दे दी. जब यह खतरा पुनः पैदा हुआ, उन्होंने डीएमके के दो मंत्रियों को बर्खास्त करने के बजाय सरकार की बलि देने की बहादुरी दिखाई – ऐसी बहादुरी जिसके लिए आज उन्हें गहरा पछतावा हो रहा है. नतीजतन, मध्यावधि चुनावों में भाजपा सत्ता में आई, कांग्रेस को पुनर्जीवन मिला और संयुक्त मोर्चा की खाट घड़ी हो गई. राजनीति भाजपा और कांग्रेस के बीच ध्रुवीकृत हो गई और तीसरे मोर्चे की चिरवांछित धारणा – जनता के जनवादी मोर्चे की ओर जाने वाले तथाकथित संक्रमणकारी कदम की धारणा – लुट-पिट गई. जिस डीएमके की खातिर वह शौर्यपूर्ण बलिदान दिया गया, वही आज भाजपा सरकार और भाजपा के बीच फर्क करने जैसा अनूठा विचार लेकर सामने आ रहा है. और वही इन्द्रजीत पुक्त चेन्नई में अपने उदघाटन भाषण के दौरान सरकार बनाने के कांग्रेसी प्रयासों को समर्थन देने की पैरोकारी करते नजर आए – क्योंकि वामपंथ कमजोर है.

कांग्रेस वामपंथ की इस दुविधा को समझती है. इसीलिए उसने पंचमढ़ी में एक संधि संकेत दिया. लेकिन अपनी आर्थिक नीति के बुनियादी जोर को जरा भी कमजोर किए बगैर ही. साथ ही, उसने लालू-मुलायम जोड़ी से दूरी बनाने की भी कोशिश की. उत्तरप्रदेश और बिहार के अपने पुराने मजबूत गढों में पार्टी को फिर से खड़ा करने और अपने परंपरागत सवर्ण व अल्पसंख्यक समर्थन को पुनः हासिल करने की चिंताओं के अलावा इस चतुराई भरी चाल का लक्ष्य यह था कि अपने और भाजपा के बीच ऐसी हर ताकत को हटा दिया जाए जो उनके बीच की सीधी टक्कर में आड़े आती हो.

सभी संकेत साफ हैं. अवसरवादी वाम हठपूर्वक कांग्रेस की ओर चल पड़ा है और एक तरह से यह कांग्रेस के साथ उसके दीर्घकालीन खुले-छिपे संबंधों का ही औपचारिक स्वरूप है. दूसरी ओर विश्व व्यापार संगठन के हमलों से भारतीय कृषि को बचाने के बहाने अपने प्रचलित अ-राजनीतिवाद के झंडे तले अराजकतावादी वाम धनी फार्मरों की लॉबी के साथ गठजोड़ बना रहा है.

क्रांतिकारी जनवादी आधार पर तीसरे मोर्चे के निर्माण का एजेंडा क्रांतिकारी वाम की ताकतों को अपने ही हाथों में लेना चाहिए. बदलती राजनीतिक परिस्थिति में काफी सामाजिक और राजनीतिक ताकते इस आह्वान का प्रत्युत्रर देंगी. सीपीआई की कांग्रेस में भी व्यापक वाम संश्रय बनाने के पक्ष में एक आम भावना व्याप्त थी जिसे नेतृत्व ने माकपा के साथ तथाकथित कम्युनिस्ट एकता के दायरे मे कैद कर भट्का दिया. पुरनी समाजवादी ताकते भाजपा के साथ समता के साथ हाथ मिला लेना के बाद अस्तव्यस्त हैं और यही हाल उन असंख्य ताकतों का है जो तीसरे मोर्चे की संपूर्ण धारणा को पुनर्जीवित करने के ताजा प्रयासों का पूरी उत्सुकता से इंतजार कर रही हैं. हमने वाम महासंघ बनाने की अपनी अपील पुन: जारी की है और “ केसरिया हटाओ, देश बाचाओ” के वर्तमान अभियान को निश्चय ही तीसरे मोर्चे के लिए एक सकारात्मक अभियान में बदल देना चाहिए.