(लिबरेशन, सितम्बर 1993 से)

सीपीआई(एम) के केन्द्रीय मुखपत्र पीपुल्स डेमोक्रेसी (इसके बाद से पीडी) के 15 अगस्त के अंक में राष्ट्रीय एकता अभियान (राएअ) की हमारी समीक्षा पर टिप्पणी करते हुए हमारी पार्टी के खिलाफ वस्तुतः एक निन्दा अभियान छेड़ दिया गया है. उनका यही लेख उनके अन्य पार्टी मुखपत्रों में भी छपा है और पंजाब में, जहां सीपीआई(एम) का अपना कोई मुखपत्र नहीं है, यह लेख पंजाबी ट्रिब्यून नामक पत्रिका में छपवाया गया है. पीपुल्स डेमोक्रेसी संयुक्त मंचों के प्रति ‘नक्सलवादियों’ के अत्यधिक संकीर्णतावादी और नौसिखुआ रवैये पर विलाप करता है. इस लेख का अंत हमें यह कड़ी चेतावनी देने के साथ होता है कि हम “फैसला कर लें कि मुख्यधारा में रहेंगे या फिर पुरानी हाशिये की राजनीति में वापस चले जायेंगे.”

आइये हम उनके तर्कों को बारी-बारी से परखें. राष्ट्रीय एकता अभियान (राएअ) से वापसी के हमारे प्रस्ताव में जो बुनियादी कारण दर्शाया गया है, वह है ठोस परिस्थिति में लक्षणीय परिवर्तन – जब हमें संघर्ष के मुख्य निशाने को केन्द्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार के खिलाफ मोड़ देना होगा. पीडी खुद इस बात को स्वीकार करता है कि “ठोस स्थिति की मांग पर समय-समय पर राएअ जैसे मंचों का गठन किया जायेगा”, जो बिल्कुल सही बात है! अब, क्या ठोस परिस्थिति सचमुच बदल नहीं गई है? सीपीआई(एम), जो अब तक संसद के सदन में भाजपा के मुकाबले कांग्रेस का बचाव करती आ रही थी, उसे न चाहने पर भी अविश्वास प्रस्ताव लाने में प्रमुख भूमिका निभानी पड़ी और भाजपा के साथ मिलकर वोट देना पड़ा है? पीडी ने फरवरी-मार्च के महीनों में, “जब मुख्य जोर संघ परिवार को निशाना बनाने पर था”, सीपीआई(एम) द्वारा प्रतिबंध के उल्लंघन से इन्कार को जायज ठहराते हुए अनचाहे स्वीकार किया है कि अब प्राथमिकताएं बदल गई हैं. पीडी का तर्क है कि “प्रतिबंध का उल्लंघन करके सरकार के साथ टकराव पर जोर देने से हम साम्प्रदायिक शक्तियों के खिलाफ गोलबंदी के प्राथमिक लक्ष्य से भटक जाते.” यह किसी मार्क्सवादी का नहीं बल्कि उदारपंथी का तर्क है. फिर भी यहां एक पूर्वानुमान छिपा है कि यह स्वतः आरोपित सीमा अब नहीं लागू होती. 19 अगस्त और 9 सितम्बर के कार्यक्रमों ने इस बात को स्प­ष्टतः सिद्ध कर दिया है. पीडी के राजनीतिक टीकाकार महोदय, अब मुख्य जोर के रूप में इस बदलाव के चलते आप राएअ के लिये क्या भूमिका निर्धारित करते हैं? पीडी इस सवाल का जवाब नहीं देता और इस प्रकार समूची बहस व्यर्थ के झूठे निंदा अभियान में बदल जाती है. न्यू एज (सीपीआई का मुखपत्र) ने इस सवाल का जवाब देने की जरूर कोशिश की, मगर उन्होंने वर्तमान परिस्थिति में राएअ की ठीक-ठीक भूमिका तय नहीं की. आईपीएफ ने एक वैकल्पिक सुझाव पेश किया कि राएअ को जानी-मानी सांस्कृतिक एवं धर्मनिरपेक्ष हस्तियों द्वारा चलाने दिया जाय, और राजनीतिक पार्टियां पीछे से उसकी मदद करें. इस सवाल पर एक स्वस्थ बहस हो सकती थी. लेकिन पीडी ने अपने अति-उत्साही अंदाज में हमारी बात काटने के लिये खुद उसी बिंदु को नजरअंदाज कर दिया. जो बुढ़ापे में सठिया गये हों, उनके नौसिखुआ रवैये पर तो बस तरस ही आता है!

अब अगर संयुक्त मंचों पर कामकाज के संदर्भ में खुद राएअ की समीक्षा की जाय, तो पीडी ने “व्यापक सतरंगी” शक्तियों और वामपंथियों के अपने मंचों के बीच चीन की दीवार खड़ी करने की कोशिश की है. यह सब केवल उदार पूंजीवादी कूड़ा-करकट है. ‘व्यापक सतरंगी’ शक्तियों, उदार पूंजीवादी मूल्यों का प्रचार करने के लिये बना संयुक्त मंच, पूंजीवादी पार्टियों की उपलब्धियों को उछालने के लिये बना संयुक्त मंच! तो फिर भला वामपंथियों के अस्तित्व की जरूरत ही क्या है -- बस केवल जनता को बुर्जुआ मसखरों की नाटकबाजी देखकर तालियां बजाने के लिये गोलबंद करने हेतु? हमें दृढ़ विश्वास है कि जन-पहलकदमी का द्वार खोलना और वामपंथी विचारधारा का प्रचार करना साम्प्रदायिकता के खिलाफ किसी गंभीर और सच्चे संघर्ष के लिये अत्यावश्यक है और वामपंथ को अवश्य ही किसी संयुक्त मंच का उपयोग, चाहे जिस हद तक मुमकिन हो, इसी मकसद को पाने के लिये करना चाहिये.

उत्तर प्रदेश के विश्वविद्यालय चुनावों में आइसा की विजय न सिर्फ हमारे लिये बल्कि समग्र रूप से धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक शक्तियों के लिये एक उपलब्धि थी और देश भर की सभी किस्म की धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक शक्तियों ने उसे इसी दृष्टि से देखा. विडम्बना यह है कि साम्प्रदायिकता-विरोधी राष्ट्रीय मंच ने उत्तर प्रदेश की इतनी महत्वपूर्ण घटना को नजरअंदाज करना बेहतर समझा और 14 अप्रैल की रैली में आइसा के वक्ता को मंच से बोलने की इजाजत नहीं दी. इस किस्म के तर्क कि “आईपीएफ अन्य संगठनों की तुलना में सीमित शक्ति रहने के बावजूद उम्मीद करता है कि अधिकांश पार्टियों से ज्यादा उसके वक्ताओं को बोलने का अवसर मिलेगा” ऐसी तुच्छ बातें हैं, जिनका इस्तेमाल असली मुद्दे से कतराने के लिये किया गया है. हम वक्ताओं की संख्या अथवा कैमरे में सामने की कतार पर रहने के प्रश्न पर मोलभाव की आदत नहीं पोसते – यह सब बस आपकी इजारेदारी में है. उत्तर प्रदेश के चुनावों में आइसा की विजय के भारी महत्व को देखते हुए यह पहली बार था कि हमने मांग की कि आइसा के एक वक्ता को बोलने दिया जाय. हम पर इस मंच पर चालाकी से काम निकालने का आरोप लगाया जा रहा है और सलाह दी जा रही है कि हम अपनी उपलब्धियों का प्रचार अपने मंचों से करें. बहुत खूब, तो फिर इसी तर्क के आधार पर राम विलास पासवान को भी अपने मंच का इस्तेमाल क्यों नहीं करना चाहिये? क्या उन्हें इस बात की अनुमति नहीं दी गई, बल्कि इससे भी बढ़कर खुल्लमखुल्ला मंच ही उनके हवाले नहीं कर दिया गया, कि वह कार्यक्रम को आम्बेडकर की जन्मवार्षिकी के उत्सव आयोजन में बदल दे? लालू के पास भी अपना मंच है. फिर भला उनको, जिन्होंने उस कार्यक्रम के लिये कोई गोलबंदी ही नहीं की थी, अपनी छवि का प्रचार करने के लिये राएअ की रैली की भावना को क्षतिग्रस्त करने की इजाजत दे दी गई? हो सकता है कि कामरेड सुरजीत को बिहार में लालू के अलावा और कोई नजर ही न आता हो, मगर हम इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि अगर बिहार साम्प्रदायिक दंगों से अपेक्षाकृत मुक्त रहा है, तो इसमें बिहार की जनता और वाम शक्तियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. फिर भला बिहार में किसान समुदाय की भूमिका पर और उत्तर प्रदेश में छात्रों की भूमिका पर जोर देना “सतरंगी शक्तियों” के अथवा राएअ की 19 दिसम्बर की घोषणा के खिलाफ कैसे जाता है, यह हमारी समझ के बाहर है.

दरअसल मूल बात कहीं और है. सीपीआई(एम) को उत्तर प्रदेश में विश्वविद्यालय चुनावों में आइसा की जीत हजम नहीं  हुई और अपने मुखपत्रों में इस खबर को दबा जाने हेतु वह जिस हास्यास्पद हद तक चली गई उससे लगा कि उसे भाजपा से भी बढ़कर धक्का लगा है. फिर भी वे हम पर संकीर्णतावादी होने का ठप्पा लगाने की जुर्रत करते हैं!

यह सामान्यबोध की बात है कि राएअ का मुख्य जोर संघ परिवार के खिलाफ था. लेकिन राएअ ने केवल गैर-कांग्रेस धर्मनिरपेक्ष शक्तियों का मोर्चा बने रहने का फैसला बिला वजह यूं ही नहीं लिया. सीपीआई(एम) ने जरूर राएअ में कांग्रेस को शामिल करने का प्रस्ताव पेश किया था, मगर उसे मोर्चे के घटकों के बहुमत ने ठुकरा दिया. साम्प्रदायिकता विरोधी अभियान के लिये मार्च और अप्रैल के महीने महत्वपूर्ण थे मगर सीपीआई(एम) ने “साम्प्रदायिक शक्तियों के खिलाफ गोलबंदी के लक्ष्य” से किनारा काटने के बहाने चुपचाप बैठे रहना पसंद किया. वास्तव में वे कांग्रेस पर पूरी उम्मीद लगाये थे कि वह भाजपा के खिलाफ लड़ेगी और इसी के चलते उन्होंने साम्प्रयादिकता-विरोधी गोलबंदियों पर भी सरकारी प्रतिबंध को राजीखुशी स्वीकार कर लिया. यह दावा बिल्कुल झूठा है कि “संभवतः आईपीएफ को छोड़कर राएअ के सभी घटकों के बीच इस मामले पर पूरी बातचीत हुई थी और सभी इस पर राजी थे”. जनता दल और सीपीआई अंत-अंत तक राएअ की वाराणसी रैली में भाग लेने को राजी थे और केवल अंतिम क्षणों में सीपीआई(एम) की साजिश के चलते उन्हें अपना फैसला बदलना पड़ा.

पीडी हमें यह भी बताता है कि “उन्होंने [यानी सीपीआई(एमएल) और आईपीएफ ने] जन संगठनों के कन्वेंशन में पारित साझा चार्टर में बाहर के मुद्दों को घुसाने की कोशिश की थी, मगर उन्हें झिड़क दिया गया”. यह हमारे लिये एक नई खबर है कामरेड! हमारे जन संगठनों के वक्ताओं को तो उपस्थित भागीदारों की खूब तालियां मिल रही थीं, और केवल आपकी पार्टी वालों ने, जो अध्यक्षता कर रहे थे, तमाम लोकतांत्रिक रीति-नीति का उल्लंघन करते हुए हमारे वक्ताओं को दिये गये समय में कटौती करने की कोशिश की थी.

हम धर्मनिरपेक्षता के लिये संघर्ष को केवल लोकतंत्र के लिये संघर्ष का एक अभिन्न अंग मानते हैं. अगर हम साम्प्रदायिक शक्तियों के खिलाफ सचमुच गंभीरता से संघर्ष चला रहे हों तो धर्मनिरपेक्ष मोर्चा के साझीदारों का कर्तव्य बनता है कि वे आपस में लोकतांत्रिक बरताव की रीति-नीति का पालन करें. अगर लालू यादव आईपीएफ के विधायकों की खरीद-फरोख्त कर रहे हों और आप आईपीएफ के समर्थक खेत मजदूरों का कत्लेआम संगठित कर रहे हो, तो आम जनता के पास इससे क्या संदेश जायेगा? कामरेड, आप गलत समझ रहे हैं. हम लालू यादव द्वारा हमारे विधायक ग्रुप में “फूट डालने” पर गुस्सा नहीं जाहिर कर रहे हैं. हर व्यक्ति अपने विचार बदलने के लिये स्वतंत्र है और यकीनन अपनी पसंद की पार्टी में शामिल हो सकता है. हम तो केवल प्रारंभिक संसदीय नैतिकता के अनुसार यही मांग कर रहे हैं कि इन विधायकों को पहले सीट से पदत्याग करने और तब नये सिरे से चुनाव लड़ने को कहना उचित था. यह विल्कुल उचित लोकतांत्रिक मांग है और लालू के लोकतंत्र-विरोधी बरताव को जायज ठहराकर आप बहुत बुरा उदाहरण रच रहे हैं. चलो अच्छा है, हमें अपने विधायकों की राजनीतिक गुणावत्ता और शिक्षा की गारंटी करने के लिये दीगई आपकी बेशकीमती सलाह के लिये हम आपके आभारी हैं, मगर हमें यह जानकर और भी बहुत फायदा होगा अगर आप अपने कुछेक विधायकों का सट्टा डॉन राशिद खान के साथ, और आपके कुछेक मंत्रियों का कोलकाता के भ्रष्ट उद्योगपतियों के साथ गठजोड़ से निपटने का अनुभव भी बतायें. मगर हम वाम मोर्चा – प्रकाश करात के शब्दों में सबसे बड़ी वामपंथी संरचना – के उन सात विधायकों के बारे में दिक्कततलब सवाल नहीं उठायेंगे, जिन्होंने राज्य  सभा के चुनाव में प्रणब मुखार्जी के पक्ष में मतदान किया था. क्या उस पार्टी को, जो भारत की एकमात्र कम्युनिस्ट पार्टी होने का दम भरती हो, “चोरों के मंत्रिमंडल” की अपेक्षा बेहतर सरकार नहीं प्रदान करना चाहिये? इन शब्दों के लिये खेद है कामरेड, लेकिन इस शब्दावली का इस्तेमाल आपके ही प्रेस द्वारा कामरेड बुद्धदेब भट्टाचार्य के लिये किया गया है.

पीडी के अनुसार, “उनका सीपीआई(एम) को मुख्य निशाना बनाना और कुछ नहीं बस चारु मजुमदार की उसी पुरानी थीसिस का अवशेष है” और “ऐसा लगता है कि इस ग्रुप ने हाल में जो धक्के झेले हैं, उनके फलस्वरूप इसमें वही पुरानी अशांतिकारी स्थिति लौट आई है.” पीडी दोनों मामलों में गलत है. धक्का नहीं बल्कि हाल के महीनों में हमारी पार्टी द्वारा पश्चिम बंगाल समेत हर जगह किये गये विस्तार ने हमारे खिलाफ सीपीआई(एम) के गुस्से को न्यौता दिया है. जमीनी स्तर पर यही गुस्सा करंदा के जनसंहार में प्रतिबिम्बित हुआ है (पीडी को इससे कोई मतलब नहीं है. जो कुछ दिक्कततलब है, उसे दबा जाने की परम्परा को कायम रखते हुए पार्टी ने करंदा का नाम तक लेना निषिद्ध कर दिया है) और स्थूल स्तर पर हमें राजनीतिक गतिविधियों की मुख्यधारा से अलगाव में डालने के मकसद से उन्होंने अपनी पूरी शक्ति लगाकर निंदा अभियान चला रखा है. उत्तर प्रदेश में हाल में सीपीआई(एम) के राज्य सचिव ने आईपीएफ के साथ जनता दल की संयुक्त कार्यवाहियों के लिये वार्ता का विरोध करते हुए एक वक्तव्य जारी किया है और आईपीएफ पर आरोप लगाया है कि वह सीपीआई(एम) की कीमत पर आगे बढ़ने की योजना बना रहा है. इस किस्म के असामान्य वक्तव्य को तमाम विवेकशील शक्तियों ने, जिनमें सीपीआई से हमदर्दी रखने वाले लोग भी शामिल हैं, खारिज कर दिया और सीपीआई की राज्य परिषद ने तो इस वक्तव्य की निंदा करते हुए एक प्रस्ताव भी पारित किया. वास्तव में सीपीआई(एम) के हाथ से वाम मोर्चे का नियंत्रण फिसलता जा रहा है और इसके विपरीत पश्चिम बंगाल समेत हर जगह वाम मोर्चे के साझीदारों से हमारी बढ़ती अंतःक्रिया ने सीपीआई(एम) को आतंकित कर दिया है जिससे वे हमारे खिलाफ जरूरत से ज्यादा प्रतिक्रिया जाहिर कर रहे हैं.

अगर समूचे वाम-मध्यपंथी वर्णक्रम में सीपीआई(एम) ही हमारा प्रधान राजनीतिक-विचारधारात्मक प्रतिद्वंद्वी बनकर उभरी है, तो ऐसा चारु मजुमदार की किसी थीसिस के चलते नहीं हुआ और न ही हमने इसे चुना है. इसकी जड़े हमारे अपने-अपने इतिहास में हैं, हमारी दो विरोधी राजनीतिक-कार्यनीतिक लाइनों में निहित हैं और आपके द्वारा हमें अलगाव में डालने, बदनाम करने और यहां तक कि हमारा शारीरिक रूप से सफाया कर देने के उन्मत्त प्रयासों में निहित हैं. हमारी हाशिये की राजनीति में बने रहने की कोई आकांक्षा नहीं है और न ही आपके पास यह कूवत है कि आप हमें मुख्य धारा से अलगाव में डाल सकें. हमें पक्का यकीन है कि सीपीआई(एम) के अंदर ऐसे विवेकवान लोग भी हैं जो हम दोनों पार्टियों के बीच वामपंथ की स्वतंत्र भूमिका के नये आधार पर कामरेडाना सहयोग का रिश्ता कायम करने को उत्सुक हैं; और इस दिशा में भविष्य में होने वाला कोई भी पुनर्संयोजन यकीनी तौर पर भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास में एक नये अध्याय की शुरूआत करेगा. आखिरकार, परिस्थितियों का बल इस या उस नेता की आत्मगत इच्छा से कहीं ज्यादा शक्तिशाली होता है.