(छठी पार्टी कांग्रेस की रिपोर्ट से)

1996 के संसदीय चुनावों में, भारतीय शासक वर्गों की मुख्य राजनीतिक पार्टी कांग्रेस(इ) हारकर सत्ता से बाहर हो गई. संसद में उसकी सीटों की संख्या रिकार्ड हद तक गिर गई, और उसके बाद ही प्रधानमंत्री समेत उसके अधिकांश मंत्रीगण एक-के-बाद-एक घोटालों में चार्जशीट पाने लगे. जिस सरकार ने उदारीकरण की नई आर्थिक नीति लागू की थी, वह भ्रष्टाचार के मामले में ही सबसे उदार साबित हुई, और तब भांडा फूटा कि वह कांग्रेस(इ) सरकार भारत में अब तक सत्तारूढ़ हुई केंद्रीय सरकारों में सबसे ज्यादा भ्रष्टाचारी सरकार थी.

स्वभावतः आज कांग्रेस पूरे तौर पर साख खो बैठी है. खासकर भारत के दो सर्वाधिक आबादी वाले हिंदी-भाषी राज्यों, उत्तरप्रदेश व बिहार में हाशिए पर चले जाने के कारण, फौरी तौर पर उसके पुनरुज्जीवन की संभावना गंभीर सवालिया निशानों के घेरे में आ गई है. फिर उसके अंदर कभी न खत्म होने वाले गुटीय संघर्ष बदस्तूर जारी है और महत्वपूर्ण धड़ों के विभाजन का खतरा भी मौजूद है. नेतृत्व में बदलाव लाने और नेहरू खानदान की अपील के जरिए वह अपनी छवि सुधारने की कोशिश कर रही है. मगर अब तक जनता के बीच उसे लोकप्रियता हासिल होने के कोई लक्षण नहीं दिखाई पड़ते.

यद्यपि राजनीतिक प्रभाव और संगठनात्मक नेटवर्क के लिहाज से वही एकमात्र पार्टी है, जो अखिल-भारतीय रूप से मौजूद है, पर वह खुद अपने बल पर केंद्रीय सत्ता हासिल करने के कहीं नजदीक भी नहीं लगती.

इस मायने में, परिस्थिति 1977 से अथवा यहां तक कि 1989 से बिलकुल भिन्न है. इसीलिए संयुक्त मोर्चा सरकार को उसका समर्थन लंबी अवधि वाला, रणनीतिक चरित्र का समर्थन है. कांग्रेस आस लगाए बैठे है कि अगले चुनाव में बहुमत पाने के लिए वह संयुक्त मोर्चे में उभरते वाले अंतरविरोधों का इस्तेमाल करके मध्यपंथी और आंचलिक शक्तियों के खेमें से संश्रयकारी जुटा सकेगी. अब भी उसके पास ऐसे दांव-पेंच खेलने की पर्याप्त क्षमता मौजूद है कि वह वामपंथी, मध्यपंथी तथा आंचलिक संगठनों को मिलाकर बने तथाकथित तीसरे खेमे में भ्रम और विभाजन पैदा करके कांग्रेस के नेतृत्व वाले संश्रय के बतौर सत्ता पर फिर से काबिज हो सके.

भाजपा का खतरा

भाजपा ने पिछले चुनाव में काफी महत्वपूर्ण उपलब्धियां हालिस की. फिर भी वह बहुमत से दूर रह गई. सर्वोत्तम प्रयासों के बावजूद वह बहुमत नहीं जुटा पाई. लेकिन उसे शिव सेना के अलावा बसपा, समता, अकाली और हरियाणा विकास पार्टी जैसे संश्रयकारी जुटाने में सफलता जरूर मिली है. संतुलन को अपने पक्ष में मोड़ने के लिए वह कुछेक आंचलिक शक्तियों को जीतने की जी-तोड़ कोशिश कर रही है, और अटल बिहारी वाजपेयी ने राष्ट्रीय जनवादी मोर्चे का विचार भी पेश किया है. कहीं-न-कहीं उन्होंने यह जरूर महसूस कर लिया है कि वे अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच गए हैं, फिर भी उत्तर व पश्चिम भारत से ज्यादा दूर तक विस्तार करने में सफल नहीं हुए हैं. फिर उनके पास अपने बघेला और खुराना भी हैं.

अपनी साख और ग्रहणयोग्यता बढ़ाने के लिए, जो बाबरी मस्जिद प्रकरण के बाद गोता खा गई थी, भाजपा ने दुतरफा रणनीति अपनाई है. पहले तो वह स्वतंत्रता आंदोलन की विरासत को हड़प लेने की जी-जान से कोशिश कर रही है. इसके जरिए वह खुद को कांग्रेस की गांधी-पटेल परंपरा की एकमात्र वारिस के बतौर पेश कर रही है. उसे उम्मीद है कि इस तरह कांग्रेस के आधार में धावा मारने में ज्यादा आसानी होगी. दूसरे, वह अपनी बनिया-सवर्ण छवि को पोंछ डालने का प्रयास चला रही है. वह उत्तर भारत में दलितों, पिछड़ों व अन्य सामाजिक समुदायों के बीच घुसपैठ करने की जी-तोड़ कोशिश कर ही है. जो पहले चरण सिंह का आधार होते थे. इसके लिए वह समता व बसपा जैसी पार्टियों से रणनीतिक साझीदारी की पैरवी कर रही है. खुद अपने अंदर वह अन्य समुदायों से राज्य-स्तरीय नेतृत्व को सामने ला रही है.

स्वदेशी नारा देकर वह बहुराष्ट्रीय कंपनियों से भारतीय उद्योगपतियों के पक्ष में बेहतर मोलतोल करने का वादा कर रही है और लगातार शुचिता और भय-मुक्त समाज का राग छेड़कर उसने अपनी साख को बुद्धिजीवियों और शहरी मध्यवर्गों के हिस्सों में काफी हद तक सुधार लिया है. लेकिन ठीक जैसे पहले एनरॉन के मुद्दे पर पल्टी खाने के चलते केसरिया स्वदेशी की चमक फीकी पड़ गई थी, वैसे ही उत्तर प्रदेश के मौजूदा राजनीतिक घटनाक्रम के दौरान, जिसमें कल्याण सिंह ने सर्वाधिक निर्लज्जता से विधायकों की, जिनमें अपराधियों की पूरी कतार शामिल है, खरीदारी का सहारा लिया, भाजपा के एक भिन्न किस्म की पार्टी होने के दावे की पोल खोल दी है. वास्तव में कल्याण सिंह का दूसरी बार उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ होना पहले ही दिन से आंख खोल देने वाला महत्वपूर्ण अनुभव साबित हो रहा है. मुख्यमंत्री की गद्दी संभालते ही उन्होंने समय जाया किए बिना अयोध्या के मुद्दे को उछालना शुरू कर दिया, यद्यपि वे खुद अयोध्या में बाबरी मस्जिद विध्वंस के मामले में मुख्य अभियुक्त बने खड़े हैं. जब कल्याण सिंह को पदभार की शपथ दिलाई जा रही थी, तब उत्तर प्रदेश में हमारे कामरेडों ने विधान सभा के सामने सुप्रचारित धरना आयोजित करके समयोचित ढंग से प्रतिवाद की आवाज उठाई थी.

संक्षेप में, भारतीय राज्य-व्यबस्था का दक्षिणपंथ की ओर झुकाव, जो 80 के दशक के अंतिम वर्षों में मौजूद आर्थिक संकट व राजनीतिक उथल-पुथल का परिणाम था, भाजपा में अपनी केंद्रित अभिव्यक्ति पा चुका है. और यह हकीकत है कि पहली बार भारत के आकाश पर केसरिया खतरे के बादल छा गए हैं. इसके पूर्वसंकेत शायद सबसे बेहतर ढंग से उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह के दुबारा मुख्यमंत्री बनने की घटना में देखे जा सकते हैं.

भाजपा के एजेंडा में भारत के पड़ोसियों, खासकर पाकिस्तान के खिलाफ उग्र-राष्ट्रवादी नीति अपनाना, नाभिकीय अस्त्रों की दौड़ में गर्मी लाना, भारत को ऐसा हिंदू राष्ट्र बनाना जहां अल्पसंख्यकों को दोयम दर्जे का नागरिक माना जाएगा, संघीय राज्य-व्यवस्था को क्षतिग्रस्त करना, ग्रामीण गरीवों के आंदोलनों को कुचलने के लिए पाशविक राज्य दमन ढाना और भूस्वामियों की निजी सेनाएं संगठित करना, राष्ट्रीय आत्म निर्णय के आंदोलनों का सेना द्वारा दमन करना तथा बौद्धिक, सौंदर्यशास्त्रीय व शैक्षणिक क्षेत्रों में तमाम किस्म की असहमति को कुचल देना शामिल है. संक्षेप में, भारत में फासिस्ट अधिनायकत्व थोप देना उनके एजेंडा में है.

यह कत्तई नहीं भूलना चाहिए कि देश में व्याप्त अराजकता, संसदीय जनवाद की संस्थाओं की साख का खत्म होना, कांग्रेस का सर्वांगीण रूप से पतन, तथाकथित सामाजिक न्याय के खेमे का विघटन, वामपंथ के विचारधारात्मक मानदंडों का स्खलन और वर्तमान संयुक्त मोर्चा ढांचे की व्यर्थताएं -- इन तमाम चीजों ने भाजपा के लिए मनचाही जगह मुहैया कर दी है. यथार्थ में भारतीय शासक वर्ग-व्यवस्था, अगर पहले न संभव हो तो अगले चुनाव में, भाजपा की ताजपोशी के लिए तैयार खड़ी है.

संयुक्त मोर्चा परिघटना  

राजनीतिक गतिरोध की स्थिति में 13 पार्टियों का संयुक्त मोर्चा बना, और कांग्रेसी समर्थन के बल पर वह शासन में आया. उसे सत्तारूढ़ हुए डेढ़ साल ही रहे हैं. यद्यपि सीपीआई(एम) की केंद्रीय कमेटी ने श्री ज्योति बसु के लिये प्रधानमंत्रित्व के आमंत्रण को अस्वीकार कर दिया, पर संयुक्त मोर्चा सरकार के पहले दौर में हरकिशन सिंह सुरजीत पद से परे प्रधानमंत्री की जिम्मेवारी ओढ़े रहे. फिर कांग्रेस ने नये अध्यक्ष के निर्देशन में अपने आपको सुदृढ़ किया और एक शानदार तख्तपलट के जरिए संयुक्त मोर्चा को प्रधानमंत्री बदलने पर मजबूर कर दिया, और पहलकदमी अपने हाथ में ले ली. रातोंरात कांग्रेस के प्रति संयुक्त मोर्चे के नेताओं की जुबान ही बदल गई. वर्तमान में संयुक्त मोर्चा सरकार किसी योजना के बजाय उसके अभाव द्वारा संचालित हो रही है, और कांग्रेस खुद सिंहासन पर बैठने के लिए अपने अगले मौके का इंतजार कर रही है.

संयुक्त मोर्चे की परिघटना को कई तरह से परिभाषित किया गया है. आइये हम उनकी वैधता की जांच करें.

पहले, यह कहा जा रहा है कि संयुक्त मोर्चा भारतीय राजनीति में गठजोड़ के युग के आगमन का संकेत है. निश्चय ही, भारत की बहुआयामी विविधता अपने आपको पूर्णरूपेण प्रदर्शित कर रही है, तो इससे किसी एक पार्टी द्वारा अपने बलबूते पर बहुमत पाना मुश्किल हो सकता है, और इस मायने में गठजोड़ का युग अब आ ही गया प्रतीत होता है. लेकिन गठजोड़ की ऐसी व्यवस्था, जिसमें दोनों राष्ट्रीय पार्टियां, कांग्रेस और भाजपा, जो कुल मिलाकर संसद की करीब दो-तिहाई सीटों पर काबिज हों, सत्ता से बाहर रहें, नियम नहीं बल्कि अपवाद ही हो सकती है. देर-सबेर दोनों में से एक अपने पिछे सरकार चलाने लायक पर्याप्त समर्थन जुटा ही लेगी.

दूसरे, संयुक्त मोर्चे को राज्य व्यवस्था में अधिकाधिक संघीकरण के आगमन का सूचक बताया जा रहा है, जिससे आंचलिक पार्टियों को केन्द्र सरकार चलाने में ज्यादा प्रभावकारी स्थिति हासिल है. भारतीय राज्य व्यवस्था में आंचलिक पार्टियों की भूमिका, खासकर नई आर्थिक नीतियों के आगमन के बाद, जरूर बढ़ी है. केन्द्रीय नियंत्रणों में ढील देने के जरिये इस नीति ने राज्यों को सीधा-सीधी निजी निवेश को निमंत्रण देने की काफी ज्यादा आजादी दे दी है. राज्यों के मुख्यमंत्री अपने-अपने राज्यों के लिये विदेशी पूंजी को लुभाने के उद्देश्य से पश्चिम की ओर यात्रा की लाइन लगाये हुए हैं. वे निवेशकों को करों में छूट देने के वास्ते आपस में प्रतियोगिता कर रहे हैं.

नवीं योजना (1997-2002) में, सार्वजनिक क्षेत्र में निवेश घटाकर पहले का महज 36 प्रतिशत रखा गया है और माना गया है कि उसका मुख्य भाग निजी कारपोरेट क्षेत्र से आयेगा. निजी क्षेत्र द्वारा निवेश का कोटा अगर हकीकतन पूरा भी हो जाये, तो उस निवेश के लाभजनक हिस्सों व क्षेत्रों में लगने की संभवना ही ज्यादा है. इससे राज्यों के बीच असंतुलन अनिवार्यतः और तीखा होगा.

ताकतवर आंचलिक शक्तियां अपन-अपने राज्यों में उप-राष्ट्रीय समुदायों द्वारा राज्य का दर्जा अथवा स्वायत्त शासन हासिल करने के लिये उटई गई मांगों को मानने के लिये बिल्कुल ही तैयार नहीं हैं. अधिकांश मामलों में आंचलिक शक्ति-समूह भूस्वामी-कुलक समुदायों पर निर्णायक रूप से निर्भर हैं और इसीलिये वे भूमि सुधार लागू करने में कोई रुचि नहीं दिखलाते.

इसीलिये भारतीय संदर्भ में संघवाद निरपेक्ष मायनों में जनवादी सुधार करने के मामले में उतना प्रभावशाली नहीं है. इसके अलावा, शक्तिशाली और दुर्बल राज्यों के लिये संघवाद का परिप्रेक्ष भी अलग-अलग है. यदि पंजाब में अलग खालिस्तान की मांग उभरी, अथवा यदि अकाली ही मांग करते हैं कि मुद्रा, विदेश विभाग, रक्षा और संचार के चार विभागों को छोड़कर अन्य तमाम शक्तियां राज्यों के हाथों सौंप दी जायं, तो यह समृद्धि के बल पर देश से अलग होने की ही घटना होगी. वहीं, असम के मामले में दिल्ली के शासकों द्वारा दिखाई गई उपेक्षा के फलस्वरूप ऐसी मांगें उभरती हैं.

तीसरे, संयुक्त मोर्चा को भाजपा-विरोधी, गैर-कंग्रेस मोर्चे के बतौर, मजदूरों-किसानों तथा प्रगतिशील/अग्रगामी पूंजीपति वर्ग के संयुक्त मोर्चे के बतौर पेश किया जाता है, जो सर्वहारा प्रभूत्व के विकास की प्रक्रिया में, समय होने पर जनता के जनवादी मोर्चे में रूपांतरित हो जायेगा. इसको वामपंथी एवं गांधीवादी परम्पराओं के सर्वोत्तम तत्वों की एकता के बतौर भी चिन्हित किया जाता है. ये विचार और किसी के द्वारा नहीं, खुद कामरेड नम्बूदिरीपाद  द्वारा सीपीआई(एम) के आधिकारिक मुखपत्र में पेश किये गये थे. ये विचार संयुक्त मोर्चे के शुरूआती दौर में आये थे, जब सीपीआई(एम) नेतृत्व बड़ी महेनत-मशक्कत से यह मिथक फैला रहाथा कि न्यूनतम साझा कार्यक्रम में राव सरकार की नई आर्थिक नीति को ठुकरा दिया गया है, और कांग्रेस ने अपना समर्थन बिलाशर्त, मजबूरी में दिया है.

तब से यमुना में काफी पानी बह चुका है. कांग्रेस ने पहलकदमी छीन ली है और अब वह संयुक्त मोर्चा सरकार पर पहले से कहीं ज्यादा असर रखती है. दूसरी ओर, सीपीआई(एम) खुद को हाशिये पर फेंका गया महसूस कर रही है और अपने बयानों में ज्यादा आलोचनात्मक हो गई है. विडम्बना यह है कि अब यह सीपीआई(एम) की मजबूरी हो गई है कि वह संयुक्त मोर्चा में बनी रहे.

यह तो मालूम नहीं कि सीपीआई(एम) नेतृत्व किस तरह अपने पिछले सूत्रीकरण की सत्यता को परखता है, मगर जो भी कहा जाये, संयुक्त मोर्चे को जनता के जनवादी मोर्चे में रूपांतरित करने की उसकी उम्मीद चकनाचूर हो गई है और अब वह महज राजनीतिक अनिवार्यता का सवाल रह गया है.

जोड़-तोड़ और पक्ष-परिवर्तन

भारतीय राजनीति के सबसे दूरन्देश पूंजीपति दृष्टा वीपी सिंह ने दो महत्वपूर्ण प्रेक्षण किये हैं. पहला, तमाम प्रमुख राजनीतिक पार्टियों के बीच नई आर्थिक नीति पर एक राष्ट्रीय सहमति बन गई है; और दूसरा, संयुक्त मोर्चा और कांग्रेस के बीच सहयोग के एक नये दौर की शुरूआत हो चुकी है. वे एकदम सही कह रहे हैं.  

व्यावहारिक राजनीति के दायरे में इस प्रस्थापना को लाने के लिये वे एक नुस्खा पेश करते हैं, जिसमें विभिन्न राज्यों में संयुक्त मोर्चे के साझीदारों, कांग्रेस तथा व्यापक रूप से सामाजिक न्याय के खेमे में मौजूद अन्य शक्तियों के बीच, शासक एवं विरोधी, दोनों पक्षों की साझीदारी रहेगी.  

इस तर्क में बुनियादी भ्रांति है कि यह लगातार चल रहे परस्पर-संघातों को, और परिणामतः भाजपा-विरोधी व्यापक वर्णक्रम का निर्माण करने वाली विभिन्न पार्टियों की शक्तियों में होने वाले आपेक्षित परिवर्तनों को दरकिनार कर देता है. यह तर्क इस पूर्वानुमान पर आधारित है कि कांग्रेस केन्द्रीय शासन में स्थायी तौर पर गौण भूमिका निभाती रहेगी. कांग्रेस, जो अब भी एक प्रमुख राष्ट्रीय पार्टी है, अपनी वर्तमान स्थिति से कत्तई संतुष्ट नहीं रह सकती. भाजपा और सीपीआई(एम) दोनों का विरोध करने के अपने एजेंडा को सुस्पष्ट तौर पर जाहिर कर देने के जरिये वह संयुक्त मोर्चे की खाट खड़ी करने के लिये मध्यपंथी खेमे पर अपना जोर लगाये हुए है. उसने राष्ट्रीय जनता दल से अच्छा रिश्ता बना ही लिया है, मुलायम के साथ समीकरण बैठा रही है और तमिल मानिल कांग्रेस एवं द्रमुक को रास्ते पर लाने के लिये पूरी मेहनत से काम कर रही है. संयुक्त मोर्चे को कांग्रेस की आलोचना को नरम कर देने पर मजबूर करने के बाद, अब वह धर्मनिरपेक्षता और भ्रष्टाचार के मुद्दों पर अपनी छवि सुधारने, अपने से दूर हुए मुस्लिम समुदाय को जीत लेने तथा अगले चुनाव तक एक भाजपा-विरोधी गठजोड़ के शीर्ष नेतृत्व पर पहुंच जाने की उम्मीद रखती है.

भाजपा-विरोधी, कांग्रेस-विरोधी धारणा को तो पहले ही नरम करके भाजपा-विरोधी, गैर कांग्रेसी धारणा तक लाया जा चुका है. फिर, संयुक्त मोर्चे के कुछेक खास घटकों ने तो इसे और भी हल्का करके भाजपा-विरोधी, कांग्रेसपरस्त धारणा में बदल दिया है. मगर हमारा दृढ़ विचार यही है कि कांग्रेस और भाजपा दोनों शासक वर्गों की मुख्य अखिल भारतीय पार्टियां हैं, हमें इन दोनों को अपना मुख्य दुश्मन मानना होगा और अपनी भाजपा-विरोधी, कांग्रेस-विरोधी दिशा पर डटे रहना होगा.