(31 जनवरी 1997 को बिहार इकोनामिक एसोसिएशन, अर्थशास्त्र विभाग, पटना द्वारा ‘बिहार में अविकास का राजनीतिक अर्थशास्त्र’ विषय पर आयोजित सेमिनार में दिया गया भाषण; समकालीन लोकयुद्ध, 1-15 मार्च 1997 से)

देवियो और सज्जनो,

मुझसे पहले दक्षिणपंथ के प्रतिनिधि भाजपा के श्री सिंह ने इस विषय पर अपने विचार पेश किए हैं. संभवतः मैं यहां वामपंथ का अकेला प्रतिनिधि हूं. अब दक्षिणपंथ दक्षिणपंथ है और वामपंथ वामपंथ. मगर अर्थशास्त्र में अक्सर वामपंथ ही सही साबित होता है.

मुझसे बिहार के अविकास के राजनीतिक अर्थशास्त्र पर बोलने के लिए कहा गया है. बिहार अविकसित है. इसपर कोई विवाद नहीं है. भारत में कई ऐसे राज्य और क्षेत्र हैं, जो अविकसित हैं मगर बिहार के अविकास में ऐसी खास बात कौन सी है?

स्वतंत्रता की पूर्ववेला में प्रति व्यक्ति आमदनी के लिहाज से बिहार भारत के तमाम राज्यों में सबसे नीचे था, यद्यपि उस समय देश का आठ फीसदी खाद्यान्न यहीं पैदा होता था; औद्योगिक उत्पादन के लिहाज से बिहार का स्थान चौथा था और कोयेला व इस्पात का वह सबसे बड़ा उत्पादक था.

अब, भारत की आजादी के 50 वर्ष बाद, बिहार आज भी प्रति व्यक्ति आमदनी के मामले में सबसे नीचे है; यहां की औसत आमदनी कोई 10 रु. प्रतिदिन है. जो एक अन्य कृषि प्रधान राज्य पंजाब का महज एक तिहाई है. और यदि इसी सम्मेलन में परसों डा. जी. एस. भल्ला द्वारा पेश किए गए आंकड़ों पर यकीन किया जाए, तो बिहार भारत का एकमात्र वह राज्य है जहां पिछले कई वर्षों के दौरान प्रति व्यक्ति आय वास्तव में घट गई है.

बिहार के विकास का यह चिरस्थायी पिछड़ापन या कहिए बिहार की विकासहीन स्थिति का इतना लंबा खिंचते जाना गहरे अध्ययन की मांग करता है. बिहार एक मकड़जाल में – गरीबी के मकड़जाल में फंस गया है, एक दुष्चक्र में फंस गया है और उससे निकल पाना कोई आसान काम नहीं लगता.

अक्सर यहां आशाएं जगाने वाले दौर भी आए हैं, जैसे 1950 दशक में, जब अर्थतंत्र का विकास काफी संतोषजनक ढंग से हुआ और ठीक वैसे ही 1970 के दशक के अंतिम भाग से लेकर 1980 के दशक के मध्य तक, जब खाद्यान्न के कुल उत्पादन में वृद्धि हुई और राष्ट्रीय उत्पादन में कृषि का हिस्सा करीब 27 प्रतिशत बढ़ा.

आंकड़े दिखाते हैं कि 1990 के दशक में भी खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि की रफ्तार ऊंची रही तथा उन्नत बीज (एचआइवी) के तहत लाई गई कृषि के क्षेत्र में भी इजाफा हुआ. प्रति हेक्टर खाद का इस्तेमाल भी 1989 में 54.14 किग्रा. से बढ़कर 1994-95 में 64.51 किग्रा. हो गया. घरेलू क्षेत्र में होनेवाली बचत में भी काफी बढ़त हुई है, जो जेवीजी जैसी गैर-बैंकिंग वित्तीय संस्थानों के आश्चर्यजनक विस्तार से जाहिर है. ये ऐसे संस्थान हैं जिनके व्यवसाय का मुख्य आधार बिहार है. 1990 के दशक में सामाजिक न्याय की सरकार के सत्तारूढ़ होने से खासतौर पर आशाएं जगी तीं, क्योंकि जातीय तथा वर्गीय रूप से इस सरकार को मध्यवर्ती जातियों का, जिनका मुख्य हिस्सा किसान है, समर्थन प्राप्त था.

अब, करीब सात वर्षों तक सत्ता में रहने के बाद वही सरकार देश के सबसे बड़े घोटाले में फंसी लड़खड़ा रही है. बिहार राजनीतिक अस्थिरता के एक नए दौर में पहुंच चुका है, घूम-फिरकर फिर वहीं पहुंच गया है जहां से आजाद भारत के एक राज्य के बतौर इसने अपनी यात्रा शुरू की थी.

बेशक बिहार के इस अविकास के लिए जनसंख्या-संबंधी एवं तकनीकी पहलू भी जिम्मेदार रहे हैं. केरल के बाद भारत में उत्तर बिहार ही सर्वाधिक सघन आबादी वाला क्षेत्र है, मगर इस समूचे क्षेत्र में कोई भी खनिज संसाधन मौजूद नहीं है. इसके अलावा, यह इलाका बाढ़ से त्रस्त रहता है. फिर ईंधन के बतौर अब तेल व प्राकृतिक गैस ने कोयले की जगह ले ली है और माइका की जगह फाइबर ऑप्टिक्स आ गया है. इन्हीं कारणों से छोटा नागपुर की अनुकूल स्थिति का महत्व भी काफी घट गया है. फिर भी बिहार के अविकास के लिए ये पहलू मुख्यतः जिम्मेदार नहीं ठहराए जा सकते.

इस चिरस्थायी पिछड़ेपन का एक मुख्य पहलू बाहरी तत्व है – राष्ट्रीय अर्थतंत्र के बरक्स बिहार के अर्थतंत्र का दर्जा. कुछेक लोगों ने इसके साथ विश्व स्तर पर उत्तर-दक्षिण के विभाजन से आश्चर्यजनक समानता देखी है, जिस विभाजन में दक्षिण का अविकास उत्तर के विकास से घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ है; एक दूसरे की शर्त है. भारत के चन्द विकसित राज्यों की तुलना में बिहार का मामला ऐसा ही है. कई अर्थशास्त्रियों और समाजशास्त्रीयों ने बिहार को आंतरिक उपनिवेश बताया है. कृषि व उद्योग में विकसित राज्यों को बिहार कच्चे माल व सस्ते श्रम की आपूर्ति करता रहा है. कोयला व इस्पात उत्पादों के लिए समान मूल्य नीति ने छोटा नागपुर औद्योगिक क्षेत्र से स्थितिजन्य सुविधा ही छीन ली है.

फिर गाडगिल फारमूला आने से पहले, योजना खाते में राज्यों को उपलब्ध होनेवाली राशियां बिहार व उत्तरप्रदेश जैसे भारी जनसंख्या वाले राज्यों के प्रतिकूल थीं. उसके बाद भी, सप्तम योजना में बिहार के लिए योजना व्यय राशि 622 करोड़ रुपये थी जो कि राष्ट्रीय औसत 920 करोड़ रुपये से कहीं कम थी. सार्वजनिक और निजी – दोनों स्रोतों से हुआ प्रति व्यक्ति निवेश पिछले करीब 30 वर्षों के दौरान (1980 के दशक समेत) अन्य राज्यों की तुलना में काफी कम रहा है. यहां बचत का अच्छा-खासा हिस्सा बाहर चला जाता है. यहां तक कि यूटीआइ, एसआइसी, जीआइसी जैसे आइडीबीआइ ग्रुपों के जरिए किया जानेवाला दीर्घकालीन संस्थागत निवेश भी बिहार में सबसे कम है. भूमंडलीकरण और उदारीकरण के इस दौर में भी बिहार में निवेश की स्थिति दयनीय ही बनी रही : अगस्त 1991 से लेकर मई 1996 तक विदेशी पूंजी निवेश का महज 14 फीसदी बिहार को मिला है और केन्द्रीय योजना व्यय में तो अब जोर गरीबी उन्मूलन और कल्याणकारी योजनाओं पर चला गया है, जिनमें पूंजी निर्माण का अंश बहुत थोड़ा होता है.

यद्यपि केन्द्र में एक संघीय सरकार मौजूद है, जिसके मुख्य दल की सरकार बिहार में भी सत्तारूढ़ है, लेकिन बिहार को वरीयता देने के मामले में कोई जोशखरोश नहीं दिखता. इसके विपरीत, यह सरकार उन्नत राज्यों की शक्तिशाली लॉबियों के दबाव व खींचतान पर घुटने टेकते दिखती है.

जले पर नमक छिड़कने वाली बात यह है कि अनुभूति-शून्य प्रशासन के चलते बिहार योजना खाते में मिली धन राशि का आधा भी बमुश्किल खर्च कर पाता है.

इस तरह चिरस्थायी पिछड़ापन अथवा आन्तरिक उपनिवेश की यह स्थिति, केवल केन्द्र से मिलने वाली धनराशि बढ़ा देने अथवा विदेशी पूंजी के लिए आंखें बिछाने से टूटने वाली नहीं है. आंचलिकतावाद का मुद्दा उठाना राजनीति के लिहाज से फायदेमंद हो सकता है, मगर अर्थतंत्र के लिहाज से यकीनन नुकसानदेह है.

इस दुष्चक्र को तोड़ने का आवेग भीतर से पैदा हो सकता है, व्यापक आंतरिक संसाधनों को जन्म देने से पैदा हो सकता है. इस प्रकार हम बिहार के अविकास के दूसरे पहलू, यानी बिहार के अर्थतंत्र की आंतरिक गति के सवाल पर पहुंच जाते हैं.

सर्वप्रथम, भूमि सुधार जरूरी है. उद्यमी छोटे फार्मरों को भूमि प्रदान करने के लिए भूमि कि आमूल पुनर्वितरण आवश्यक है. छोटे और सीमान्त किसानों के छोटे भूखण्डों को आर्थिक रूप से लाभजनक बनाने के लिए उन्हें संस्थागत समर्थन देना होगा.

आमूल भूमि सुधार लागू करने  के लिए राजनीतिक वर्ग को किसी भी हद तक जाने के तैयार होना होगा. यहां तक कि समूची भूमि के राष्ट्रीयकरण और लीज के आधार पर उसे उद्यमी छोटे फार्मरों के बीच पुनर्वितरित करने की हद तक. उतना ही जरूरी यह है कि छोटे या बड़े सभी किस्म के फार्मरों के यहां काम करने वाली खेत मजदूरों को न्यूनतम वेतन मिलने की गारंटी की जाए.

दूसरे, ग्रामीण और अर्द्ध ग्रामीण क्षेत्र में होने वाली बचत को राज्य सरकार की एजेंसियों के जरिए जमा किया जाना चाहिए और उसे फार्मों में निवेश करने तथा आधारभूत ढांचे के निर्माण व सामाजिक सेवा क्षेत्र का सुधार करने में नियोजित करना चाहिए.

तीसरे, व्यवसायिक बैंकों पर दबाव डाला जाना चाहिए कि वे अपने ऋण-जमा अनुपात में सुधार करें और सावधि ऋण देने वाली संस्थाओं – एलआइसी, जीआइसी, यूटीआइ जैसे आइडीबीआइ ग्रुपों – पर दबाव डाला जाए कि वे अधिक मात्रा में निवेश करें.

चौथे, केन्द्र पर दबाव डाला जाए कि वह बिहार में पिछड़ेपन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के मद्देनजर उसे विकास में वरीयता दे.

केवल आंतरिक रूप से समर्थ होने पर ही औद्योगिक विकास के लिए देशी या विदेशी पूंजी को आकर्षित करने के उपाय सार्थक हो सकते हैं.

भारत का निजाम बिहार में आम आदमी की दुर्गति पर ज्यादा फिक्रमंद नहीं है. फलते-फूलते उपभोक्तावाद के चलते वे बिहार में सबसे बड़ी तादाद में मारुति व महंगी विदेशी कारें बेच सकते हैं. लुई फिलिप और मॉन्टे कार्लो जैसे बेशकीमती ब्रांड के विदेशी कपड़ों की सबसे ज्यादा बिक्री पटना में होती है. बिहार में होनेवाली बचत का बड़े पैमाने पर प्रवाह जेवीजी जैसे तेजी से बढ़ते साम्राज्य की ओर हो जाता है. बिहार के सर्वोत्तम मस्तिष्कों का प्रवाह जेएनयू दिल्ली विश्वविद्यालय की ओर होता है.

इस दुष्चक्र को तोड़ने का बीड़ा उठाना बिहार के आम आदमी और उस बैद्धिक वर्ग का काम है, जो इस बात से बेचैन है कि बिहार की आधी से अधिक आबादी भूखे पेट सो जाती है. इस काम को पूरा करने की उम्मीद आप ऐसे राजनीतिक वर्ग से नहीं कर सकते जो भ्रष्टाचार में गले तक डूबा हुआ हो; न तो ऐसी नौकरशाही से इसे पूरा करने की उम्मीद की जा सकती है जो सामंती शक्तियों से गहरे ताल्लुकात रखती हो. ऐसा राजनीतिक नेतृत्व जो भ्रष्टाचार से अछूता हो, जिसके पास बिहार के विकास के बारे में उन्नत दृष्टि हो, जो कुलीन वर्ग के गुटीय-जातीय झगड़े से ऊपर हो, जो जमीनी स्तर पर जन पहलकदमी से जुड़ा हो, वही बिहार में गरीबी के इस मकड़जाल को तोड़ सकता है.

या तो आप इसका कोई आमूल समाधान करेंगे, या फिर यह पिछड़ापन चिरस्थाई रहेगा; बीच का कोई रास्ता नहीं है. बिहार में उग्रवाद के बढ़ने पर चीख-पुकार मचाने से कोई फायदा नहीं है. इतिहास मे, चरम स्थितियां चरम समाधानों की ही मांग करती हैं.

संकट जब विकराल हो जाता है, महाभारत तब अनिवार्य हो उठता है.