(12 सितंबर 1994 को बिहार प्रदेश किसान सभा द्वारा आयोजित बिहार विकास सम्मेलन में भाषण;
समकालीन लोकयुद्ध, 30 सितंबर 1994 से प्रमुख अंश)

बिहार के विकास के सिलसिले में सिर्फ जड़ता है, इतना ही कहना काफी नहीं है; वस्तुस्थिति यह है कि बिहार पीछे की ओर जा रहा है. यह बिहार की एक खास विशिष्टता है. यहां जो राजकीय क्षेत्र में बड़े-बड़े कारखानों थे, वे क्रमशः बीमार उद्योगों में परिणत हो रहे हैं, अर्थात् पुरानी आर्थिक नीति के आधार पर राजकीय क्षेत्र में जो बड़े-बड़े कारखाने बने थे, वे बीमार होते चले जा रहे हैं. और दूसरी तरफ नई आर्थिक नीतियों के आधार पर जो पूंजी-विनियोग दूसरे राज्यों में या और जगह हो रहा है तो उस सिलसिले में भी बिहार में कहीं कुछ नहीं दिखाई दे रहा है. पुरानी हो या नई, दोनों ही आर्थिक नीतियों का परिणाम रहा है कि दोनों तरफ एक शून्य ही बिहार के पल्ले पड़ा नजर आ रहा है. यहां जो राज्य सरकार के कारपोरेशंस है – वह बिजली क्षेत्र हो या ट्रांसपोर्ट हो – सबकी हालत आप देख रहे हैं कि वे बड़े पैमाने पर घाटे वाली संस्थाओं में बदल चुके हैं. पूरे भारत के हिसाब से देखें तो सबसे कम प्रति व्यक्ति आय वाला राज्य बिहार है, और गरीबी रेखा के नीचे रहनेवालों का प्रतिशत भी बिहार में सबसे ज्यादा है और यह बढ़ता चला जा रहा है.

दूसरा पहलू यह है कि यहां की जो सरकार है, जो राज्य है, वह कोयले की रायल्टी हो या अन्य खनिज पदार्थों का सेस हो, केन्द्र सरकार की ओर से आनोवाला कुछ अनुदान हो या विश्व बैंक की तरफ से आनेवाला कुछ पैसा हो, या कर्मचारियों की, शिक्षकों की तनख्वाह न देकर और यहां तक कि प्राविडेन्ट फंड और अन्य तमाम जो उनके पैसे जमा थे – उन सबके आधार पर ये सरकार चल रही है. यानी, इस राज्य में किसी घरेलू पूंजी का निर्माण नहीं हो रहा है. बल्कि यहां-वहां से आनेवाले अनुदान या यहां-वहां के पैसों को खर्च करके यह सरकार चल रही है. पूरी तरह से एक परजीवी संस्कृति यहां विकसित हो रही है.

जो तीसरी विशिष्टता इस राज्य की हम देखते हैं, वह यह कि यहां का जो राजनीतिक नेतृत्व है, वह फिलहाल उन लोगों के हाथों में है जिनके पास बिहार के विकास की आर्थिक दृष्टि बिलकुल नदारद है. राजनीति अर्थनीति का ही प्रतिफलन हुआ करती है. इसलिए, जिसे हम राजनीति का अपराधीकरण कहते हैं, वस्तुतः वह यहां की आर्थिक प्रक्रिया के ही अपराधीकरण का प्रतिफलन है. राजनीति का अपराधीकरण तो उसका ऊपर से दिखनेवाला चेहरा है. अगर आप गहराई में जाएं तो आप देखेंगे कि जो आर्थिक प्रक्रिया यहां पर है, अपराधीकरण उसी में मौजूद है. उत्पादन की स्वाभाविक प्रक्रिया के जरिए धन इकट्ठा किया जाए, पूंजी इकट्ठा की जाए, उसका विनियोग हो – यह प्रक्रिया यहां नहीं दिखती है. बल्कि यहां लूट-खसोट, तमाम किस्म की रंगदारी, सरकारी खजाने की लूट वगैरह के जरिए आर्थिक समृद्धि हासिल की जाती है. इसलिए पूरी आर्थिक प्रक्रिया में ही जो अपराधीकरण है, उसी की छाप राजनीति पर पड़ती है. यहां जगन्नाथ मिश्र से ले कर लालू यादव तक का जो परिवर्तन हुआ है, कुल मिलाकर वह परिवर्तन अगड़ी जाति के अपराधी तत्वों से पिछड़ी जाति के अपराधी तत्वों के बोलबाले में ही जाकर सिमट गया है. यहां तक कि झारखंडी लोगों के बीच से भी जो आदिवासी नेता उभरे हैं उनके अंदर भी अच्छी-खासी संख्या में माफिया तत्व पैदा हो गये हैं, जो तमाम तरीकों से पैसा हड़प रहे हैं और अपनी पूंजी बना रहे हैं. यह प्रक्रिया चारों तरफ जारी है और यहां तक कि जो राजनीतिज्ञ हैं, वे भी अपने आप में एक किस्म का वर्ग बन गए हैं. जमींदारों के, कुलाकों के, तमाम किस्म के अपराधियों के पहाड़ बिहार की जनता पर पहले से ही लदे हुए हैं. और अब राजनीतिज्ञों का पूरा का पूरा वर्ग, एक और पहाड़, बिहार की जनता पर बोझ की तरह लद गया है. यहां आर्थिक प्रक्रिया के विकास की बजाए सारा झगड़ा इस बात को लेकर है कि सरकारी नौकरियां किसको ज्यादा मिलेंगी, कौन उन्हों ज्यादा हड़पेगा – यहां सारी राजनीति इसी के इर्द-गिर्द घूमती है और इसका कारण सिर्फ यह है कि सरकारी नौकरियों में हिस्सा पाकर लूट-खसोट का बाजार और गर्म बनाया जाए.

बिहार की त्रासदी की जो चौथी विशिष्टता है, वह यह कि यहां की लोकतांत्रिक व्यवस्था का सम्पूर्ण पतन हो चुका है. बिहार के चुनाव सर्वाधिक हिंसक होते हैं और पंचायत या इस किस्म की तमाम संस्थाओं के चुनाव ही यहां नदारद हैं. 1978 में आखिरी  पंचायत चुनाव हुआ था और उसमें दो हजार लोग मारे गए थे. उसके बाद से न तो पंचायतों का चुनाव हो रहा है, न म्युनिसिपैलिटी का. पूरी की पूरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया ही यहां सिरे से गायब है.

बिहार की त्रासदी का पांचवां रूप अगर आप देखें तो हिंसा यहां अपने सबसे उग्रतम रूपों में आती है. बड़े पैमाने पर नरसंहार यहां होते हैं. दो-चार-पांच लोगों का मरना यहां कोई समाचार ही नहीं रह गया है. जब तक 20-30-50-60 लोग न मारे जाएं, तबतक उसका कोई महत्व ही नहीं होता है, मनुष्य के जीवन का मूल्य यहां इतना सस्ता हो गया है.

और बिहार की त्रासदी की जो छठी विशिष्टता मेरी नजर में है, वह यह कि यहां के सांस्कृतिक मूल्यों का बड़ी तेजी से पतन हुआ है. सत्ता की चापलूसी करना, चाटुकारिता करना और यहां का जो राजनीतिक नेतृत्व है वह राजतंत्र या राजा के रूप में, कृष्णावतार के रूप में अपने आपको दिखाता है. फिर शिक्षा के क्षेत्र में, जो किसी भी देश-समाज की रीढ़ होती है, उसमें अराजकता छाई हुई है. इस तरह से आप देखते हैं कि बिहार में तमाम सांस्कृतिक मूल्यों का बड़ी तेजी से अधःपतन हुआ है.

बिहार के कृषि उत्पादन में जो ठहराव है, जो जड़ता है, वही इस सारे के सारे पतन के लिए मुख्य रूप से जिम्मेवार है. बिहार में एक एकड़ जमीन पर औसत भारत की तुलना में 70%ज्यादा किसान, 120% ज्यादा खेतमजदूर और 60% ज्यादा पशुशक्ति का इस्तेमाल होता है. फिर भी एक एकड़ का उत्पादन भारत के औसत उत्पादन से कम होता है. कृषि उत्पादन में यह जो एक ठहराव है, जड़ता है, रुकावट है – ये सारे बिहार के पिछड़ेपन की जड़ है. इसपर जब और गहराई से हम देखते हैं, तब हम पाते हैं कि बिहार की कृषि मूलतः अपनी खपत के लिए होती है, सब्सिस्टेंस फार्मिंग जिसे कहा जाता है. बाजार के लिए नहीं, बल्कि खुद अपने घरेलू खर्च के लिए ही, कृषि का बहुत बड़ा हिस्सा आज भी चल रहा है.

तो ऐसा क्यों है? कृषि उत्पादन में इतना ठहराव, इतनी गिरावट, इतनी कमी क्यों है? जब हम इसकी जांच-पड़ताल करते हैं तो पाते हैं कि मूल समस्या भूमि सुधार की है, जो आज भी बिहार में अधूरी है. लालू याहव जब सत्ता में आए, तो उन्होंने शुरू-शुरू में यह बात कही थी कि बिहार में 85 ऐसे परिवार है, जिनके पास 500 एकड़ से ज्यादा जमीन है और हम उनके नामों की घोषणा करेंगे. उन्होंने यहां तक धमकी दी थी कि हम इन तमाम लोगों के खिलाफ कार्रवाई करेंगे और जरूरत पड़ी तो जमीन का राष्ट्रीयकरण भी करेंगे. उन्होंने बटाईदारों की रिकार्डिंग कराने की बात कही थी और एक सर्कुलर भी राज्य सरकार की ओर से इस सवाल पर निकला था. लेकिन जब उन्होंने ये बातें कहनी शुरू कीं, तो बिहार के दूसरे महारथी जगन्नाथ मिश्रा की ओर से प्रतिक्रिया आई. पहली बात उन्होंने कही कि इतनी रिकार्डिंग करवाने में कई हजार करोड़ रुपये, शायद चार हजार करोड़ रुपये का खर्च आएगा. और दूसरी बात ये कि इतना कुछ करने से बहुत बड़ा सामाजिक तनाव पैदा होगा. कुछ दिनों बाद हमने देखा कि धीरे-धीरे लालू जी ने ये बातें भी कहनी छोड़ दीं, जो सर्कुलर गया था उसे वापस ले लिया. एक ऐतिहासिक समझौता हो गया लालू और जगन्नाथ मिश्रा के बीच, जनता दल और कांग्रेस के बीच या आप कहिए कि अगड़ी जाति और पिछड़ी जाति के कुलक हिस्सों के बीच एक समझौता हो गया कि जमीन के बुनियादी सवालों पर हम झगड़ा नहीं करेंगे, झगड़ा करना है तो सरकारी नौकरियों में आरक्षण के सवाल पर ही अपने झगड़े को सीमति रखो. लेकिन जमीन के बुनियादी सवाल पर झगड़ा करने से फायदा नहीं होगा. इससे एक सामाजिक तनाव पैदा होगा जिसका फायदा क्रांतिकारी ताकतें उठा  सकती हैं. इसलिए हम दोनों का भला इसी में है. हम दोनों ही समाज के क्रीमी लेयर के प्रतिनिधि हैं और हमारा भला इसी में है कि बुनियादी ढांचे को न छुआ जाए. हमने देखा कि यह समझौता हुआ और लालू यादव, जिन्होंने बड़ी-बड़ी घोषणाएं की थीं, अपने पूरे पांच साल के कार्यकाल में एक भी कदम नहीं उठाया.

एक विचार है कुछ बुद्धिजीवियों का कि बिहार में भूमिसुधार की अब कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि जो भी भूमिसुधार होना था, वह अब करीब-करीब हो ही गया है. अगड़ों में जो रैयत थे और पिछड़ों का, मध्यवर्ती जातियों का भी जो एक हिस्सा था, जमींदारी प्रथा खत्म हुई और उसके बाद जमीन की मिल्कियत भी इन्हें मिल ही गई है और एक स्तर का भूमि सुधार हो  ही चुका है. इसलिए भूमि सुधार बिहार में अब कोई मुख्य बात नहीं है, कोई बड़ा एजेंडा नहीं है. और अब लालू यादव की सरकार के संदर्भ में वे बुद्धिजीवी कहते हैं कि ‘किसान राज’ आ गया है. इसीलिए अब भूमि सुधार वगैरह की बातें करना बेमानी है, इसकी कोई जरूरत नहीं है. और ये बात आई कि भूमि सुधार के एजेंडे को एक बचे-खुचे इधर-उधर कुछ छोटे-मोटे एजेंडे के तौर पर ही ले सकते हैं. जिस बात की जरूरत है वह यह कि लोगों में वह जो इंटरप्राइजिंग इनिशिएटिव होता है, उद्यमिता होती है, तो लोग निवेश का काम करें, खेती बढ़ाएं, बढ़िया से काम करें. ये सब उनको शिक्षित करना होगा. बिहारी नौजवान ‘बाबू’ बनने के बजाय पूंजी लगाएं, उद्योग खोलें और उनका कहना था कि ये सब किसी वर्ग की बात नहीं है, यह मनुष्य का गुण है, मानवीय गुणों को बढ़ाने की जरूरत है. ट्रेनिंग के जरिए, शिक्षा के जरिए ये किया जाए. खेती में सिर्फ चावल-गेहूं पैदा करने के बजाय आलू पैदा किया जाए, उसे बेचा जाए और मछली का उत्पादन किया जाए, वगैरह, वगैरह. इस ढंग से अब बिहार को आगे बढ़ना है और भूमि सुधार वगैरह की बात करना बेमानी है. इस तरह के विचार भी आते रहते हैं. मैं कहूगां कि इस तरह के विचार चाहे कितने भी वामपंथी रूप में क्यों न आएं, ये विचार गलत है. क्योंकि आप देखेगें कि यहां की जो यथास्थितिवादी ताकतें हैं – वह कांग्रेस हो, जनता दल हो – वह भी यही बात घुमा-फिरा कर कहती हैं कि अब बिहार में भूमि सुधार की आवश्यकता नहीं रह गई है, बिहार में सिर्फ अगर खेती-बाड़ी में नए-नए तरीकों को लेकर चला जाए और नौकरशाही को जनता के पक्ष में थोड़ी और ट्रेनिंग दी जाए तो शायद बिहार की समस्याएं हल हो जा सकती हैं तो हम समझते हैं कि कहीं न कहीं यथास्थितिवादी ताकतों, सरकारी ताकतों के ही पक्ष में ये सारे तर्क चले जाते हैं.

हम अगर इतिहास देखते हैं तो पाते हैं कि 1973 में बिहार में भूमि सुधार पर एक सेमिनार हुआ था, जिसमें जयप्रकाश जी थे, बिहार के मुख्यमंत्री थे, और भारत के तमाम नामी-गिरामी बुद्धिजीवी उपस्थित थे. उसमें तमाम चीजों पर विचार हुआ और उसमें कुछ सुझाव, कुछ बातें लाई गई थीं कि क्या-क्या करना चाहिए, खासकर, बिहार सरकार को. उसमें पहली बात आई थी कि जमीन के रिकार्ड ठीक नहीं हैं, सही नहीं हैं, उनको ठीक करने की जरूरत है. खासकर जो बटाईदार हैं, उनकी पूरी रिकार्डिंग बननी चाहिए. दूसरी बात आई थी कि बटाईदारी में सुधार होनी चाहिए ताकि बटाईदार ही अपने-अपने खेतों के मालिक बने. इसके लिए जरूरत हो तो खेत के मालिकों को थोड़ा-बहुत मुआवजा भी दिया जा सकता है. मुआवजा के लिए सरकार बटाईदारों को लोन दे, और इसको वे धीरे-धीरे किस्तों में अदा कर दें. लेकिन इस लक्ष्य की ओर बढ़ना है, पहले उनकी बटाई को सुरक्षित किया जाए और फिर क्रमशः धीरे-धीरे ऐसी स्थितियां पैदा की जाएं कि बिहार में सिर्फ ऐसे ही किसान रहें जो खुद अपनी जमीन के मालिक हों और धीरे-धीरे बटाईदारी-प्रथा का ही सफाया कर दिया जाए. ये बटाईदार लोग बेहतर ढंग से खेती कर सकें या गांव के जोतदारों का जो कर्ज उनपर रहता है, उससे वे मुक्त हो सके, इसलिए ये बात भी आई थी कि बैंकों के जरिए या इस किस्म की अन्य संस्थाओं के जरिए सरकार सस्ते ब्याज पर उन्हें ऋण भी मुहैया करे. इस तरह के प्रस्ताव उसमें थे. और तीसरी बात उसमें थी कि सीलिंग के नियम को और बढ़िया बनाया जाए तथा उनपर अच्छी तरह से अमल किया जाए. चौथी बात उसमें आई थी कि ये जो हाई कोर्ट है, वो सब चूंकि ब्रिटिश जमाने से ही चल रहा है और व्यक्तिगत संपत्ति को बचाए रखने को ही वो तरजीह देते हैं, इसीलिए ये कोर्ट भूमि सुधार के काम का आगे बढ़ाने के बजाय भूमि सुधार के मामले में सबसे बड़ी रुकावट बने हुए हैं और ये शायद हिंदुस्तान की अपनी खास विशिष्टता है. शायद ही किसी दूसरे देश का न्यायालय हो, जो सामाजिक प्रक्रिया के विकास में बाधक बने. लेकिन हमारे देश में हम देखते हैं कि सामाजिक प्रक्रिया के विकास में सबसे बड़ी बाधा के रूप में ये हाई कोर्ट वगैरह की भूमिका ही रही है. इन्होंने तमाम केसों को फंसा दिया और भूमि सुधार के काम को आगे नहीं बढ़ने दिया. वहां ये बात आई कि विशेष लैंड-ट्रिब्यूनल बनाए जाएं और इन मुकद्दमों को हाईकोर्ट वगैरह से निकालकर वहीं रखा जाए और उनका जल्दी से निपटारा किया जाए. ये कुछ प्रस्ताव थे कुछ सिफारिशें थीं जो 1973 के भूमि सुधार सेमिनार में उठाए गए थे. और जयप्रकाश नारायण ने उसमें कहा था कि इस काम के लिए, बिहार में इस सामाजिक परिवर्तन के लिए नौजवानों को बड़े पैमाने पर लगाने की जरूरत है.

और अभी हाल में, 1991 में, भूमि सुधार पर ही एक वर्कशाप इसी पटना में हुई, जिसमें भी तमाम बुद्धिजीवी थे और कुछ ऐसे लोग थे जो 1973 वाले सेमिनार में भी शामिल रहे थे. इस वर्कशाप ने विचार किया कि 1973 में जो बातें तय की गई थीं, इन 20 सालों में उनका क्या हुआ? वे जिन नतीजों पर पहुंचे वे ये थे कि बिहार में कृषि-सुधार का काम कुछ भी आगे नहीं बढ़ा इन बीस सालों में. और जमीन हदबंदी कानूनों का प्रयोग या जो जमीन निकली उसके वितरण का काम – ये सब कुछ भी आगे नहीं बड़ा. बल्कि जो हुआ, वह यह कि भूमिसुधार के एजेंडे को ही अप्रासंगिक बताकर उसे पीछे ढकेलने की कोशिशें लगातार की गई. इस वर्कशाप ने नए सिरे से फिर कुछ सिफारिशें राज्य सरकार के पास भेजीं और उससे उम्मीद की कि वह इस काम को करे. उसकी खास बातें थीं कि हदबंदी को नए सिरे से किया जाए. इसमें था कि अभी जो 6 किस्म से जमीन को वर्गीकृत किया जाता है, उसे 3 किस्म से ही किया जाए. एक सिंचित जमीन जिसमें 15 एकड़ की सीलिंग हो, जो असिंचित जमीन है उसमें साढ़े बाइस एकड़ की, तथा जो खराब जमीन है – बंजर या पहाड़ी जमीन है, उसके लिए 30 एकड़ की सीलिंग हो. दूसरी जो सिफारिश उन्होंने की, वह यह कि प्राइवेट ट्रस्टों के नाम से जो बहुत सी जमीनें हैं या फिर चीनी मिलों के नाम पर जो जमीन है, और इन्हें जो सीलिंग के मामले में रियायतें मिल जाती है, तो ऐसी कोई छूट इन्हें न दी जाए. तीसरी बात वहां आई कि जमीन को लेकर लैंड ट्रिब्यूनल बनाए जाएं. सरकार ने बनाने की कोशिश भी की थी, जिसे हाईकोर्ट द्वारा रोक दिया गया है, तो बात आई कि सुप्रीम कोर्ट से जल्दी इसके पक्ष में फैसला लिया जाए, और चौथी बात हुई ‘आपरेशन बटाई’ की, जैसा कि पश्चिम बंगाल में ‘अपारेशन बर्गा’ हुआ है, बर्गादारों की रिकार्डिंग हुई है, तो उस तर्ज पर बिहार में भी किया जाए. इस तरह की सिफारिशें थीं 1991 के वर्कशाप की. तो ये जो प्रस्ताव उन्होंने सरकार के पास भेजे, उसपर भी कहीं कुछ कार्यवाही नहीं हो पाई है.

ये स्थितियां हैं, और ये सिर्फ हमारी नहीं, देश के तमाम जो प्रमुख बुद्धिजीवी हैं, बिहार का भला चाहने वाले देशभर के प्रतिष्ठित, प्रबुद्ध लोग हैं, वे सभी यह मानते हैं कि बिहार में भूमि सुधार का काम अधूरा पड़ा हुआ है और इस काम को पूरा करना ही बिहार के विकास की कुंजी है. यह एक आम समझ और आम मान्यता है. सिर्फ जगन्नाथ मिश्रा या लालू यादव जैसी ताकतें या फिर ये जो कुछ दलाल बुद्धिजीवी किस्म के लोग हैं, वे ही ऐसी बातें कहते हैं कि अब बिहार में भूमि सुधार जैसी चीजों की आवश्यकता नहीं रह गई है और सिर्फ खेती की नई-नई तकनीकों के जरिए ही बिहार की समस्याओं को हल किया जा सकता है.

उसमें पहली बात यह, कि जो खेत मजदूर हैं, उनके बारे में सबसे पहले सोचना चाहिए कि उन्हें न्यूनतम मजदूरी मिलनी चाहिए. इसके लिए हर खेती के सीजन के पहले वहां के जो स्थानीय फार्मर हैं, किसान हैं, तथा मजदूर हैं और जनता के जो किसान सभा जैसे संगठन हैं और प्रशासन की जो मशीनरी है, वे सब आपस में बैठकर हर सीजन के लिए हर बार क्या मजदूरी हो, इसका फैसला करें. यह एक सिस्टम होना चाहिए, क्योंकि हर साल चीजें बदलती हैं और मजदूरी की नई दर निर्धारित करने की जरूरत है. इसे लागू कराने की गारंटी की जानी चाहिए, क्योंकि उनके अंदर बहुत बेकारी है, उन्हें काम नहीं मिलता है सालभर. काम की गारंटी की जाए और उनके रहने के लिए जमीन का इंतजाम किया जाए, यह पहला कार्यक्रम होना चाहिए. दूसरा जो हम समझते हैं कि जमीन की रिकार्डिंग हो, उसका नए तरह से सर्वे हो और फिर जमीन का बंटवारा ही नहीं, जमीन की चकबंदी की भी बड़ी जरूरत है जिससे कि खेती को वैज्ञानिक ढंग से आगे बढ़ाया जा सके. इसके अलावा बटाईदारों के जो अधिकार हैं वे सुरक्षित हों और बटाईदारों को सरकारी संस्था के जरिए कम ब्याज-दर पर ऋण मिले जिससे वे बेहतर ढंग से खेती कर सकें और अंततः अपनी जमीन के मालिक बन सकें. यह दूसरा कार्यक्रम होना चाहिए. तीसरा कार्यक्रम यह होना चाहिए कि कृषि का जो ढांचा है बिहार में, उसे मजबूत करने की जरूरत है जैसे सिंचाई का सवाल. बहुत सी जो नहरें हैं, वे पुरानी पड़ रही हैं, खत्म हो रही हैं. जमीन की उत्पादकता बनाए रखने के लिए जरूरी है जमीन की सुरक्षा, या बहुत जगह पानी जमा हो जाता है. तो ये सब जो समस्याएं हैं, इन्हें दूर करने की जरूरत है. बिहार का जो ढांचागत विकास है, वह तीसरा एजेंडा बनता है. चौथा जो एजेंडा बनता है, वह जरूर है कि कृषि विविध रूप में विकसित हो. पोल्ट्री जैसी चीजों की शुरूआत की जाए. पांचवी बात यह है कि बिहार के जो परंपरागत उद्योग हैं – उत्तर बिहार में जूट मिलें हैं या चीनी मिले हैं, या हैंडलूम है – इन तमाम उद्योगों को पुनर्जीवित किया जाए. छठी बात ये है कि जनवादी जो संस्थाएं हैं उनका पुनर्जीवन हो – पंचायत और इस तरह की अन्य संस्थाओं का. और सातवीं बात मैं कहना चाहूंगा कि किसान सभा जैसे जो जनवादी, लोकतांत्रिक संगठन हैं, उन्हें इस पूरी प्रक्रिया में शामिल रहने की जरूरत है.

तो यह जो कार्यक्रम है, मैं समझता हूं कि बिहार के विकास के लिए यह जरूरी है. लेकिन इसे लागू करना कोई आसान बात नहीं है. इसके लिए लंबे संघर्ष के दौर से गुजरना होगा. इसमें सबसे पहला संघर्ष जमीन के जो मालिक हैं, जिनके हाथों में काफी जमीन है, या जो धनी कुलक तबका है, और जो कई बिजनेस से जुड़ा होता है, वह राजनीति का भी मैनुपुलेशन करता है, पीछे से इलाके की राजनीति चलाता है, उसके खिलाफ संघर्ष चलाना होगा. जैसे हमने देखा था भोजपुर के ज्वाला सिंह को, उसमें ये तीनों ही गुण थे. वे एक तरफ अच्छी-खासी जमीन के मालिक भी थे, दूसरी तरफ काले धंधे से कमाए धन से उनका तमाम बिजनेस चलता था और वे वहां की पूरी राजनीति को – कांग्रेस की हो, जनता दल की हो – संचालित करते थे. इस तरह की ताकतें बिहार के कोने-कोने में हैं, और इनके खिलाफ संघर्ष पहली बात है. दूसरी बात यह कि जो भ्रष्ट अफसरशाही है, जिला, ब्लाक, से लेकर नीचे तक – इस अफसरशाही के खिलाफ व्यापक संघर्ष हो. तीसरी बात जो मैंने कही कि राजनीतिज्ञों का एक पूरा-का-पूरा वर्ग पहाड़ बनकर जनता पर लद गया है, और उसे लूटपाट करने की तमाम सुविधाएं मिली हुई हैं. इस राजनीतिज्ञ वर्ग के खिलाफ, इस पहाड़ के खिलाफ भी संघर्ष की जरूरत है जिसमें इन्हें वापस बुलाने का अधिकार जनता के हाथों में हो. पांचवीं बात मैं कहूंगा कि जो पतनशील सांस्कृतिक मूल्य हैं, उनके खिलाफ संघर्षों की जरूरत है. और आखिरी बात जो कहनी है कि यहां बिहार में शिक्षा के मामले में जो अराजकता है, उसे दूर करने की जरूरत है. चरवाहा विद्यालय जैसी गैर-जरूरी चीजों पर समय बर्बाद करने के बजाय बिहार में कृषि की ट्रेनिंग की संस्थाएं खुलनी चाहिए, बिहार में जैसे निजी गैर-जरूरी महाविद्यालयों को बल्कि बंद करके उन्हें तकनीकी संस्थानों में बदल दिया जाए जिसमें तकनीकी शिक्षाएं दी जाएं. और इसी सिलसिले में मैं कहूंगा कि शिक्षा को पूरी तरह सेकुलर बनाया जाए, और ये तमाम जाति ग्रुप शिक्षा संस्थानों पर अपना कब्जा जमाए हुए हैं, इन चीजों को बदला जाए और शिक्षा को सेकुलर बनाया जाए. और आखिरी बात मैं ये कहूंगा कि आरक्षण दलितों के लिए तो है ही, जो दूसरी पिछड़ी जातियां हैं, उसमें जो क्रीमीलेयर है, उसको हटाकर बाकी के लिए आरक्षण हो और महिलाओं के लिए भी आरक्षण हो. इस आरक्षण 60-70% तक बढ़ाया जा सकता है और इसमें कम से कम 10% आरक्षण अवश्य महिलाओं के लिए होना चाहिए. क्योंकि बिहार के पिछड़ेपन को तोड़ने में अगर कोई गति पैदा करनी है, तो ये जरूरी है कि महिलाओं को समाज विकास के या अन्य कामों में आगे बढ़ाया जाए. एक तरफ आरक्षण के दायरे से क्रीमीलेयर को हटाया जाय तो दूसरी ओर किसी भी जाति की महिला के लिए आरक्षण का प्रतिशत बढ़ाया जाए.