(18 जनवरी 1996 को झारखंड स्तरीय कैडर कन्वेंशन में दिया गया भाषण;
समकालीन लोकयोद्ध, 29 फरवरी 1996 से, प्रमुख अंश)

मुझे बहुत अच्छा लगा कि साथियों के एक बड़े हिस्से ने बहस में भागीदारी निभाई और शायद समय की कमी की वजह से ही जो अन्य बहुत सारे लोग बोलना चाहते थे उन्हें मौका नहीं मिल पाया.

यहां बहुत सी बातें आयीं और मुझे इस बात की खुशी है कि आप सब लोग और आपके नेताओं ने भी और बाकी सभी साथियों ने इस कन्वेंशन में सक्रिय और सजीव रूप से हिस्सेदारी की.

अब वे कौन से नारे, कौन सी बातें होती हैं जिन्हें लेकर आपको बढ़ना होता है. मैं समझता हूं कि इस तरह का कोई कार्यक्रम या इस तरह का कोई नारा आप अपनी मनमर्जी से, अपनी सहूलियत के मुताबिक या अपनी इच्छा के मुताबिक ईजाद नहीं कर सकते. एक खास समय में एक देश के सामने आमतौर से ही कुछ बातें आ जाती हैं, कुछ नारे बन जाते हैं जो उस समय के तमाम प्रगतिशील लोगों के नारे बनते हैं, वहां की जनता की जरूरत बनते हैं. जैसे – जब हमारा देश गुलाम था तब देश की आजादी का सवाल सबके लिए ही नारा बना हुआ था. इसी तरह आज राष्ट्रीय आत्मनिर्भरता का सवाल, धर्मनिरपेक्षता का सवाल और सामाजिक न्याय का सवाल – ये ऐसे सवाल हैं, जो कुल मिलाकर नए भारत के लिए समाज के प्रगतिशील, वामपंथी, जनवादी लोगों के आम एकता वाले नारे बने हुए हैं. ये समाज में, देश में जमीन से उभर चुके हैं. इस नाते कि ये नारे दूसरी पार्टियां भी इस्तेमाल कर रही हैं इसलिए इस नारे को छोड़ देना चाहिए या इस पर जोर नहीं देना चाहिए या ऐसे नारे खोजना चाहिए जो सिर्फ हमारे हों, किसी दूसरे ने न इसे पहले उठाया हो न बाद में कभी उठाएगा, मैं समझता हूं इस तरह के नारों की खोज महज कल्पना है और ऐसा संभव नहीं हुआ करता. एक देश, एक समाज एक ठोस समय में नारे उछालता है, स्वाभाविक रूप से वे नारे उस देश और समाज के सामने आ जाते हैं. अब सवाल उठता है कि हर पार्टी उस नारे की किस-किस तरीके से व्याख्या करती है, फर्क यहां होता है. आजादी की लड़ाई को ही कम्युनिस्ट कैसे लड़ना चाहते थे और दूसरे कैसे लड़ना चाहते थे. सवाल उस नारे की व्याख्या, उसके लिए लड़ी जाने वाली लड़ाई और उसके चरित्र पर होती हैं. इसलिए मैं समझता हूं कि ये नारे ऐसे हैं जो भारत की आम जनता के नारे हैं. इसलिए सवाल इन नारों को छोड़ देने का नहीं है, सवाल इन नारों को मजबूती से पकड़ने का है. सवाल यह है कि हम इन नारों को किस ढंग से देखते हैं और हमारी व्याख्या क्या है? सवाल इसे लोगों को समझाने का और इस बारे में हमारी पार्टी की धारणा को लोगों तक ले जाने का है.

अब देखिए कि बिहार में अभी फिलहाल जनता दल के लालू जी की सरकार है. उसका एक ही नारा है औद्योगीकरण. वे कहते हैं कि मैंने बिहार में सामाजिक क्रांति पूरी कर दी है, कृषि क्रांति भी हो ही चुकी है और अब हम औद्योगिक क्रांति करने जा रहे हैं. तो इस नारे के तहत औद्योगीकरण हो रहा है. मैंने देखा कि कुछेक बुद्धिजीवी हैं, आद्री संस्था चलती ही पटना में और उसके निदेशक हैं शैवाल गुप्ता. ये लोग सरकार से लाखों रुपया खाते हैं और उसके बदले में इन सब लोगों ने अपना दिमाग भी बेच डाला है. तो उन्होंने लिखा है कि जैसे नेपोलियन ने फ्रांस में औद्योगीकरण की शुरूआत की, बिस्मार्क ने जर्मनी में औद्योगीकरण किया, आज बहुत वर्षों बाद वैसे ही लालू यादव बिहार में औद्योगीकरण की शुरूआत कर रहे हैं. तो इनके और लालू जी के हिसाब से बिहार में सामाजिक क्रांति खत्म हो चुकी है और कृषि क्रांति भी. और, अब बिहार औद्योगीकरण के दौर में प्रवेश कर रहा है. इस वजह से भी हमने इस बात पर जोर दिया क्योंकि जनता दल का जो सामाजिक न्याय का नारा था उस बाबत हमने पहले ही कहा था कि जनता दल मूलतः पिछड़ों की जो मलाईदार परत है, उसकी पार्टी है. उनके लिए जरूर पांच वर्षों में बहुत कुछ हुआ है. सरकार में लालू यादव के आने के बाद से उस हिस्से को बहुत फायदा मिला है. इसलिए अब उनकी नजर में सामाजिक न्याय का काम खत्म हो चुका है. लेकिन हम जानते हैं कि बिहार की जनता के व्यापक हिस्सों, दलितों-पिछड़ो और गरीबों के लिए सामाजिक न्याय की लड़ाई अभी बाकी है. इस सिलसिले में हम यह महसूस करते हैं कि जनता दल सामाजिक न्याय के इस नारे को छोड़ रहा है, इस नारे पर से उनका जोर खत्म हुआ है. इसलिए और भी जरूरी है कि हम इस नारे को मजबूती से पकड़ें. हम इस बात को लोगों में ले  जाएं कि यह जो कहा जा रहा है कि सामाजिक क्रांति हो चुकी है, ये सब लफ्फाजी है और आज भी दलितों-पिछड़ो का बहुत बड़ा हिस्सा सामाजिक न्याय से वंचित है. उसको जीवन-मरण का संघर्ष करना पड़ रहा है. तो इस वजह से भी हमने महसूस किया कि सामाजिक न्याय का नारा हमें जोर से पकड़े रहना है. जनता दल के भंडाफोड़ के लिए भी इसकी आवश्यकता है. यही बात आत्मनिर्भरता के नारे के मामले में भी है. जनता दल भी नई आर्थिक नीतियों को ही लागू कर रहा है. जिस तरह से वह बहुराष्ट्रीय निगमों को बुलाकर, प्रवासी भारतीयों की पूंजी लगाकर औद्योगीकरण चला रहा है, हम समझते हैं कि राष्ट्रीय आत्मनिर्भरता का नारा भी जनता दल जोर-शोर से ले नहीं पाएगा. इसलिए यह नारा एक ओर भारतीय जनता की इच्छाओं को अभिव्यक्त करता है और साथ ही साथ यहां तक कि मध्यमार्गी जो पार्टियां हैं जनता दल जैसी – उनके भी भंडाफोड़ के लिए महत्वपूर्ण है, बशर्ते इसे हम सही ढंग से जनता के बीच ले जा सकें और स्पष्ट कर सकें.

जहां तक भ्रष्टाचार का सवाल है, अवश्य ही भ्रष्टाचार एक बहुत बड़ा मुद्दा है हमारे देश के लिए. लेकिन पहली बात हम यह कहना चाहेंगे कि भ्रष्टाचार भी अपने आप में कोई ऐसा नारा नहीं है कि इसके खिलाफ लड़ाई पर कम्युनिस्ट पार्टी या सर्वहारा की पार्टी का एकाधिकार हो, जागीर हो. पिछले वर्ष हमने देखा है कि भ्रष्टाचार के नारे को एक बुर्जुआ पार्टी दूसरी बुर्जुआ पार्टियों के खिलाफ उठाती रही है, इस्तेमाल करती रही है, और वही बाजार में जीतती भी रही है. कभी वोफोर्स का सवाल उठाकर जनता दल या कभी कोई. इसलिए भ्रष्टाचार का नारा ऐसा जादू-मंतर नहीं है कि जिसे आप उठा लेंगे तो सारा का सारा जनमत आपके पक्ष में आ जाएगा और आपको सत्ता मिल जाएगी. मुझे लगता है कि मामला इतना सहज नहीं है. भ्रष्टाचार के सवाल पर भी तमाम खेल होते रहते हैं. जैसे अभी आप देखें कि संसद में टेलिकॉम के घोटाले पर पूरी बहस हुई और संसद बंद रही. अब इस पूरे भ्रष्टाचार के मुद्दे को घुमाने के लिए अचानक आप देखेंगे कि नरसिम्हा राव ने चाणक्य नीति चलते हुए, यहां तक कि अपने भी कुछ मंत्रीयों की बलि चढ़ाते हुए जैन हवाला कांड का मुद्दा उठा लिया और इसे उठाकर उन्होंने एक तीर से कई शिकार खेले. आडवाणी, अर्जुन सिंह जो उनके प्रतिद्वंद्वी हैं उनको भी उन्होंने भ्रष्ट साबित कर दिया लेकिन खुद वे बेदाग बच निकले. तो यह एक कोशिश है और इसको पूरा मुद्दा बनाने की कोशिशें होंगी. हम कहना चाहेंगे कि हवाला कांड का भ्रष्टाचार भी एक महत्वपूर्ण भ्रष्टाचार है और इसके खिलाफ लड़ने की जरूरत है. लेकिन ये भ्रष्टाचार पुराने टाइप का है अर्थात चुनाव के लिए कुछ इधर-उधर व्यापारियों से पैसा-वैसा लेने से जुड़ा हुआ. जैसे कुछ राजनीतिक लेते रहते हैं. टेलिकॉम वाला जो भ्रष्टाचार था वो नई आर्थिक नीतियों से जुड़ा हुआ भ्रष्टाचार था. इस तरह के भ्रष्टाचार के मुद्दे बहुराष्ट्रीय कंपनियों, आर्थिक उदारीकरण, निजीकरण को बढ़ावा देने की जो नीति है, इसके साथ जुड़े हुए भ्रष्टाचार के मुद्दे हैं. टेलिकॉम घोटाला, एनरॉन हर्षद मेहता का फाइनेंशियल घोटाला, भ्रष्टाचार के सिलसिले में इसलिए महत्वपूर्ण हैं कि इन्हें उठाने के माध्यम से सरकार की वर्तमान आर्थिक नीतियों के बारे में हम जनता की चेतना बढ़ा सकते हैं. सवाल सिर्फ भ्रष्टाचार का ही नहीं था, भ्रष्टाचार के इन सवालों को उठाते हुए आप ये बता सकते थे कि किस तरह से नई आर्थिक नीति यहां काम कर रही है और किस तरह से इनकी सांठ-गांठ विदेशियों, अपराधियों से है और ये सारा का सारा मामला क्या है. लेकिन हवाला कांड जो कि एक पुराने किस्म का भ्रष्टाचार है और इसमें निशाना सिर्फ सत्तापक्ष ही नहीं होता है, जबकि टेलिकॉम का जो भ्रष्टाचार था वह सीधे-सीधे सत्तापक्ष और उसकी नीतियों पर चोट करता है. इसलिए भ्रष्टाचार के पीछे भी राजनीति हुआ करती है और हर भ्रष्टाचार के अपने गुणात्मक मामले हुआ करते हैं. मेरी समझ में हम मार्क्सवादियों को इन सवालों पर दिमाग रखना चाहिए.

झारखंड में जहां तक हमारी पहलकदमी का सवाल है तो वह तभी महत्व ले पाया सब झारखंड आंदोलन चलानेवाली प्रमुख ताकत खुद सत्ता की हिस्सेदार बन गई. यहां से एक नई परिस्थिति का जन्म हुआ है. मैदान खाली हुआ है. झामुमों अपनी खोयी पहलकदमी वापस लेने के लिए कुछेक मुद्दों पर दिखावे का आंदोलन करने की कोशिश कर रहा है. झारखंड बंद के जरिए इस विशेष समय में हमारी पार्टी के हाथों पहलकदमी आई है, झारखंड में इसका अच्छा रिस्पांस मिला है और इस बार जनता का व्यापक समर्थन मिला है. यह पहली बार हुआ है और इसे बढ़ाने की जरूरत है. इसे लेकर एक राजनीतिक अभियान चलाना चाहिए. परिषद के चुनाव की मांग को लेकर पार्टी नेताओं का दौरा होना चाहिए. बड़े पैमाने पर अपनी बात ले जानी चाहिए. हमें पार्टी के झंडे तले झारखंड की दूसरी ताकतों को भी साथ लाना होगा, उन्हें एक मंच पर लाना होगा.

जहां तक एमसीसी का मामला है. तो यह एक दीर्घकालिक लड़ाई है. हम कहना चाहते हैं कि एमसीसी के साथ हमारा संघर्ष, सिर्फ इस बात के लिए नहीं है कि उन्होंने हमारे साथियों को मारा तो हमको बदला लेना है या कुछ इलाका उनसे कब्जा करना है – ये लड़ाई कुछ इलाकों के कब्जे अथवा हमारे साथियों की हत्या का बदला लेने की लड़ाई नहीं है. अराजकतावाद का

एक दर्शन है, उसका मुकाबला आपको करना ही होगा. यह किसानों की एक स्वाभाविक विचारधारा है, बिना अराजकतावादी विचारधारा से लड़े किसानों के बीच कम्युनिस्ट पार्टी का निर्माण असंभव है. अराजकतावाद की सबसे संगठित, सबसे ठोस अभिव्यक्ति के रूप में एमसीसी के साथ लड़कर ही हम सही मायने में संगठित जन आंदोलन का निर्माण कर सकते हैं और जनता की राजनीतिक चेतना का विकास कर सकते हैं. इसलिए एमसीसी को एक नकारात्मक शिक्षक मानकर उससे लड़ना है, उसके अराजकतावादी विचारों से, उसके अराजकतावादी व्यवहारों से.

क्योंकि लड़ाई सिर्फ इस बात के लिए नहीं है कि आप चुनाव में जाएंगे या नहीं. लड़ाई पूरे अराजकतावाद से है, जिसकी कोशिश है राजनीति से आम जनता को काट देने की, जनता को उसके राजनीतिक व्यवहार, राजनीतिक प्रक्रिया से या जनता की अपनी सत्ता बनाने की कोशिश से अलग कर देने की. क्योंकि अराजकतावाद किसी भी किस्म की राज्यव्यवस्था पर विश्वास नहीं करता – चाहे वो बुर्जुआ की हो या सर्वहारा की. इसलिए वे हमेशा मजदूर-किसानों को राजनीति की प्रक्रिया से दूर रखना चाहते हैं, राजनीति से हटाना चाहते हैं. इनके साथ लड़ने का अर्थ है राजनीतिक प्रक्रिया में जाना, जनता की राजनीतिक चेतना बढ़ाना और सही मायने में कम्युनिस्ट पार्टी का निर्माण करना. इसलिए मैं समझता हूं यह एक दीर्घकालिक लक्ष्य है और ये लड़ाई आपको लड़नी है.

जिन इलाकों में एमसीसी नहीं है वहां भी हमें किसानों के अंदर से आए हुए इस तरह के अराजकतावादी विचारों से लड़ना है. अराजकतावाद के विचारों से लड़ने से आप बच नहीं सकते, कहीं एमसीसी होगी कहीं नहीं होगी. ये विचार स्वभाविक रूप से बढ़ने वाले विचार हैं और इससे बिना लड़े कहीं भी दुनिया में न कम्युनिस्ट पार्टी का निर्माण हुआ है, न होगा. इसलिए एमसीसी को एक बोझ समझने की बजाए उसे एक तरह से नकारात्मक शिक्षक समझिए; उसका अगर कुछ सकारात्मक पक्ष है तो यही.