(लिबरेशन, अगस्त 1995 से, प्रमुख अंश)

लगभग तीन महीने बाद बिहार के चुनावों के बारे में लिखना आश्चर्यजनक लग सकता है. लेकिन विलंब से समीक्षा करने का एक अतिरिक्त फायदा यह होता है कि तब आप दूसरे विश्लेषकों द्वारा पेश किए गए विभिन्न तर्कों और निष्कर्षों की छानबीन कर सकते हैं. फिर, पार्टी के अंदर से उठनेवाली वैकल्पिक स्थितियां, जो पार्टी कतारों के बीच मौजूद भ्रमों के आधार पर फलती-फूलती हैं, इधर बिलकुल हाल में आकार ग्रहण करती दिख रही हैं. इस सबके चलते हमारे चुनावी व्यवहार और चुनावी नतीजों पर फिर से गौर करना आवश्यक हो जाता है.

पहले तो हम देखें कि कुछ विश्लेषकों ने हमारी स्थिति कि समीक्षा कैसे की है. सीपीआई के एक सिद्धांतकार श्री चतुरानन मिश्र ने एक हिंदी दैनिक में लिखते हुए टिप्पणी की कि जहां सीपीआई और सीपीआई(एम) के वोटों का एक हिस्सा जनता दल के साथ उनके संश्रय के जरिए आया, वहीं सीपीआई(एमएल) ने मुख्यतया अपने बल पर वोट हासिल किए. समता पार्टी के साथ संश्रय से उसे थोड़े-बहुत वोटों का ही फायदा हुआ. उन्होंने इस बात पर आश्चर्य जाहिर किया कि फिर भी सीपीआई(एमएल) ने सीपीआई(एम) के बराबर सीटें हासिल कर लीं. श्रीमान एके राय ने अपने बहुप्रचारित लेख में जनता दल पर वामपंथ की बढ़ गई निर्भरता का रोना रोया और उसी सांस में जनता दल से संश्रय बनाने से इनकार करने पर सीपीआई(एमएल) को ‘उद्धत’ कर दिया और फिर हम पर यह आरोप लगाया कि हम समता पार्टी तथा झारखंड मुक्ति मोर्चा के साथ गैरउसूली संश्रय में शामिल हुए – गैरउसूली इसलिए, क्योंकि उनके अनुसार वह संश्रय सीट व सत्ता के लालच से ही प्रेरित था.

पार्टी यूनिटी के एक भूतपूर्व नक्सलवादी और वर्तमान में एक पत्रकार श्री तिलक डी गुप्ता ने इकानमिक एण्ड पोलिटिकल वीकली में लिखा : “सीपीआई(एमएल) अपने चुनावी प्रदर्शन पर संतोष जाहिर कर सकता है. हालांकि उसे अपनी बढ़ी-चढ़ी उम्मीदों से काफी कम नतीजे हासिल हुए हैं. तमाम पार्टियों के बीच सीपीआई(एमएल) को ही बड़े भूस्वामियों के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए प्रशासनतंत्र की दुश्मनी सबसे अधिक झेलनी पड़ी. इसके अलावा उसे एक ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ा जिसमें पार्टी द्वारा कृषि संघर्षों में गोलबंद किए गए मेहनतकश ग्रामीण जनसमुदाय का अच्छा-खासा हिस्सा चुनाव के समय जनता दल में चला गया. और फिर, सीपीआई एवं सीपीआई(एम) की अपेक्षा सीपीआई(एमएल) को अकेले अपने ही बलबूते चुनाव लड़ना पड़ा. इन स्थितियों में यह कहा जा सकता है कि पार्टी ने अपेक्षाकृत मुश्किल परिस्थिति में काफी अच्छा प्रदर्शन किया.”

इतनी प्रशंसा करने के बाद श्री गुप्ता आगे लिखते हैं, “इतना कहने के बाद, यह बता देना आवश्यक है कि समाजवादी रंग-रूप वाले किन्तु स्पष्टतया एक दक्षिणपंथी संगठन, जो गैर-यादव भूस्वामियों की आकांक्षाओं से जुड़ा हुआ था, के साथ संश्रय बनाने के गैरउसूली प्रयत्नों से एक ऐसे राजनीतिक अवसरवाद की बू आती है, जो अतीत के भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन में हमेंशा परिलक्षित होता रहा है. इसके अलावा, जनता दल को बदनाम करने और उसे सत्ता से हटाने की चिन्ता में अन्य विपक्षी पार्टियों के साथ-साथ सीपीआई(एमएल) ग्रुप भी बिहार में मुख्य चुनाव आयुक्त की मनमानी एवं पक्षपातपूर्ण कार्यवाहियों का तत्पर सहयोगी न होते हुए भी कुछ हद तक उसका समर्थक अवश्य बन गया.”

दो संश्रय, दो कार्यनीतियां

आइए, अब देखें कि इन सब वक्तव्यों का असली अर्थ क्या है. श्रीमान चतुरानन मिश्र का विश्लेषण जनता दल के साथ सीपीआई-सीपीआई(एम) के संश्रय तथा समता पार्टी के साथ सीपीआई(एमएल) के संश्रय को एक ही पलड़े पर रख देता है और इनके बीच सिर्फ परिमाणात्मक फर्क अर्थात् इनके संबंधित संश्रयों से मिले वोटों के फायदे के फर्क पर गौर करता है. वे इन संश्रय के चरित्र में निहित गुणात्मक फर्क को नजरअंदाज कर देते हैं. सीपीआई-सीपीआई(एम) ने सत्ता की पार्टी के साथ संश्रय बनाया था, जबकि सीपीआई(एमएल) ने विपक्ष की पार्टी के साथ. इसके अतिरिक्त, जहां पहला संश्रय पूर्णतः निर्भर किस्म का था वहीं दूसरा संश्रय पूर्णतः स्वतंत्र चरित्र का था. यह इस तथ्य से बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि सीपीआई और सीपीआई(एम) को वोटों का एक बड़ा हिस्सा जद के समर्थन से प्राप्त हुआ था, जबकि इसके विपरीत सीपीआई(एमएल) को बिलकुल इसकी अपनी ताकत पर जीत हासिल हुई है. समता पार्टी के साथ महज टोकन किस्म का संश्रय हो पाने और दो-तीन सिटों को छोड़कर बाकी हर जगह समता उम्मीदवारों द्वारा हमारा विरोध किए जाने की स्थिति में यह कहना हास्यास्पद ही होगा कि हमारे वोटों का एक छोटा हिस्सा भी समता पार्टी के समर्थन से प्राप्त हुआ. ऐसा कहना इसलिए भी हास्यास्पद होगा क्योंकि समता खुद पूर्णतः विफल साबित हुई है. इसके बाद, सीपीआई(एम) और सीपीआई(एमएल) को मिली सीटों की बराबर संख्या के आधार पर उन्हें समान घोषित करना जमीनी सच्चाइयों का एक मखौल ही होगा. सीपीआई(एम) के वोटों का एक बड़ा हिस्सा जद के समर्थन से मिलने के बावजूद उसे हमें प्राप्त मतों की तुलना में आधे से भी कम मत प्राप्त हुए हैं.

दो संश्रय, दो चुनावी अभियान और हासिल वोटों की दो श्रेणियां गुणात्मक रूप से भिन्न चरित्र के थे. इस बात को समझे बगैर हर चुनाव विश्लेषण सतही साबित होगा और वह अपने खुद के अवसरवाद को छिपाने का एक चतुराई भरा प्रयास ही होगा.

जहां कि पहले वाले संश्रय में शुरू से आखिर तक इसके बुर्जुआ संश्रयकारी पर निर्भरता के सिवा और कुछ दिखलाई नहीं पड़ा, वहीं दूसरे संश्रय में सर्वहारा की पार्टी ने अपने बुर्जुआ संश्रयकारी के मुकाबले पूर्ण स्वतंत्रता प्रदर्शित की. इसे जाने-अनजाने जो कोई भी गड्ड-मड्ड करेगा, वह सामाजिक जनवाद और क्रांतिकारी कम्युनिस्टों की चुनाव कार्यनीतियों के बीच बुनियादी फर्क को भूल जाने का ही अपराध करेगा.

श्रीमान एके राय यह स्वीकार करते हैं कि जनता दल के साथ संश्रय बनाने की वामपंथ की चुनावी कार्यनीति ने जनता दल पर निर्भरता को बढ़ाया ही है. वे इस प्रश्न का उत्तर नहीं देते कि सीट और सत्ता की लालच के अलावा और किस प्रेरणा से वामपंथ ने जद के साथ संश्रय बनाया था? पहचान खोने या जद पर बढ़ती निर्भरता की बात पिछले पांच वर्षों के दौरान जद के साथ उनके संबंधों की प्रक्रिया में ही निहित है, यह अचानक नहीं हुई है. अगर सीपीआई(एमएल) ने तमाम विपरीत परिस्थितियों का मुकाबला करते हुए इस समूची अवधि में ‘उद्धत’ बने रहना पसंद किया और सीट व सत्ता की लालच में नहीं फंसा, तो क्या इसमें उसूलबद्धता की कोई भूमिका नहीं है? इन स्वघोषित नैतिकतावादियों द्वारा जनता दल के साथ उनकी अपनी मार्क्सवादी समन्वय समिति के सिद्धांतहीन संश्रय के बारे में अपनाई गई ठंडी खामोशी काफी रहस्यमय प्रतीत होती है.

झारखंड मुक्ति मोर्चा और समता पार्टी के साथ संश्रय बनाने के अपने प्रयासों के मामले में हम हमेशा स्पष्ट करते रहे हैं कि हम कभी भी किसी समता-झामुमो सरकार का अंग नहीं बनेंगे और अधिक से अधिक उसे सशर्त समर्थन भर दे सकते हैं. अगर ऐसी कोई परिस्थिति पैदा होती – जिसकी संभवना शुरू से ही काफी कम थी – तो यह बिलकुल स्पष्ट था कि आमूल बदलाव की लड़ाई में संलग्न हमारी पार्टी शीघ्र ही क्रांतिकारी विपक्ष की भूमिका अपना लेती, क्योंकि समता-झामुमो सरकार द्वारा हमारी शर्तों को स्वीकार करना और उसका अनुसरण करना नामुमकिन ही था. सत्ता की लालच में दौड़ने का सवाल शुरू से ही कहीं मौजूद नहीं था. अब देखें कि झामुमो के साथ हमारे संबंध के मामले में तथ्य क्या बताते हैं.

अव्वल तो यह कि झामुमो के साथ हमारे संबंध अचानक चुनाव की पूर्ववेला में और सीट व सत्ता में अवसरवादी साझीदारी के ख्याल से नहीं बने थे, यह तब हुआ, जब लालू यादव ने कलाबाजी खाई और झारखंड राज्य की मांग को ठुकरा दिया. झारखंड आंदोलन में एक नए आवेग के बीच हम एक संयुक्त मंच में झामुमो के साथ शामिल हुए. दूसरे, चूंकि झामुमो अभी भी झारखंड आंदोलन का अग्रणी प्रतिनिधि बना हुआ है, व्यावहारिक राजनीति में इसके साथ कोई संबंध नहीं बनाना वस्तुतः असंभव है. बहरहाल, हमने यह संबंध इस शर्त पर बनाए थे कि वे कांग्रेस के साथ किसी संयुक्त अभियान में न जाएं. लेकिन जब झामुमो कांग्रेस के साथ हेलमेल करने लगा, तो हम उस संयुक्त मंच से बाहर निकल आए. तीसरे, दोनों पक्षों की ओर से संश्रय बनाने की इच्छा जाहिर करनेवाले चंद राजनीतिक वक्तव्यों के अलावा संश्रय बनाने या सीटों का तालमेल करने के लिए कभी कोई औपचारिक वार्ता नहीं हुई थी और अंततः चुनाव की निर्णायक अवधि में जनता दल के साथ उनके बढ़ते हेलमेल को देखकर हमने उनके साथ कोई सांकेतिक संश्रय बनाने से भी इनकार कर दिया. बाद में, जब वे फिर वापस आए तो समता पार्टी ने उनके साथ संश्रय बनाया. हम उसमें भी कभी शामिल नहीं हुए.

क्या श्रीमान एके राय हमें बताएंगे कि यहां सिद्धांतों को कहां कुर्बान किया गया? इसके विपरीत, श्रीमान एके राय – जो अलग झारखंड राज्य के अग्रणी प्रवक्ता रहे हैं , जो बाहरी बिहारिओं के मुकाबले स्थानीय निवासिओं  के हितो को  बुलंद किए जाने के आधार पर झामुमो के निर्माण के पीछे मुख्य प्रेरणा-स्रोत रहे थे, और जो इस हद तक कहते थे कि ‘झारखंड बिहार का आंतरिक उपनिवेश है’ – तब भी लालू यादव से चिपके रहे, जबकि उन्होंने (लालू यादव ने) झारखंड के मामले में विशिष्ट ‘बिहारी उपनिवेशवादी’ की स्थिति अख्तियार कर ली थी. उसूलों को ताक पर रख देने के बाद अगर एके राय वामपंथ की पहचान खो जाने पर आंसू बहा रहे हैं, तो इसके लिए कौन दोषी है?

अब झामुमो राजी-खुशी राष्ट्रीय मोर्चा में वापस चला आया है, और रामो-वामो गठबंधन के जरिए श्रीमान राय समेत पूरा वामपंथ फिर से झामुमो के साथ संबंध बहाल करेगा, बगैर यह बताने की चिंता किए हुए कि यह संबंध कितना उसूली होगा.

कृषि संघर्षों का राजनीतिक महत्व

श्रीमान तिलक डी गुप्ता इस बात के लिए हमारी प्रशंसा करते हैं कि पार्टी द्वारा कृषि संघर्षों में गोलबंद किए गए मेहनतकश ग्रामीण समुदाय का एक अच्छा-खासा हिस्सा चुनाव के समय जनता दल के पक्ष में चला गया, फिर भी हमारी उपलब्धि बरकरार रही.

सबसे पहले तो मैं यह बताना चाहूंगा कि हमारे पार्टी का अधिसंख्य हिस्सा, जो पांच वर्ष पहले हमें मिले वोटों के लगभग समतुल्य है, उसी मेहनतकश ग्रामीण समुदाय से आया है जिन्हें कृषि संघर्षों में गोलबंद किया गया है. जनता दल की ओर ऐसे वोट के खिसक जाने की परिघटना बुनियादी तौर पर जहानाबाद जिले तथा पटना जिले के एक-दो चुनाव क्षेत्रों तक ही सीमित रही. विक्रमगंज और बाराचट्टी में भी, जहां पहले हमने जीत हासिल की थी, हमारे वोटों में तेजी से गिरावट आई. लेकिन यहां मुख्यतः मध्यम तबकों का वोट खिसका, जो पिछली बार हमारे साथ आया था. इस बार वहां जो भी वोट हमें मिले, वह पूरी तरह भूमिहीन गरीब तबकों के थे.

शाहाबाद जोन में हमने अपनी स्थिति कमोबेश बरकरार रखी. दक्षिण बिहार में हम थोड़ा ऊपर उठे और पश्चिमोत्तर अंचल में हमने असरदार बढ़त हासिल की. जहानाबाद की पराजय वहां की गंभीर संगठनात्मक गड़बड़ियों से घनिष्ठ तौर पर जुड़ी हुई है. ये गड़बड़ियां हमारी राजनीतिक दिशा से विचलन, अर्थात् कृषि संघर्षों में महेनतकश जनता को गोलबंद करने की दिशा से विचलन,  के कारण पैदा हुई हैं. और, यह विचलन भी उस परिस्थिति में आया है, जबकि पार्टी को पीयू-एमसीसी के हमलों का मुकाबला करना पड़ रहा था. इन ताकतों को हमारे खिलाफ भड़काना लालू यादव की सुनियोजित रणनीति का ही एक अंग था और एमसीसी व पार्टी यूनिटी के साथ झगड़ों को बातचीत के जरिए हल करने के हमारे तमाम प्रयासों का उनकी ओर से कोई सकारात्मक जवाब हमें नहीं मिला. इसके अलावा, प्रशासनिक दुश्मनी तो जहानाबाद में अपने चरम पर थी.

चुनाव के बाद ही हम जहानाबाद में वरिष्ठ नेताओं का एक समूह भेज सके हैं और कतारों को एकताबद्ध करते हुए  पार्टी को   पुनरुर्ज्जीवित करने के लिये सशक्त सांगठनिक कदम उठा सके हैं  तथा कृषि संघर्षों में महेनतकश जनसमुदाय को गोलबंद करने के रास्ते पर लौट आए हैं       

जहानाबाद अत्यंत विशेष किस्म का अपवाद है और एक विशिष्ट उदारहण है, जो दिखाता है कि अराजकतावादी कैसे शासक वर्गों के हितों की सेवा करते हैं. एमसीसी-पार्टी यूनिटी जहानाबाद में जनता दल के हक में हमारी पार्टी को बड़ी हद तक नुकसान पहुंचाने में सफल रहे हैं, लेकिन क्या चुनाव बहिष्कार पर आधारित कोई वैकल्पिक राजनीतिक मॉडल विकसित करने में वे सफल हुए? उनका चुनाव बहिष्कार का आह्वान दुस्साहसबाद की ओर मुड़ा और अंततः बुरी तरह निष्फल साबित हो गया. जैसा कि अनेक पत्रकार भी बताते हैं, जमीनी रिपोर्ट साफ साबित करती है कि उनके कार्यकर्ताओं और समर्थकों के एक बड़े हिस्से ने जनता दल को वोट दिया. तीखे राजनीतिक उथल-पुथल के समय राजनीतिक रूप से इन ग्रुपों का कोई वजूद नहीं रह पाया.

इसके विपरीत, हमारे चुनावी समर्थन में बुनियादी रूप से हमारी पार्टी द्वारा संचालित कृषि संघर्षों की राजनीतिक झलक दिखाई पड़ती है. श्रीमान गुप्ता इस तथ्य को स्वीकार करते हैं, जब वे कहते हैं कि “यह काफी महत्वपूर्ण है कि लालू प्रसाद समर्थक लहर के सम्मुख उत्तर बिहार के समतल में सीपीआई(एमएल) ग्रुप ने पहली बार दो सीटें जीती हैं, जो संकेत करता है कि कृषि आंदोलन दक्षिण और मध्य बिहार के अपने परम्परागत नक्सलपंथी गढ़ से बाहर भी लगातार फैल रहा है.”

इसका मतलब यह नहीं कि मैं जहानाबाद में अपनी कमजोरियों को कम महत्व दे रहा हूं. पार्टी को चरम उकसावे की स्थिति में भी कृषि संघर्षों की अपनी दिशा पर अडिग रहना चाहिए. लेकिन जहानाबाद में हम इस मामले में बुरी तरह विफल रहे. मैं केवल यह बताना चाहता हूं कि यह सूत्रीकरण मूलतः गलत है कि “पार्टी द्वारा कृषि संघर्षों में गोलबंद किए गए मेहनतकश जनसमुदाय का एक अच्छा-खासा हिस्सा चुनाव के समय जनता दल में चला गया.” इसके विपरीत ऐसा केवल उन क्षेत्रों में हुआ जहां पार्टी इस या उस कारण कृषि संघर्षों में ग्रामीण जनसमुदाय को गोलबंद करने पर उचित ध्यान नहीं दे सकी.

श्रीमान गुप्ता ने हमारी “बढ़ी-चढ़ी उम्मीदों” का भी जिक्र किया है. यह सच है कि हमारे नतीजे हमारी आशाओं से काफी कम थे – हम 12-13 लाख वोट तथा 10-12 सीटों की उम्मीद कर रहे थे, जिससे हमें मान्यता मिल जाती. यह लक्ष्य पार्टी की पहुंच से बहुत दूर नहीं था. प्रशासनिक बैर, एक वरिष्ठ पार्टी नेता की हत्या, सम्पूर्ण चुनाव प्रक्रिया में असामान्य बिलम्ब जिससे बड़ी-बड़ी पार्टियों को दांव-पेंच खेलने का पर्याप्त मौका मिल गया, महाराष्ट्र-गुजरात के चुनावी नतीजे जिसने जनता दल और भाजपा के बीच तीखे ध्रुवीकरण को अंजाम दिया और चुनाव धांधली आदि कारकों ने भी हमारी चुनावी संभावनाओं को काफी हद तक प्रभावित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. हमने शुरू में ही बताया था कि 25 क्षेत्रों में हमारी स्थिति मजबूत है और वहां हम प्रतिद्वंद्विता में रहेंगे. इनमें से छह सीटें हमें मिलीं, आठ स्थानों पर हम दूसरे स्थान पर रहे तथा अन्य दस जगहों पर हमें 15 से 28 हजार तक वोट मिले. 25 वां सीट हिलसा में चुनाव स्थगित हो जाने के कारण हमारी संभावनाओं पर बहुत बुरा असर पड़ा था समता पार्टी, जो प्रथम दौर के चुनावी दौड़ में कहीं नजर नहीं आती थी, दूसरी बार मुख्य प्रतिदंद्वी के बतौर सामने चली आई. हां, हमारे पहले की 25 सिटों में भोरे की जगह बाराचट्टी का नाम था और यही एकमात्र विसंगति थी. मैंने यह दिखाने के लिए विस्तार से चर्चा की है कि इन जमीनी हकीकतों के सम्मुख हमारी उम्मीदों को कहीं से भी “बढ़ी-चढ़ी” नहीं कहा जा सकता है.

इतना कह लेने के बाद मैं यह बताना चाहूंगा कि बढ़ी-चढ़ी उम्मीदें जरूर मौदूज थीं जो सतही मनोगत कारकों – जैसे, ऊंची जातियों का नकारात्मक वोट पा लेने की उम्मीद, जहां-जहां समता पार्टी प्रतिद्वंद्विता में नहीं थी वहां कुर्मियों का वोट पाने की उम्मीद, उम्मीदवार विशेष को उसकी अपनी जाति का वोट मिलने की आशा आदि – के आधार पर पनपी थीं. इस इच्छाजनित चिंतन ने स्वभावतः सीटों की उम्मीदों 25 से 30 तक और इससे भी अधिक बढ़ा दी. लेकिन ध्यान रहे, यह किसी भी तरह पार्टी की आधिकारिक स्थिति नहीं थी, बल्कि यह पेट्टीबुर्जुआ मनोगतवाद और संसदीय बौनेपन की ही अभिव्यक्ति थी, जिससे नेताओं का एक हिस्सा तथा बड़ी मात्रा में कतारें प्रभावित हो गई थीं. जब कभी चुनाव नजदीक आते हैं और चुनावी बुखार जोर पकड़ता है तो बहुत से लोग दिवास्वप्न देखने लगते हैं और किसी संयत मूल्यांकन पर गौर करने से इनकार कर देते हैं. यह एक गंभीर भटकाव है जो इसके बाद अनिवार्यतः हताशा और उदासी को जन्म देता है. पार्टी को लगातार इस प्रवृत्ति से लड़ना पड़ता है.

श्रीमान गुप्ता ने आलोचना के लिए एक विषय चुना है और वह है समता पार्टी के साथ संश्रय बनाने के हमारे तथाकथित गैरउसूली प्रयास. समता पार्टी के बारे में उनका ख्याल है कि वह जनता दल से ज्यादा दक्षिणपंथी है और इसीलिए वे हमारे प्रयासों को सीपीआई व सीपीआई(एम) मार्का राजनीतिक अवसरवाद करार देते हैं. श्री गुप्ता ने खुद यह स्वीकार किया है कि सीपीआई और सीपीआई(एम) की अपेक्षा हमने बिलकुल अपने बलबूते पर चुनाव अभियान संचालित किया है. वे यह भी मानते हैं कि उत्तर बिहार में हमारी जीत कृषि संघर्षों के बढ़ते विस्तार का सूचक है. संश्रय के मामले में भी, चतुरानन मिश्र और एके राय से अलग, उन्होंने “गैरउसूली प्रयासों” का ही हवाला दिया है क्योंकि वे अच्छी तरह जानते हैं कि यह संश्रय महज एक टोकेन संश्रय बनकर रह गया था. अब जनता दल के साथ सीपीआई और सीपीआई(एम) ने जो “मुकम्मल संश्रय” कायम किया उसके विपरीत हमारे संश्रय का टोकेन संश्रय में बदल जाना अपने आप में इस बात का प्रतीक है कि हमारी पार्टी अपनी पूर्ण स्वतंत्रता को बुलंद रखने पर, कृषि संघर्षों के तामाम केंद्रों में – उन जगहों में भी जहां पार्टी कुर्मी कुलकों के खिलाफ ऐतिहासिक रूप से संघर्षों में संलग्न रही है – अपने उम्मीदवार खड़े करने पर एवं समता पार्टी के छुटभैये की भूमिका निभाने तथा एक मुश्तरका घोषणापत्र, मुश्तरका कार्यक्रम और मुश्तरका अभियान में शामिल होने से इनकार करने पर दृढ़तापूर्वक डटी रही.

समता पार्टी के साथ हमारे संबंध

समता पार्टी के बारे में मैंने राज्यस्तरीय कार्यकर्ता सम्मेलन (पटना, अगस्त 1994) में जो कुछ कहा था, उसे उद्धृत कर रहा हूं : “और जनता दल (जार्ज) के मामले में मैं एक बात साफ करना चाहता हूं कि नीतीश की धारणा या प्लैंक यही है कि जनता दल में यादवों की बहुलता है, यादव डॉमिनेशन है लालू यादव के माध्यम से, और हम उसके खिलाफ कुर्मी और दूसरी जातियों को संगठित कर रहे हैं. इस तरह की किसी धारणा से हमारी सहमति नहीं है. ... चूंकि यादव एक बहुत बड़ी संख्या में हैं बिहार में, और उनका एक बड़ा हिस्सा गरीब-मंझोल किसानों का है. ... हम यादव जाति के बीच भी विभाजन की कोशिश में लगे हुए हैं. ... और हम उम्मीद रखते है कि इसमें भी हमें सफलता मिलेगी. ... इसलिए नीतीश वगैरह की जो पूरी धारणा है उस पर तो हम नहीं चल सकते हैं. ये हमारा उनके साथ बुनियादी विरोध है. बल्कि उल्टे, वे जिस तरह से कुर्मी जाति को इकट्ठा कर रहे हैं, उसमें कुर्मी जाति के कुलक हिस्से से हमारा संघर्ष ही है इस मुद्दे पर.” (लोकयुद्ध, सितम्बर 1994)

फिर फरवरी 1995 में जब सीटों के तालमेल की वार्ता भंग हो गई तब मैंने लिखा : “हमने समता पार्टी के साथ चुनावी तालमेल करने का प्रयास वास्तव में इसलिये किया क्योंकि हम लालू बनाम नीतीश या यादव बनाम कुर्मी के विभाजन की राजनीति को दरकिनार करते हुए इस पार्टी को सामाजिक परिवर्तन के एजेंडे पर अपनी तरफ लाना चाहते थे. हालांकि इस जोखिमभरे काम में हमें सफलता नहीं मिली क्योंकि इस पार्टी के नेतागण जाति-आधारित जोड़तोड़ के द्वारा सत्ता पाने के इच्छुक हैं और हमारी पार्टी को हाशिये पर ढकेलने का प्रयत्न करते रहे हैं. हम कम्युनिस्टों के लिए बुर्जुआ लोकतंत्र की किसी भी ताकत के साथ तालमेल का अर्थ कत्तई अपनी स्वतंत्रता का विसर्जन नहीं हो सकता और न ही अपने विकास व विस्तार की कीमत पर हम किसी बुर्जुआ पार्टी को शासन में आने के लिए मदद कर सकते हैं.” (लोकयुद्ध, फरवरी 1995 से)

यहां मैं एक बार फिर स्पष्ट कर दूं कि जार्ज फ्रर्नांडीज के एचएमकेपी के साथ हमारे संबंध जनता दल में फूट के कई महीना पहले ही निर्मित हो चुके थे, जब हम डंकल प्रस्तावों के खिलाफ संयुक्त संघर्ष में शामिल हुए थे. फिर भी, बिहार में समता पार्टी के नेतागण हमारे साथ संयुक्त कार्यवाही चलाने या संश्रय बनाने को अनिच्छुक थे. उन्होंने सीपीआई और सीपीआई(एम) के साथ और फिर आनन्द मोहन के साथ कई दौर की वार्ताएं कीं. हमने यह स्पष्ट कहा कि जबतक वे बीपीपा के साथ अपने तमाम सम्पर्कों को समाप्त नहीं कर देते तबतक हमारे साथ कोई संश्रय नहीं बन सकता. जब उन्होंने बिपीपा की खुली भर्त्सना की तभी बुद्धिजीवियों के एक सेमिनार के रूप में औपचारिक वार्ता शुरू हो सकी, जिसमें दलितों के सवाल पर मेरे और नीतिश की अवधारणाओं में जो फर्क आया वह किसी भी सचेष्ट श्रोता के लिए बिलकुल स्पष्ट था. समता पार्टी के साथ हमारे संबंधों में कुछ भी छिपा हुआ नहीं था. और जब उनलोगों ने जनता दल-सीपीआई-सीपीआई(एम) संबंधों की तर्ज पर हमें भी छुटभैया के दर्जे में धकेलने की कोशिश की और ‘कौन कहां जीत सकता है’ इसे ही सीट बंटवारे का आधार बना लिया, तभी हमने उनके साथ संबंध तोड़ डालने का फैसला ले लिया. हमने उन्हें बिलकुल साफ लहजे में बताया कि हम उन तमाम सीटों पर लड़ेंगे जो हमारे आंदोलन की आवश्यकताओं के संदर्भ में हमारे लिए राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण हैं. जीत या वोटों की संख्या कोई मायने नहीं रखती है. वार्ता भंग हो गई और हमलोगों ने अकेले ही लड़ाई में कूदने का फैसला लिया. अंतिम क्षणों में उनके केंद्रीय नेतृत्व द्वारा बार-बार आग्रह किए जाने के बावजूद हमलोग सिर्फ टोकन संश्रय के लिए राजी हुए. संश्रय निर्मित करने के दौरान और अंततः एक टोकन संश्रय तक इसके सीमित हो जाने की प्रक्रिया में समता पार्टी के साथ समूचे संघर्ष की गहरी छानबीन करने पर किसी भी तटस्थ पर्यवेक्षक को पता लगेगा कि हमारी कार्यनीति उस “राजनीतिक अवसरवाद” के निषेध पर ही आधारित है जो “अतीत के भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन में हर हमेशा परिलक्षित होता रहा है.”

संश्रय की लेनिनवादी कार्यनीति

इस प्रकार संश्रय सम्पन्न करने तक की पूरी प्रक्रिया में कुछ भी गैरउसूली नहीं था. हां, समता पार्टी के वर्ग चरित्र आदि के चलते इसके साथ संश्रय बनाने के निर्णय के ही सवाल पर आप आपत्ति जरूर उठा सकते हैं. लेकिन यहां पर आपको व्यावहारिक राजनीति की कठोर सच्चाई को हरगिज नहीं भूलना चाहिए. जनता दल के पांच वर्षों के शासनकाल में एकमात्र हमलोग ही विपक्ष की भूमिका में रहे. सीपीआई और सीपीआई(एम) तो लालू यादव के साथ थे और एमसीसी व पार्टी यूनिटी हमें उखाड़ने पर ही तुले हुए थे. लालू यादव ने हमारे विधायक दल को तोड़ डाला और हमलोग अपने सात विधायकों में से चार को खो बैठे. मंडल मसले को उभार कर वे ओबीसी के मध्य हमारे समर्थक आधार को काटते जा रहे थे. पार्टी कतारों का एक हिस्सा हमें छोड़ कर जनता दल में शामिल हो गया. आम छवि यही बनती जा रही थी कि जनता दल और एमसीसी हमारे सामाजिक आधार को छीनते जा रहे हैं और लालू यादव ने घमंड में आकर यह घोषणा की कि हमारी पार्टी हमेशा के लिए खत्म हो चुकी है. एमसीसी-पार्टी यूनिटी भी उछलते हुए यही घोषणाएं करते फिर रहे थे. सचमुच हमलोग चारों ओर से घिरे हुए थे.

ठीक इसी मोड़ पर आकर हमलोगों ने संकट को दूर करने और पार्टी में नई जान फूंकने के लिए अनेक कदम उठाए. इनमें पहला कार्यभार था कृषि संघर्षों को तेज करने और उत्तर बिहार में लालू यादव के गढ़ तक नए-नए क्षेत्रें में इसे फैला देने का. दूसरे, हमलोगों ने सामाजिक न्याय के बरखिलाफ सामाजिक परिवर्तन का नारा दिया और पटना में एक विशाल रैली आयोजित की. तीसरे, जनता दल के खेमे तक युद्ध की सीमाओं का विस्तार करने के लिए हमने 1974 आंदोलन की भावना को फिर से जीवित किया तथा जनता दल के अंदर तमाम जनवादी तत्वों से आह्वान किया कि वे भ्रष्टाचार और 1974 आंदोलन के साथ गद्दारी के खिलाफ उठ खड़े हों. हमने जार्ज फर्नांडीज की पेशकश को स्वीकार किया क्योंकि इसमें हमने जनता दल के अंदर होनेवाले विभाजन को भांपा था. कुछ ही महीनों बाद इस विभाजन ने ठोस शक्ल ग्रहण किया और टूटकर अलग होनेवाले लोगों ने 1974 आंदोलन के मामले को ही अपना आधार बनाया. बिहार में मुख्य दुश्मन के बतौर जनता दल का सामना करने के संदर्भ में उसके अंदर किसी भी फूट का इस्तेमाल करने की हमारी कार्यनीति पूरी तरह उचित थी. यह और भी उचित इसलिए था कि चूंकि खुद हमलोगों ने इस विभाजन को तेज करने में उत्प्रेरक की भूमिका निभाई थी. समता पार्टी की दक्षिणपंथी संभावना से इनकार न करते हुए उन ठोस स्थितियों पर गौर करना ही होगा, जिसके तहत उसके लिए ग्रामीण गरीबों के हितों की विरोधी नीतियों पर चलना काफी दुष्कर होता और जिसके तहत उसे मध्य-वाम स्थिति में लाया जा सकता था.
यह ध्यान रहे कि जद सरकार के खिलाफ पूरे पांच वर्षों के अपने संघर्ष के दौरान हमलोगों ने कांग्रेस और भाजपा जैसी किसी भी दक्षिणपंथी विरोधी पार्टी के साथ कोई रिश्ता नहीं बनाया. अपनी ओर से हम वामपंथ के साथ घनिष्ठतर रिश्ता बनाने को ही पहली प्राथमिकता देते रहे. हमने हर ऐसे मौके का इस्तेमाल करने की कोशिश की. लेकिन उस समय की ठोस राजनीतिक परिस्थितियों ने हमें करीब होने से रोक दिया. अब की बदली हुई परिस्थितियों में, जब जनता दल ने खुद ही बहुमत प्राप्त कर लिया है, सत्ता में शामिल होने की सीपीआई की इच्छा पर पानी फिर गया है और इसे बाध्य होकर विपक्ष के बेंच पर बैठना पड़ रहा है. इस तरह एक बार फिर राजनीतिक बाध्यताओं के अंतर्गत वामपंथी एकता की प्रक्रिया आवेग ग्रहण कर रही है.

अलगाव में बने रहने को स्वतंत्रता का दर्जा देकर महिमामंडित करना काफी क्रांतिकारी प्रतीत हो सकता है लेकिन यह महज एक बचकाना मर्ज है जिससे आंदोलन को सिर्फ नुकसान ही हो सकता है. जन आधारित संश्रयकारियों की तलाश, चाहे वे कितना भी तात्कालिक क्यों न हों, तथा अपने मुख्य दुश्मन के खेमे के अंदर हर टूट-फूट का इस्तेमाल मार्क्सवादी-लेनिनवादी कार्यनीति का एक अभिन्न अंग है. समता पार्टी और झामुमो के साथ संश्रय बनाने की अपनी कोशिशों के जरिए हम इसी कार्यनीति को लागू कर रहे थे और लालू यादव के पांच वर्षों के कैरियर की यही वह अल्प अवधि थी, जबकि हम उनपर हावी हो गए थे और हमने उन्हें करवट बदलते रात बिताने को मजबूर कर दिया था. संश्रय के अंदर रहते हुए भी सर्वहारा की पार्टी की निरपेक्ष स्वतंत्रता कायम रखना पार्टी व्यवहार की एक नवीनतर अवस्था थी और इस व्यवहार के दौरान सीपीआई(एमएल) पर कोई दाग नहीं लगा और वह विजयी होकर निकली. हमारे बदतरीन विरोधियों को भी यह मानना पड़ा कि सीपीआई(एमएल) के वोट इसकी अपनी शक्ति पर और ग्रामीण गरीबों के कृषि संघर्षों के बल पर आधारित थे.

शेषन परिघटना

यहां मैं यह भी कह दूं कि ‘बिहार में, जहां समूची चुनाव प्रक्रिया एक मखौल बना दी गई है,’ “स्वतंत्र निष्पक्ष” चुनाव कराने की शेषन की कोशिशों का हमने जरूर समर्थन किया था. लेकिन हम इसकी सीमाओं को भी जानते हैं. आदर्श बुर्जुआ अर्थ में ‘स्वतंत्र व निष्पक्ष’ चुनाव का मतलब बूथ कब्जा जैसी खुली उत्पीड़नकारी प्रक्रिया से इसे मुक्त कराना भर हो सकता है. दूसरे शब्दों में इसका तात्पर्य है नतीजों को निर्धारित करने में पूंजी को खुला खेल खेलने की छूट देना और इसीलिए बुर्जुआ समाज में ‘स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव’ अपनी मूल प्रकृति में बुर्जुआ ही बना रहता है.

बहरहाल, हमने चुनावी प्रक्रिया को कई चरणों में बांटने तथा इसमें बिलंब करने जैसी शेषन की मनमानी कार्यवाहियों का कभी समर्थन नहीं किया और हमने यह वक्तव्य जारी किया कि यह सब कांग्रेस(आइ) की मदद करने के लिए किया जा रहा है. विपक्ष की तमाम राजनीतिक पार्टियों के विपरीत तथा समता पार्टी के नेताओं की बारंबार अपीलों के बावजूद हमने बिहार में राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग का कभी समर्थन नहीं किया. चुनावी गड़बड़ियों के बारे में चुनाव आयोग के सम्मुख कांग्रेस(आइ) और भाजपा के संग संयुक्त प्रतिनिधिमंडल में जाने से भी हमने इनकार कर दिया, हालांकि समता पार्टी के नेता यही सलाह दे रहे थे. इसलिए श्रीमान गुप्ता का हम पर लगाया गया यह आरोप गलत है कि हम इस मामले में अन्य विपक्षी पार्टियों का मौन समर्थन कर रहे थे.

श्री गुप्ता अच्छी-खासी संख्या में विधायकों की पराजय में प्रतिष्ठान (इस्टैबलिशमेंट) विरोध की प्रवृत्ति देखने की कोशिश कर रहे हैं. इस अवधारणा पर विवाद किया जा सकता है, लेकिन स्थानाभाव के कारण इस पर हम यहां बहस में नहीं जा रहे हैं. उन्होंने अपने दावे की पुष्टि के लिए हमारे सात विधायकों में से एक को छोड़कर बाकी तमाम लोगों की हार का उल्लेख किया है. यहां यह बताना आवश्यक है कि हमारे चार विधायक पहले ही जनता दल में शामिल हो गए थे. उन गद्दारों के खिलाफ व्यापक पार्टी अभियान के सम्मुख जनता दल ने उनमें से तीन को उम्मीदवार ही नहीं बनाया. हमारे तीन में से दो विधायक चुनाव हार गए किन्तु उनमें से एक विधायक को पहले से कुछ ज्यादा ही वोट मिले.

लालू चमत्कार के पीछे की असलियत

श्री गुप्ता लालू की विजय के कारण के बतौर उनके व्यक्तिगत चमत्कार, जनसाधारण के साथ उनकी एकरूपता और लंबे समय से उत्पीड़ित खामोश जनसमुदाय को उनके द्वारा आवाज प्रदान किए जाने की परिघटना का हवाला देते हैं. बहुत खूब! लेकिन उनकी विजय की व्याख्या कैसे की जाए? यह एक तथ्य है कि सीपीआई(एमएल) के गढ़ों को छोड़कर जनता दल ने ग्रामीण गरीबों की बहुसंख्या का समर्थन अवश्य प्राप्त किया और वे ग्रामीण करीब उनकी ढकोसलेबाजी में बहा लिए गए. ठीक उसी तरह जिस तरह कि पहले उन्होंने इंदिरा गांधी का समर्थन किया था और अभी एनटी रामाराव तथा जयललिता का समर्थन कर रहे हैं. हमारी पार्टी ने चुनावों में ग्रामीण गरीबों की दावेदारी का स्वागत किया, जो एक सम्मानित और बेहतर जीवन के लिए उनके प्रयासों की ही एक अभिव्यक्ति है. लेकिन इतने भर से जनता दल की विजय का पूरा अभिप्राय अभिव्यक्त नहीं हो जाता है. अगर जनता दल के साथ  प्रशासन के सक्रिय सांठगांठ के आरोप को ठुकरा भी दिया जाए तो लालू यादव समेत किसी ने भी बिहार प्रशासन पर यह आरोप नहीं लगाया कि वह किसी भी तरह जनता दल के हितों के खिलाफ काम कर रहा था. अगर बिहार प्रशासन बड़े भूस्वामियों के साथ घनिष्ठ रूप से संबंधित है, जैसा कि श्री गुप्ता खुद बताते हैं तो भला यह प्रशासन ‘गरीबों के मसीहा’ के प्रति दोस्ताना आचरण क्यों कर रहा था?

यह नहीं भूल जाना चाहिए कि जनता दल के बहुत सारे विधायक मशहूर अपराधी हैं. और उनमें से अनेक विधायक ऊंची जातियों से, खासकर राजपूत जाति से और कुख्यात सामंती पृष्ठभूमि से आते हैं. इस तथ्य को भी याद रखा जाना चाहिए कि वैशाली के उपचुनाव में जनता दल ने सत्येंद्र नारायण सिंह की पत्नी को ही अपना उम्मीदवार बनाया था. लालू यादव का दूसरा चेहरा तब खुलकर सामने आ गया, जब उन्होंने ऊंची जाति के कुलीन तबकों का समर्थन जुटाने का प्रयत्न किया, इस तर्क पर कि केवल वे ही हैं जो उन्हें नक्सलवादी हिंसा से बचा सकते हैं.

अपने पांच वर्षों के शासनकाल में उन्होंने अनेक शक्तिशाली सामंती तत्वों को, जो पहले कांग्रेस(आइ) और भाजपा में शामिल थे, खुले हाथ समर्थन और सुविधाएं जुटाकर अपने पक्ष में जीत लिया. राजपूत जद विधायक अशोक सिंह, जिनकी हाल ही में हत्या कर दी गई, और कोई नहीं बल्कि प्रभुनाथ सिंह के कुख्यात माफिया गिरोह के एक शक्तिशाली सदस्य थे और उनके रिश्तेदार भी थे. लालू ने उस गिरोह को तोड़ दिया और प्रभुनाथ सिंह के खिलाफ अशोक सिंह को संरक्षण दिया. यह तो एक प्रतिनिधि उदाहरण है, वास्तव मे ऐसे उदाहरणों की तादाद काफी बड़ी है.

मुस्लिम समर्थन हासिल करने के लिए धार्मिक रूढ़िवाद को चरम सीमा तक भड़काया गया और कुछेक अपवादों को छोड़कर मुस्लिम कुलीन तबका भी लालू यादव के पीछे मजबूती से खड़ा रहा.

संक्षेप में, लालू के व्यक्तिगत चमत्कार के पीछे विभिन्न शक्ति समूहों और ऊंची जातियों का एक अच्छा-खासा हिस्सा समेत कई प्रभुत्वशाली जातियों के भूस्वामी तबकों का एक सामाजिक गठबंधन छिपा हुआ है. अगर इस सामाजिक कारक को आप नहीं समझेंगे तो लालू यादव की विजय की एकतरफा, उदारवादी व सामाजिक जनवादी व्याख्या में आपको अनिवार्य रूप से फंस जाना होगा.

लालू यादव और कुछ नहीं बल्कि बिहार में बढ़ते क्रांतिकारी संघर्षों के प्रति शासक वर्गों का जवाब भर हैं. प्रशासन के साथ-साथ प्रभुत्वशाली शक्ति समूहों के बड़े हिस्से का जो समर्थन उन्हें मिल रहा है, उसके पीछे यही राज काम कर रहा है. लालू यादव अपने इस मिशन के बारे में काफी जागरूक हैं और आप उन्हें एक साथ सवर्ण भूस्वामी तबकों के सम्मुख खुद को हिंसक नक्सलपंथियों के विकल्प के बतौर उछालते हुए पा सकते हैं. जब वे यह दावा करते हैं कि नक्सलपंथियों ने गरीबों के हाथ में बंदूक थमाई हैं और उन्होंने उन्हें किताबें दी हैं तो वे अन्यथा बेहद हिंसक और हथियारबंद बिहारी समाज में जनता को मानसिक और भौतिक रूप से निहत्था बना देने के अपने मिशन का ही खुलासा कर रहे होते हैं.

‘लोकयुद्ध’ में लिखते हुए एक कामरेड ने हमारे चुनावी व्यवहार को इलाकावार सत्ता दखल से इलाकावार सीट दखल में संक्रमण कहकर इसकी खिल्ली उड़ाई है. लेकिन और गहराई में विश्लेषण करने पर पता चलेगा की कि हमारी चुनावी उपलब्धियां और हमारा सामंतवाद विरोधी संघर्ष घनिष्ठ रूप से संबंधित हैं. जिन क्षेत्रों में हमने जीत हासिल की है वहां हमारा संघर्ष भी सबसे तीखा है और अगर पिछले तीन माह कोई सूचक हैं, तो वे यही बताते हैं कि हमारी जीत ने संघर्ष की तीव्रता को और बढ़ाया ही है. वस्तुतः ये क्षेत्र संसदीय और गैरसंसदीय संघर्षों को मिलाने के शानदार मॉडल का प्रतिनिधित्व करते हैं. विधानसभा में हमारी हाशिए पर की उपस्थिति के बावजूद हम पिछले पांच वर्षों के दौरान बिहार की राजनीति की मुख्यधारा के एक प्रमुख अंग बने रहे. अगला पांच वर्ष भी इसका अपवाद नहीं होगा.