(7 जनवरी 1996 को पार्टी की बिहार राज्य कमेटी की ओर से पटना में आयोजित कार्यकर्ता सम्मेलन में दिया गया भाषण;
समकालीन लोकयुद्ध से, प्रमुख अंश)

नए वर्ष में यह हमारी पहली पहलकदमी है, इसलिए हमें यह सोच लेना चाहिए कि हमने पिछले वर्ष, यानी 1995 में क्या-क्या उपलब्धियां हासिल कीं और आने वाले चार-पांच महीनों में हमारे सामने क्या-क्या बड़ी जिम्मेदारियां आ रही हैं. राष्ट्रीय तौर पर देखें तो पिछले साल हमने आत्मनिर्भरता और सामाजिक न्याय के सवाल पर पूरे देश में एक राजनीतिक अभियान चलाया. इस अभियान के माध्यम से अपनी स्वतंत्र पहचान, अपने स्वतंत्र नारे के तहत हम उतरे और साथ ही साथ वामपंथ की तमाम किस्म की जो ताकतें हैं -- सीपीआई, सीपीएम जैसी या एमएल ग्रुप की कुछ और ताकतें – उन सबके साथ हमने अपनी एकता का विस्तार किया है और उसे बढ़ाने की कोशिशें की हैं.

दूसरी बात यह है कि राष्ट्रीय पैमाने पर तीसरी शक्ति या तीसरे मोर्चे के लिए हमारी पार्टी ने हस्तक्षेप करने की कोशिश की है कि जो भी तीसरा मोर्चा बने या तीसरी शक्ति जन्म ले उसका एजेंडा क्या हो, उसका कार्यक्रम क्या हो. क्या यह तीसरी शक्ति सिर्फ तमाम कांग्रेस-भाजपा विरोधी ताकतों की खिचड़ी होगी जिसका अपना कोई कार्यक्रम, कोई दिशा या कोई उसूल नहीं होगा, या फिर वे ताकतें किसी कार्यक्रम के आधार पर आपस में जुडेंगी. इस सवाल पर भी पिछले साल से हमने हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया है. इस सिलसिले में कुछ वामपंथी पार्टियों, कुछ वामपंथी बुद्धिजीवियों, कुछ दूसरी पार्टियों जैसे मुलायम सिंह अथवा जनता दल के कुछ हिस्से, रामविलास पासवान आदि ने भी हमसे बातचीत करनी चाही है. आमतौर पर उनकी अपनी पहलकदमी के जरिए ही उनसे कुछ बातचीत हुई है.

हालांकि, जैसी देश की परिस्थिति है उसमें कोई तीसरा मोर्चा बन पाएगा या नहीं और अगर बनेगा भी तो उसकी शक्ल क्या होगी यह सब सवाल अभी भी साफ नहीं है और अभी भी इसका भविष्य अनिश्चित है. इस सिलसिले में एक खास बात यह भी है कि पिछले दिनों दिल्ली में कुछ पत्रकारों से मेरी बातचीत हुई. वे वीपी सिंह से हुई अपनी बातचीत का हवाला देकर कह रहे थे कि वीपी सिंह का कहना है कि इस चुनाव में रामो-वामो के पास दांव लगाने के लिए बहुत कुछ नहीं बचा है. कांग्रेस अथवा भाजपा अपने बलबूते सरकार नहीं बना सकती है. ज्यादा संभावना इस बात की है कि कांग्रेस एवं भाजपा गठबंधन की सरकार बने. यह सरकार 1999 आते-आते गिर जाएगी और मध्यावधि चुनाव की स्थिति आ सकती है. अगर ऐसा हो जाए तो कारगर तरीके से उनका भंडाफोड़ किया जा सकता है और 1999 का संभावित मध्यावधि चुनाव रामों-वामों के वास्ते काफी अनुकूल अवसर प्रदान करेगा. तभी तो वीपी सिंह का हालफिलहाल में एक प्रेस वक्तव्य आया है कि हम 1999 तक चुनाव नहीं लडेंगे. उनके बुद्धिजीवी सलाहकार रजनी कोठारी ने भी इस राय से अपनी सहमति जाहिर की है. तो हमने एक सवाल वहां उठाया कि हो सकता है कि ऐसा हो, लेकिन ऐसा नहीं हुआ तो दूसरी संभावनाए भी हो सकती है कि कांग्रेस या भाजपा दोनों अपनी सरकार बनाने के लिए रामो-वामो के बीच से भी अपने समर्थक जुटा सकती हैं. क्योंकि पिछले पांच वर्षों का अगर विश्लेषण किया जाए तो कांग्रेस की राव सरकार, जो कि एक अल्पमत सरकार थी, जब बहुमत में बदली तो इसलिए नहीं कि भाजपा की ओर से एमपी लोग उसकी तरफ गए, बल्कि बड़ी संख्या में नए-नए लोग जो उसको मिले वो जनता दल या राष्ट्रीय मोर्चा की जो पार्टियां थीं उन्हीं के अंदर से जाकर लोगों ने कांग्रेस को शक्ति दी और कांग्रेस अल्पमत से बहुमत में बदल गई. यहां तक कि उसी रामो का एक हिस्सा टूट कर बीजेपी की ओर भी गया है. तो आने वाले दिनों में भी यब संभावना हो सकती है कि जिसे आप वाम मार्चा या राष्ट्रीय मोर्चा अथवा तीसरी ताकत कहते हैं, कांग्रेस या भाजपा उन्हीं ताकतों के बीच से अपने लिए लोग खरीदे, अपने पक्ष में ले आए और इसी से वह अपना बहुमत बना ले जाए. इसकी जगह निष्क्रियता का एक जो पूरा दर्शन ले आया जा रहा है वह गलत है. बल्कि ऐसी किसी संभावना को रोकने के लिए भी तीसरी ताकत के बहुत ज्यादा सक्रिय होने की जरूरत है और बहुत ज्यादा भूमिका लेने की जरूरत है.

लेकिन जैसा कि मध्यमार्गी पार्टियों की स्थिति है और जैसी कि सूचनाएं हैं, अभी भी जनता दल के अंदर से रामकृष्ण हेगड़े, आइके गुजराल जैसे लोग इस बात की लगातार वकालत कर रहे हैं कि कांग्रेस के साथ मिलकर ही भाजपा का मुकाबला किया जाए. तो हमलोगों ने इसीलिए कहा कि इन चीजों को रोकने के लिए सही मायने में भाजपा और कांग्रेस के खिलाफ तीसरा मोर्चा बन सके तथा टिक सके, एक सक्रिय विरोध पक्ष की भूमिका निभा सके, अपने अंदर के बिखराव को रोक सके –इन सब चीजों  के लिए भी जरूरी है कि सक्रिय रूप से पहलकदमी ली जाए. निष्क्रियता इसका जवाब नहीं हो सकता. लेकिन इस सिलसिले में उनके सबसे बड़े विचारक, दार्शनिक वीपी सिंह का जब यह हाल है तो उन मध्यमार्गी पार्टियों से आप बहुत ज्यादा आशा भी नहीं  कर सकते. इसलिए हम यह समझते हैं कि वामपंथ को, वामपंथी पार्टियों को इस सिलसिले में इस बार बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी. क्योंकि वे ही कांग्रेस एवं भाजपा के सवाल पर ज्यादा भरोसेमंद, ज्यादा दृढ़ और ज्यादा स्थायी ताकतें हैं. इसलिए इस चुनाव में कांग्रेस और भाजपा को परास्त करना जैसे जरूरी है शायद उससे भी ज्यादा जरूरी है कि वामपंथ की ताकतें मजबूत होकर उभरें, सामने आएं. तभी ऐसी किसी भी जीत को बरकरार रखा जा सकता है. आगे बढ़ाया जा सकता है. नहीं तो कांग्रेस और भाजपा को हराकर भी आप देखेंगे कि सरकार उन्हीं की बन रही होगी, क्योंकि आपके तीसरे मोर्चे में ही तमाम भटकाव होगा और उनके पक्ष में चीजें जाएंगी.

इन्हीं अर्थों में हम कहना चाहेंगे कि आज की राष्ट्रीय राजनीति में वामपंथ की जबरदस्त भूमिका है और वामपंथ की भूमिका का मतलब ही होता है कि उसे किसी कार्मक्रम के साथ उतरना पड़ता है. उसका अपना एक एजेंडा होना चाहिए जिसके आधार पर ही वह जनता के पास जाए और कांग्रेस हो या भारतीय जनता पार्टी हो, उनकी नीतियों का, उनकी विचारधारा का मुकाबला करे. इसलिए तीसरी ताकत के सवाल पर हस्तक्षेप करने की आवश्यकता है. राष्ट्रीय पैमाने पर ऐसा एक मोर्चा बन सके या उस मोर्चे की प्रक्रिया में हमारी पार्टी का भी असर हो और उसका कार्यक्रम बनने की तरफ चीजें आगे बढ़ें – यह हमारा एक संघर्ष है. यह जरूरी नहीं कि ऐसा हो जाए. लेकिन सवाल है कि ऐसा हो सके, इसके लिए हम जो संघर्ष करेंगे इसी संघर्ष की बदौलत हमारी पार्टी की प्रतिष्ठा बढ़ेगी, हमारी पार्टी का प्रभाव बढ़ेगा और व्यापक लोगों में इसका असर जाएगा कि तीसरी ताकत का एक आदर्शनिष्ठ, सिद्धांतनिष्ठ मोर्चा बनाने की कोई ताकत अगर है तो वह भाकपा-माले है. इसलिए हमारे सामने यह एक महत्वपूर्ण कार्यभार है जिसकी शुरूआत हमने पिछले वर्ष के अंत में की है और आने वाले कुछ महीनों में इस काम को हमें बहुत तेजी से आगे बढ़ाना है.

तो यह रही कुल मिलाकर राष्ट्रीय परिस्थिति की बात और उसके सामने आने वाली हमारी जिम्मेदारियां. अब जहां तक बिहार का सवाल है, राज्य की राजनीति का सवाल है, तो इसमें हमारी पार्टी ने पिछले वर्ष सबसे पहले चुनावों को केन्द्र करके राज्य भर में एक राजनीतिक अभियान चलाया. इस अभियान के जरिए हम अपनी बातें भी जनता के एक बड़े हिस्से में ले गए. यह बात भी स्थापित हुई कि अगर विरोध पक्ष की कोई ताकत है जिसने अपने बल पर चुनाव लड़ा, अपने बल पर जीतें हासिल कीं या कुल मिलाकर अपनी पुरानी स्थिति बरकरार रखने में कामयाब हुई तो वह हमारी पार्टी ही है. हमारा यह असर बिहार की राजनीति में गया. दूसरा, पिछले वर्ष जमीन के सवाल पर, अकेले हो या दूसरी वामपंथी पार्टियों के साथ मिलकर, हमने बड़े पैमाने पर संघर्ष चलाए हैं. यह संघर्ष कुछ-कुछ जगहों पर खासकर भोजपुर जैसे जिलों में काफी तीखा और लड़ाकू संघर्ष में बदला है. सामंतवाद विरोधी संघर्ष में सामंती ताकतों ने साम्प्रदायिक ताकतों से मिलकर हमसे लोहा लिया है. पूरे वर्ष हमने तमाम समस्याओं को झेलते हुए, प्रशासनिक दमन व सामंती ताकतों के हमलों को झेलते हुए यह लड़ाई चलाई. यह तो हम नहीं कहेंगे कि हमारी पार्टी ने यह लड़ाई जीत ली है लेकिन यह सच्चाई है कि इस लड़ाई में हमें जितना घेरा गया था, चारों तरफ से घेर कर हमें खत्म करने की जितनी कोशिशें हो रही हैं उस घेराव को हमने तोड़ा ही और पहले के मुकाबले वहां अपनी स्थिति हमने सुधारी है और दुश्मन के खेमे में ही संकट पैदा किया है.

तीसरी बात है कि पिछले वर्ष हमने कई राजनीतिक अभियान चलाए हैं. बेगूसराय में गोली चली. उसके खिलाफ पूरे बिहार स्तर पर एक बंद संगठित किया गया. इसके अलावा, झारखंड में ‘झारखंड स्वायत्त परिषद को भंग कर नया चुनाव कराने’ की मांग पर वहां पार्टी की ओर से एक बहुत ही सफल बंद का आयोजन किया गया. इसके अलावा भी चाहे भोजपुर हो, सीवान या चंपारण हो तमाम जगहों पर नरसंहारों के सवाल पर जिले के स्तर पर काफी सफल बंद अभियान चलाए गया. पटना में भी जो तथाकथित सैंदर्यीकरण हो रहा है उसके खिलाफ भी हमारी पार्टी ने पटना बंद कराकर पहलकदमी ली. इस तरह के राजनीतिक अभियान और जनसंहारों के खिलाफ, पुलिस की गुंडागर्दी के खिलाफ या अन्य लोकप्रिय सवालों पर भी हमने आंदोलन चलाए हैं.

इसके अलावा, पिछले साल चुनावों से जो हमें पता लगा था, खासकर जहानाबाद, रोहतास या इस तरह के कुछ जिलों में जहां पार्टी की स्थिति काफी खराब हो गई थी, जनता से अलगाव हो चुका था तो वहां भी पार्टी काम को नए सिरे से संगठित किया गया है और इस अलगाव को काफी हद तक दूर किया गया और कुछ नए-नए इलाकों में भी पार्टी के कामकाज को फैलाया गया है. इसके अलावा, पिछले वर्ष हमने वामपंथी ताकतों के साथ, वो चाहे सीपीआई हो या सीपीएम हो; यहां तक कि पार्टी यूनिटी जैसी भी ताकत हो, इनके साथ भी हमने रिश्ते सुधारे हैं; उनको कुछ व्यापक किया है. खासकर, औद्योगीकरण के सवाल पर सरकार की मजदूर विरोधी जो नीति है, उसके खिलाफ तमाम केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों के साथ मिलकर संघर्ष बढ़ाए गए हैं. तो पिछले वर्ष की ये हमारी उपलब्धियां रही हैं.

इन तमाम सवालों से एक सवाल जो उभर कर आता है कि बिहार में जनता दल की इस सरकार के प्रति हमारा रुख क्या होना चाहिए, हमारी कार्यनीति क्या होना चाहिए. यह एक महत्वपूर्ण सवाल है. जैसा कि कुछ साथियों ने कहा कि उनको पिछली बार 27 प्रतिशत वोट मिले या 25 प्रतिशत वोट मिले और बाकी वोट विरोधी पक्षों में बंट गए इसलिए वे जीत गए हैं. मैं एक बात नहीं समझ पा रहा. मान लीजिए जनता दल सत्ता में है. उसके खिलाफ हमारा संघर्ष रहेगा यह सही बात है. लेकिन हम समझते हैं कि इन परिस्थितियों में कांग्रेस या भाजपा के सत्ता में रहने के बजाय जनता दल जैसी ताकत का सत्ता में रहना ज्यादा बेहतर है. क्योंकि अगर हम ऐसा सोचें कि जनता दल किसी तरह से हार जाए और वामपंथ इस हालत में नहीं है कि जद की जगह वह आ जाए तो यहां कांग्रेस की सत्ता बनेगी या भाजपा की बनेगी. तो एक बात पर हमलोगों को साफ हो जाना चाहिए कि जनता दल से अथवा लालू यादव से हमारे विरोध का मतलब यह नहीं होना चाहिए कि उसकी जगह कांग्रेस या भाजपा आ जाए. इस तरह का रुख हम नहीं रखते हैं. इस सिलसिले में हम यह चाहते हैं कि तुलनात्मक रूप से जनता दल यहां सत्ता में रहे और उसके साथ हमारा संघर्ष चले. यह संघर्ष लंबा खिंच सकता है लेकिन कुल मिलाकर, हमारे अपने आंदोलन के विकास के लिए यह अपने आप में एक बड़ी चुनौती भी है और बड़ी संभावना भी है.

जनता दल, मतलब यह कि मध्यमार्गी पार्टी का सत्ता में बने रहना, इसका मतलब कि वे तमाम लुभावने नारे और इस तरह की तमाम बातें या जिस सामाजिक आधार में आप काम कर रहे हैं उसी में जद द्वारा तोड़-फोड़ – तो यह एक बहुत बड़ी चुनौती है. अगर आप इस तरह की चुनौतियों का मुकाबला नहीं करेंगे; कोई कम्युनिस्ट पार्टी इस तरह की चुनौतियों के मुकाबले में नहीं उतरेगी, इस तरह की अग्निपरीक्षा से नहीं गुजरेगी तो वह कम्युनिस्ट पार्टी भविष्य में कभी क्रांति नहीं कर सकती है. कांग्रेस जैसी ताकतों के साथ लड़ाइयां ज्यादा सीधी-सीधी हैं, उनसे लड़ना एक अर्थ में आसान है और जद जैसी ताकतों से लड़ना कठिन है. हम समझते हैं कि इस कठिन लड़ाई को लड़ना ही हमें सीखना चाहिए. यह अग्निपरीक्षा है, यह आपकी परीक्षा है कि एक ऐसी मध्यमार्गी पार्टी या उसका नेता, जो तमाम लुभावने नारे देता है, जनता के बीच जिसने अपनी पहचान बना ली है, जो मसीहा के रूप में जाना जाता है, जिसने जनता के बीच इतना भ्रम फैला रखा है, ऐसी एक ताकत से जनता को कैसे अलग करें, इसका किस तरह भंडाफोड़ करें और किस तरह जनता को अपनी ओर खींच लाएं, यह एक बहुत बड़ी चुनौती है. इस चुनौती में जो पार्टी सफल होगी मैं समझता हूं कि आने वाले दिनों में वही पार्टी बिहार का भविष्य तय करेगी.

यह जो जनता दल की सरकार है उसका विरोध दो तरफ से हो रहा है. एक, इसका विरोध दक्षिणपंथी पार्टियां कर रही हैं – कांग्रेस और भाजपा. दूसरा, वामपंथ की तरफ से इसका एक विरोध है. दोनों विरोधों का चरित्र अलग है. दक्षिणपंथ का जो विरोध है वह चीजों को पुराने स्तर पर ले जाना चाहता है. जितने हद तक सवर्ण सामंती सत्ता पीछे हटी है, जितने हद तक गरीब दलित-पिछड़े सर उठा चुके हैं, जितने हद तक उन्हें अधिकार मिले हैं – वह उन्हें वहां से पीछे ले जाना चाहती है. स्वाभाविक है कि हम ऐसे किसी विरोध पक्ष के साथ नहीं जा सकते, ऐसे किसी विरोध पक्ष के साथ हम कभी हाथ नहीं मिला सकते.

दूसरा विरोध वामपंथ का है. जनता दल की सीमाएं जहां खत्म होती हैं, जनता दल जहां से आगे नहीं बढ़ सकता वहां से आगे बढ़ाने वाली जो पार्टी है, वह वामपंथ की पार्टी है, जनता दल के उस दृष्टिकोण से जो विरोध है वह वामपंथ का विरोध है. और वही हमारे सामने चुनौती है कि कैसे हम मध्यमार्गी सरकार की सीमाओं को उजागर करें. वे कहां तक जा सकते हैं, उनकी सीमाएं जनता के सामने दिखाएं और उनके दिए नारे की असियत का भंडाफोड़ करें और उन नारों को आगे बढ़ाते हुए हम जनता को अपने पक्ष में करें. यह आपके सामने बड़ी चुनौती है. और सही मायने में कहिए तो बिहार के लिए वामपंथी कार्यक्रम एकमात्र जनता दल की नीतियों, इसकी कार्यनीतियों, उसकी पद्धतियों की सतत आलोचना के जरिए ही विकसित होगा. बिहार के लिए वामपंथी कार्यक्रम आसमान से नहीं टपकेगा, बिहार के लिए वामपंथी कार्यक्रम किताबों में लिखा हुआ नहीं मिलेगा, बिहार के लिए वामपंथी कार्यक्रम आपके दिमाग से नहीं उपजेगा. बिहार के लिए वामपंथी कार्यक्रम सिर्फ और सिर्फ जनता दल के सिद्धांत, उसके व्यवहार की आलोचनाओं के जरिए ही, बिहार में उसके निषेध के जरिए ही सूत्रबद्ध होगा, रूप लेगा और आनेवाला भविष्य आपका होगा. इसलिए जनता दल का शासन में रहना, कुछ लंबे समय तक भी शासन में रहना – ये आपके लिए एक चुनौती भी है क्योंकि यह एक कठिन लड़ाई है; लेकिन यह आपके लिए एक बहुत बड़ी संभावना का दरवाजा भी खोलता है. क्योंकि इन मध्यमार्गी पार्टियों को एक सीमा के बाद जाकर बिखरना ही है. इनकी सीमाएं सामने आ रही हैं और आप अभी से उनकी आलोचनाएं विकसित करते रहें तो आनेवाले दिनों में, जब इसका संकट गहराएगा तब आप ही बिहार की जनता के सामने उसकी नई आशा के बतौर खड़े होंगे. आप अगर ऐसा नहीं कर पाएंगे तो दक्षिणपंथी ताकतें इसका फायदा उठाएंगी या फिर पूरी तौर पर एक अराजकता बिहार में फैल जाएगी. इसलिए मैं समझता हूं कि इस दीर्घकालीन लड़ाई को पूरे धीरज के साथ हमें चलाना है.

कम्युनिस्ट पार्टियों के अंदर भी कुछ लोग हो सकते हैं – सीपीआई, सीपीएम या हमारी पार्टी की कतारों का कुछ हिस्सा भी – जो इन मध्यमार्गी पार्टियों के भुलावे में आ सकते हैं; उनके पीछे-पीछे चलने वाली ताकत बन जा सकते हैं. यहां तक कि हमारी अपनी पार्टी में भी आईपीएफ के समय और बाद में भी टूट-फूट हुई. आपके एमएलए भी चले गए. तो एक हिस्सा ऐसा हो सकता है. सीपीआई-सीपीएम जैसी पूरी पार्टियां ही उनके पीछे चली गई. तो कुछ लोगों के सामने वह भविष्य नहीं है, वह धैर्य नहीं है, वह क्षमता नहीं है, वह लगन नहीं है. वे तमाम ताकतें इतिहास में कहीं नहीं टिकेंगी. इतिहास उन्हीं का होगा जो धीरज के साथ, लगन के साथ इन चुनौतियों का मुकाबला करते रहें, जनता दल का भंडाफोड़ करते रहें और अपना कार्यक्रम विकसित करते रहें.

ऐसी ही ताकते आनेवाले दिनों में आगे बढ़ेंगी और वह समय बहुत दूर होगा, ऐसी बात नहीं है. परिस्थिति किसी भी समय आपके पक्ष में तेजी के साथ मुड़ सकती है. यह बात सिर्फ मेरी अपनी बात नहीं है. आप अगर लालू यादव से बात करें तो वे खुद यह बात समझते हैं, महसूस करते हैं कि जिस दिन उनकी सीमाएं खत्म होगी – और यह खत्म होंगी – उस समय माले ही उनके लिए बड़ी चुनौती बन कर उभर सकता है. वामपंथ की कतारों में या प्रगति की ताकतों के बीच माले ही वह ताकत है जिससे वे डरते हैं, जिसको वह समझते हैं कि मेरी कब्र आने वाले दिनों में यही ताकत खोदेगी बल्कि आज से ही खोदना शुरू भी कर दिया है. यह समझदारी उनकी है. इसलिये आप देखेंगे कि हमेशा उनका हमला, अगर एक तरफ भाजपा के खिलाफ रहता है तो दूसरी तरफ उनकी हमेशा यह कोशिश होती है कि हमारी पार्टी को, हालांकि हम एक छोटी पार्टी हैं, कैसे कमजोर किया जाए, खत्म किया जाए. क्योंकि वह जानते हैं कि आज की इस छोटी पार्टी में कल की कितनी बड़ी संभावना छिपी हुई है. इसलिए वे इस छोटी ताकत को कभी नजरंदाज नहीं करते. तमाम तिकड़मों के जरिए, तमाम कोशिशों के जरिए हमेशा वे यह चाहते हैं कि माले को कैसे खत्म किया जाए.

इस सवाल पर हम दो-एक बाते कहें इसके पहले हम एक अन्य मुद्दे पर आएं. कुछ साथियों ने यहां कहा कि हमें किसी के साथ कोई समझौता नहीं करना जाहिए. सीपीआई-सीपीएम के साथ तो नहीं ही करना चाहिए क्योंकि ये सब बदमाश हैं, गद्दार हैं. उन लोगों ने हमारे कई साथियों की हत्याएं की हैं. फिर जनशक्ति, रेडफ्लैग, टीएनडी इन सब ग्रुपों को साथ करके भी क्या होगा. इन लोगों के साथ भी कुछ नहीं करना चाहिए. फिर वे यह भी कह रहे थे कि जो ताकतें लड़नेवाली हैं, जो क्रांतिकारी हैं उनके साथ एकता करनी चाहिए. तो स्वाभाविक तौर पर उनका इशारा था एमसीसी-पार्टी यूनिटी जैसी ताकतों की ओर. क्योंकि उन्होंने यह भी कहा था कि चुनाव इत्यादि से बहुत कुछ क्या होनेवाला है. तो मोर्चा बनाने की बात पर उनकी क्या स्थिति है?  उन्होंने सीपीआई, सीपीएम से लेकर तमाम ताकतों को खारिज कर दिया है. कुल मिला कर अगर फिर भी जो आंदोलन कर रहे हैं और क्रांतिकारी हैं तो उनकी नजर में वो पार्टी यूनिटी और एमसीसी ही बची रहे हैं. दूसरी कोई ताकत ही दिखाई नहीं देती उन्हें इस बिहार में. अगर यह सवाल उठता है कि हमारे साथियों की हत्या की है सीपीएम वालों ने या किसी और ने तो हमारे साथियों की हत्याएं एमसीसी वालों, पार्टीयूनिटी वालों ने क्या किसी से कम की हैं? तो ये तो कोई तर्क नहीं बनता. दूसरी बात यह है कि एमसीसी /पार्टी यूनिटी जैसी ताकतों के साथ मोर्चा बनाने का मतलब होगा कि इस पूरी की पूरी राजनीतिक प्रक्रिया से पीछे हट जाना, पूरी राजनीतिक प्रक्रिया को छोड़ देना. जिस सरकार के लिए, जिन ताकतों के लिए आप चूनौती बनना चाहते हैं उनके लिए यह सबसे खुशी की बात होगी. यह पूरा-का-पूरा मैदान आप उनके लिए खाली छोड़ दे रहे हैं. मैं समझता हूं कि इस तरह की जो सोच है शायद गलत है. जैसा कि मैने पहले कहा, हम वामपंथी एकता के विस्तार के पक्ष में हैं, हम व्यापक वामपंथी एकता के विरोधी नहीं हैं. आप आम राजनीतिक संघर्ष से कट जाएं और कुछ अलग-थलग अराजक कार्यवाहियों के लिए एकताबद्ध हो जाएं तो यह शायद गलत होगा. मुझे बहुत अफसोस है कि पिछले दश-पन्द्रह वर्षों से लगातार जिस राजनीतिक व्यवहार में हमारी पार्टी है, इसके बावजूद हमारे एक वरिष्ठ राजनीतिक साथी आज भी ऐसा विचार रखते हैं. तो यह राजनीतिक शिक्षा का भी बहुत बड़ा अभाव मुझे नजर आता है.

दूसरा, जैसा कि एक साथी ने कहा कि हमें किसी के भी साथ मोर्चा नहीं बनाना चाहिए. पिछली बार विनोद मिश्रा ने कहा कि जार्ज बहुत बढ़ीया आदमी है और इसीलिए उनके साथ मोर्चा बना लिया. मैं समझता हूं कि ये बातें सही नहीं हैं. किसी के साथ मोर्चा बनाना या नहीं बनाना बढ़िया आदमी या खराब का सवाल नहीं होता. मोर्चा केवल बढ़िया आदमी से बने यह गलत बात है. कभी-कभी खराब आदमियों से ही मोर्चा बनाया जाता है और बढ़िया आदमी से नहीं बनाया जाता. इसलिए हमने अगर समता पार्टी से किसी भी किस्म का कोई गठबंधन बनाने की कोशिश की थी, तो इसका तर्क यह नहीं है कि वे बढ़िया आदमी हैं. बल्कि जहां तक मुझे याद है पिछला जो कन्वेंशन हुआ था जिसमें मैं उपस्थित था, उसमें मैंने समता पार्टी के बारे में अगर कुछ कहा था तो आलोचनात्मक बातें ही कही थीं कि किस तरह से ये नीतीश कुमार वगैरह कुर्मी-यादव की राजनीति कर रहे हैं. हम इस राजनीति में शरीक नहीं हो सकते हैं या किस तरह से ये कुर्मी वगैरह की कुलक ताकतें हैं, इनके साथ इनकी हिस्सेदारी है.

मैं कह रहा हूं कि मोर्चा कम्युनिस्ट बनाते हैं. माओ त्सेतुंग को भी एक बार च्यांग काईशेक के साथ मोर्चा बनाना पड़ा था – वह कोई बढ़िया आदमी था इसलिए मोर्चा बनाना पड़ा यह बात नहीं है. संयुक्त मोर्चा कम्युनिस्ट पार्टी के लिए एक राजनीतिक कौशल है, एक कार्यनीति है. इसके जरिए वह तमाम कठिन घिरी हुई हालतों से, संकट की स्थितियों से निकलने की कोशिश करती है. आप एक-दो साल पहले की स्थिति का अंदाजा करें कि हमारी पार्टी, जो तब आईपीएफ के नाम से काम कर रही थी, उसमें तमाम टूट-फूट कर दी गई थी. चारों तरफ से हमें घेरा जा रहा था और उस हालत में हमें काम करना था. लालू यादव घमंड के साथ यह घोषणा करते फिर रहे थे कि हमने आईपीएफ खत्म कर दिया. ऐसी हालत में हमें वहीं से उबरना था. सवाल किसी समता पार्टी का, किसी रमता पार्टी का नहीं था. सवाल जनता दल के एक धड़े का था (उसका नाम कुछ भी हो सकता था), जनता दल के अंदर विभाजन का था. चूंकि यह एक मार्क्सवादी-लेनिनवादी रणनीति है कि जो आपका प्रमुख राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी है उसके अंदर के किसी फूट का आप इस्तेमाल करें, उसका फायदा उठाएं. जैसा कि हमारे अंदर की टूट-फूट का वे फायदा उठाते हैं, उनके अंदर की टूट-फूट का हम फायदा उठाते हैं. मामला सिर्फ इतना ही था. हमने उनके अंदर की टूट-फूट का अंदाजा लगाया. उन्होंने हमारी पार्टी को तोड़ा था. हमने उनकी पार्टी को तोड़ने की तरफ कदम बढ़ाया. हम समझते हैं कि उसको तोड़ने की कोशिश की और जहां तक आप जानते हैं कि ठोस रूप से जब सीटों के तालमेल की बात आई तो हमारी पार्टी ने किन्हीं भी ताकतों से ऐसा कोई भी समझौता नहीं किया है जिसमें हमारे संघर्ष के इलाकों, हमारी मजबूत जगहों, इन तमाम चीजों को या हमारी राजनीतिक जरूरतों के आधार पर इन सीटों को छोड़ दिया हो. ऐसा हमने कभी नहीं किया. 1990 के चुनाव में सीपीआई के साथ हमारी चुनावी वार्ता, जो कि अंत तक चल रही थी, वह सारी चुनाव वार्ता इसलिए भंग हो गई क्योंकि न तो जहानाबाद के सवाल पर, न उधर हजारीबाग के सवाल पर हम समझौता करने को राजी हुए. इसलिए सीपीआई से हमारा समझौता नहीं हो पाया. बाद में समता पार्टी के साथ भी, कुल मिलाकर आप लोग जानते हैं कि, हम अपने संघर्ष के इलाके को कहीं भी छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे. वार्ता भंग हो चुकी थी. इसकी खबरें अखबारों मे भी छप चुकी थीं. इसके बाद उनकी तरफ से बार-बार अनुरोध किया गया कि जैसे-तैसे हो लेकिन एक सांकेतिक किस्म का समझौता हो जाए. तो इसलिए मैं कह रहा हूं कि हमारी पार्टी किसी भी समझौता वार्ता में कहीं से भी अपनी स्वतंत्रता, अपनी अस्मिता, अपनी मजबूत जगहें जहां हमको लड़ना चाहिए उनको छोड़ कर हमने कोई समझौता नहीं किया है और न हम भविष्य में ऐसा समझौता करने जा रहे हैं.

कुछ और बातें. कुछ साथी कभी-कभी यह बात ले आते हैं कि हमलोगों को मार्क्सवाद की स्थापना करनी है. सीट-वीट जीतने से हम लोगों का कुछ लेना-देना नहीं है. तो मैं समझता हूं कि अगर हम लोग दो-चार सीट जीत लें तो उससे मार्क्सवाद की स्थापना में क्या कोई दिक्कत आएगी? उससे क्या मार्क्सवाद को कोई संकट आ जाएगा? मैं कहता हूं कि इन चीजों को एक-दूसरे के विपरीत नहीं खड़ा किया जाना चाहिए. मार्क्सवाद की स्थापना करना बहुत अच्छी बात है लेकिन उसके साथ हमें सीट हारना जरूरी है यह तो कोई बात नहीं है. मैं समझता हूं कि जब आप चुनाव लड़ते हैं तो अवश्य ही सीट जीतना है इसके लिए हमें कोशिश करनी पड़ती है. सवाल सिर्फ इतना है कि हम सीट जीतने के लिए कोई गैर उसूली तौर-तरीके न अपनाएं. हम गैर उसूली तौर-तरीका अपना लें, सामंतों से हाथ मिला लें या गलत तरीके अपना कर जैसे-तैसे कोई सीट जीत लें – निश्चय ही ये सब हमारी नीतियां नहीं  हो सकतीं. लेकिन अगर हम चुनाव के मैदान में उतरते हैं तो हमारी कोशिश ये जरूर रहती है कि हमको ज्यादा-से-ज्यादा वोट मिले. हमारी कोशिश ये जरूर रहेगी कि हम सीट जीतें. इसलिए बहस इस बात पर जरूर होनी चाहिए कि हम कहीं से कोई गैर उसूली रास्ते अपना रहे हैं कि नहीं अपना रहे हैं. ये कहना कि हमें सीट-वीट जीतने से कुछ लेना-देना नहीं है तो मेरी समझ से इससे पूरे चुनाव अभियान की गंभीरता नष्ट होती है. बार-बार व रोज यह कहते रहना कि हमें चुनाव लड़ने से कोई लेना-देना नहीं है, चुनाव तो वैसे ही लड़ना है, चुनाव का क्या है – हम समझते हैं कि अतिक्रांतिकारिता बहुत समय अच्छी नहीं होती है. चुनाव अगर पार्टी लड़ रही है तो कोई शौकिया नहीं. चुनाव भी हमारे लिए एक राजनीतिक जिम्मेदारी है. हम महसूस करते हैं, हमारी समझ है कि चुनाव भी पार्टी के विकास के लिए, आंदोलन के विकास के लिए, हमारे लिए महत्वपूर्ण है. चुनाव के माध्यम से बड़े पैमाने पर हम अपनी बातें जनता के बीच ले जाते हैं. चुनाव के माध्यम से वर्गीय गोलबंदियां तेज होती हैं. हमारा सारा का सारा चुनाव अभियान, चुनाव प्रचार क्या है? उन्हीं सामंती ताकतों के खिलाफ, कहिए तो लड़ाई का एक उच्चतर रूप है. बड़े पैमाने पर वर्गीय गोलबंदियां एक-दूसरे के खिलाफ हो रही हैं और चुनाव लड़े जा रहे हैं बंदूकों से, लाठियों और गोलियों से. तो ये हालात हैं. इसलिए चुनाव भी हमारे लिए वर्ग संघर्ष ही है, वर्ग संघर्ष का एक हिस्सा है. चुनाव हमारे लिए कोई शौकियां चीज नहीं है. हमारे वर्ग संघर्ष की योजना से कोई बाहर की चीज नहीं है. इसलिए चुनाव भी हम लोगों के लिए जीवन-मरण की चीज बन जाता है. इसे हमें पूरी गंभीरता से लेना है. चुनाव अगर लड़ना है तो पूरी गंभीरता के साथ. गंभीरता का अर्थ है कि हमें अपनी बातें, अपना राजनीतिक प्रचार जनता के बीच बड़े पैमाने पर ले जाना है. वर्गीय गोलबंदी चुनाव के माध्यम से बड़े पैमाने पर संगठित करनी है और इसके जरिए विधायक जीतते हैं तो वे विधायक भी विधानसभा के अंदर किसी सवाल पर, जनसंहार के सवाल पर या किसी सवाल पर हल्ला मचाते हैं, अपनी बातें रखते हैं, काम रोको प्रस्ताव लाते हैं तो वो अखबारों के जरिए प्रचारित होता है. इसलिए मैं समझता हूं कि चुनाव को भी गंभीरता से लिया जाना चाहिए. हां, उसमें भटकावों से अवश्य ही बचना चाहिए. और भटकावों से बचने का महत्व यही है कि गैर उसूली तौर-तरीके न अपनाए जाएं. तो मैं समझता हूं कि इस तरह के कुछ विचार यहां आए थे जिन पर कुछ बातें रखनी जरूरी थीं.

जहां तक लालू सरकार की बात है तो मैंने पहले ही कहा कि उनके व्यवहार, उनके सिद्धांत के खिलाफ व्यवहार में आलोचना करते हुए ही हम यहां के लिए वामपंथी कार्यक्रम बना सकते हैं. लालू यादव की सरकार, जो अभी इस दौर में आई है, मूलतः मैंने देखा, वह भूमि सुधार की बातें कर रही है. दूसरा, रोटी-कपड़ा-मकान जैसी बातें कर रही है. और तीसरा, औद्योगीकरण की बाते कर रही है. जहां तक भूमि सुधार का सवाल है तो भूमि सुधार को लेकर कोई नया कानून बना हो या उसको लागू करने के लिए नीचे से जनता को गोलबंद करते हुए या अपनी पार्टी को गोलबंद करते हुए कोई सही मायने का आंदोलन छेड़ा हो ऐसा कुछ करते  वो नजर नहीं आ रहे हैं. ज्यादा से ज्यादा जो चीजें दिखाई दे रही है कि यहां वहां प्रशासन के जरिए कुछ मीटिंगे हो रही हैं जिसमें कुछ गैर मजरुआ जमीन, कुछ फालतू जमीन पर एक तरह के पर्चे बांट दिए जा रहे हैं. तो इस तरह का भूमि सुधार कांग्रेसी जमाने में भी हमलोगों ने बहुत देखा है. भूमि सुधार के मामले में जो गंभीरता होनी चाहिए कि पूरे बिहार की जमीन का सर्वे कराया जाए, इसके लिए बड़े पैमाने पर जनता को भी सूचित किया जाए, तैयारियां की जाएं, नए कानून बनाए जाएं, नए ट्रिब्यूनल बनाए जाएं, तमाम जो केस फंसे हुए हैं उनको वहां से हटाया जाए  – इस तरह की कोई गंभीर कोशिश नजर नहीं आ रही है. सरकार यहां-वहां जमीन का पर्चा बांट रही है लेकिन वो जमीन उनके हाथ में आई या नहीं, उस पर उसका कब्जा हुआ या नहीं, वह जमीन खेती करने लायक है या नहीं, खेती करने लायक उसकी स्थिति है या नहीं – इन तमाम सवालों से सरकार को कुछ लेना-देना नहीं है. इसलिए भूमि सुधार का सवाल जो लालू प्रसाद जी अभी लाए हैं मुझे लगता है उसमें हवा ज्यादा है, उसका बहुत बड़ा प्रभाव नहीं है. इसलिए भूमि के सवाल पर हम तो अपना संघर्ष जारी रखे ही हुए हैं और इसके साथ हमने ये बाते बार-बार जोड़ी भी हैं या किसान सभा को इन मुद्दों को लाना भी होगा कि भूमि सुधार के लिए इस तरह के कानून बनाने होंगे, जमीन का पूरा सर्वे कराना होगा. तभी लगेगा कि आप इस मामले में गंभीर हैं, नहीं तो पूरी बातें छलावा हैं. इस तरह से हम इसका भंडाफोड़ भी करेंगे और साथ ही साथ जमीन के सवाल पर विभिन्न स्तरों पर आंदोलन भी चलाएंगे.

जहां तक दूसरा सवाल है रोटी-कपड़ा-मकान वाला तो इस सवाल पर मुझे लगता है कि पहले तो हमें इसको विचारधारात्मक तौर पर भंडाफोड़ करना है कि रोटी-कपड़ा-मकान का पूरा सवाल ही जनता को कुछ राहत बांटने जैसा है. दो साड़ी, दो धोती बांट दिया, मकान के लिए कुछ पैसा दे दिया गया. अर्थात् बुनियादी संबंधों को छुए बिना. उसकी बुनियादी स्थितियों में परिवर्तन लाए बिना इस तरह कुछ धोती-साड़ी देना, कुछ मकान बना देना आदि इस तरह की कुछ बातें हो रही हैं. हमको इस बात पर जोर देना है कि अगर बुनियादी संबंधों में परिवर्तन हो, उनकी मजदूरी बढ़े, उनकी सार्वजनिक आय बढ़े, वे खेती कर सकें, तब साड़ी-धोती खरीदने के लिए उनकी खुद की कूबत हो सकती है. तब वे अपने मकान भी पक्के बनवा सकते हैं. इसलिए एक तो यह विचारधारात्मक सवाल हमें उठाना है कि किसी राहत की बात नहीं, सवाल ये है कि बुनियादी संरचना में परिवर्तन हो. दूसरी तरफ व्यवहार में जरूर हमको इस तरह के जो भी नारे हैं उनका भरपूर इस्तेमाल करना होगा. जैसा इस बार व्यवहार में हमने किया भी है. जद ने पक्का मकान का नारा दिया और पार्टी ने इस नारे को उठा लिया. इस नारे के आधार पर हमने चारो ओर जनता को गोलबंद किया. इस पर चारो तरफ आंदोलन भी हमने किए हैं और यही नारा उसके लिए सिरदर्द में बदल सकता है. जिस नारे को वो अपना सबसे महत्वपूर्ण शक्तिशाली नारा समझते हैं हम उसी नारे को उन्हीं के खिलाफ बदल दे सकते हैं. ये भी हमको साथ-साथ करना है.

जहां तक औद्योगीकरण की बात है, उसपर जो प्रवासी भारतीय हैं उनके जरिए वो पूंजी विनियोग वगैरह की बातें कर रहे हैं. यह जरूर सच्चाई है कि प्रवासी चीनी लोगों ने चीन में बड़े पैमाने पर पूंजी लगाई है और उसकी वजह से चीन के औद्योगिक विकास में एक बड़ी भूमिका उनकी रही है. लेकिन प्रवासी भारतीयों के बारे में जो खबरें मिली हैं, ऐसी कोई चीज दिखाई नहीं पड़ रही है. किसी देशप्रेम से प्रेरित होकर – जो कि कहा जा रहा है कि आप भारतीय हैं तो देशप्रेम में पूंजी लगाईए – ये प्रवासी भारतीय देश के औद्योगीकरण में लगे हों अभी तक ऐसी कोई मिसाल दिखाई नहीं पड़ी है. बल्कि ये सब यहां पर कुछ डालर जमा करते हैं और जब भी देखते हैं कि यहां कोई संकट आने लगा है तत्काल वे अपना पैसा निकाल लेते हैं. यही खबरें ज्यादा हैं इसलिए हमारे प्रवासी भारतीयों के बल पर औद्योगीकरण की जो कल्पना की जा रही है, अभी तक देश के तमाम हिस्सों में जो कोशिश चली है वो सही नहीं साबित हुई है. अभी तक तो इन प्रवासी भारतीयों को लाने, खिलाने-पिलाने, रखने में ही भारी पूंजी खर्च की गई है, उनकी तरफ से पूंजी विनियोग की ठोस बातें नहीं आई हैं. एक तो ये विषय है. दूसरा, जो बहुराष्ट्रीय कंपनियों के जरिए भी विनियोग वगैरह की बातें हैं उसमें एक नंबर बात आप यह देखेंगे कि ये सारी कंपनियां औद्योगीकरण के लिए जो इलाका चुनती हैं वो वही झारखंड का इलाका है जहां सत्ते में कच्चा माल और चीजें मिल रही हैं. पर बाकी बिहार में? यह सवाल काफी महत्वपूर्ण रहा है कि बिहार में औद्योगीकरण में एक असाम्य है, एक विषमता है. एक खास इलाके में, झारखंड के इलाके में ही तमाम औद्योगीकरण है, विकास है. बिहार का बहुत बड़ा इलाका छूटा पड़ा है. तो ये जो बहुराष्ट्रीय निगम आने वाले हैं उनको भी आप देखेंगे कि उनका भी कोई स्वार्थ नहीं है बिहार के दूसरे इलाकों में, पिछडे हुए इलाकों में उद्योग-धंधा लगाने में. वे भी वहीं लगा रहे हैं क्योंकि जहां कच्चा माल है और सस्ते में चीजें उपलब्ध हैं. इसलिए ये औद्योगीकरण बिहार में जो विषमता है उसे बढ़ाएगा, दूसरा कुछ यह नहीं करने जा रहा है. सरकार भी यही कर रही है. वे लोग जहां चाह रहे हैं वहीं पर उनको करने दे रही है. दूसरी बात यह है कि इस औद्योगीकरण से रोजगार के कोई बड़े साधन नहीं खुलने वाले हैं. क्योंकि इसमें पूंजी बहुत लगेगी. ऐसी मशीनें, ऐसी तकनीक होगी कि इसमें मजदूरों की कम से कम जरूरत होगी. कुछ बडे बडे अफ्सर जरूर होंगे जिनको बडी बडी तनख्वाहें मिलेगी. साल में  पंच लाख,  दस लाख तक तनख्वाहें मल्टीनेशन दे रहे हैं , अपने मनेजर को. वहाँ मजदूरों की संख्य बहुत कम होगी.  

बिहार जैसे राज्य में इस पूरे औद्योगीकरण में रोजगार बढ़ाने वाला दृष्टिकोण गायब है और बिहार में हम समझते हैं कि बड़े पैमाने पर बेकारी है. अगर यह रोजगार-रहित औद्योगीकरण हो तो यह बिहार के लिए वरदान की बजाय शाप ही साबित होगा. ये इसकी खामियां हैं क्योंकि पुराने जो उद्योग-धंधे थे जो कि बीमार हो रहे हैं, बड़े पैमाने पर मजदूर जहां काम करते थे, वे सारे उद्योग-धंधे बंद होते जा रहे हैं. बजाय इसके कि औद्योगीकरण रोजगार लाएगा, पुराने उद्योग-धंधे बंद हो जाने की वजह से बड़े पैमाने पर बेरोजगारी ही फैलेगी. और लालू जी को उस दिन मैंने यही करते सुना भी. जब उनसे एक पत्रकार ने पूछा कि पुराने उद्योग-धंधे, बीमार उद्योग-धंधे के बारे में आप क्या कर रहे हैं तो उन्होंने कहा कि ‘छोड़िए उन्हें, बाप-दादा जो मर गए सो मर गए. जो मर जाता है उसको लेकर कोई पड़ा रहता है? सब नया-नया बनाना है.’ अब अगर कोई मर जाए तो अलग बात है, मगर बीमार बाप और बीमार दादा को मार डालना – यह भी कोई बात हुई. तो ये जो इनकी औद्योगिक नीति है, रोजगार-रहित औद्योगीकरण है जो बिहार में क्षेत्रीय विषमता को बढ़ाएगा, मुझे लगता है कि बिहार में इसका बड़े पैमाने पर भंडाफोड़ करना चाहिए.

जहां तक पटना के सौंदर्यीकरण का सवाल है तो उसका यह मतलब है कि शहर में जो नागरिक सुविधाएं हैं, आमलोगों को मिलनेवाली पानी, सप्लाई वगैरह की सुविधाएं, उनको बढ़ाना. यही सब सौंदर्यीकरण का असली मुद्दा है. लेकिन आप देखेंगे कि पटना में नागरिक सुविधाओं को बढ़ाने की कहीं कोई कोशिश नहीं हो रही है. सफाई मजदूर हैं, उन्हें पांच-पांच महीने से वेतन नहीं मिला है. सौंदर्यीकरण के नाम पर जो पूरी चीजें हो रही हैं वो कुछ जमीनें हैं जिन जमीनों की मार्केट में आज बहुत कीमत है. वो जमीनें खाली करवाई जा रही हैं. स्टेशन और उसके अगल-बगल और वो पुराना जेल तोड़ के जो जमीनें करोड़ों में, अरबों में बिकेंगी उनका लाखों-लाखों का कमीशन लालू यादव को मिल जाएगा. इसलिए इस पूरे सौंदर्यीकरण के पीछे असल में वो कीमती जमीनें हैं जिसको कहते हैं खास जमीनें. शहरों में इनकी कीमत बहुत ज्यादा होती है. उस जमीन को खाली कराके फिर वहां मार्केट लगवाकर और उससे लाखों-लाख  रूपए कमीशन कमाना, इसके अलावा इसके पीछे कुछ नहीं है; बाकी लोगों को धोखा देने के लिए बनाई गई बातें हैं.

दूसरी ओर, इनके राज्य में अभी एक साल के अंदर एक नई बात यह हुई है कि जितना वे औद्योगीकरण की बात कर रहे हैं उतना ही इनका मजदूर विरोधी, वामपंथ विरोधी रुख साफ होता जा रहा है. सीपीआई के खिलाफ विधानसभा के अंदर और बाहर भी, और कुछ सीपीएम के खिलाफ बहुत सी बातें होने लगी हैं. उससे सीपीआई वाले भी कुछ नाराज हो रहे हैं. तो ये दिखाई पड़ रहा है कि जितना ही प्रवासी बिहारी, मल्टीनेशनल्स की ये बात कर रहे हैं, उतना ही ये वामपंथ के खिलाफ, मजदूरों के खिलाफ सीधे-सीधे बातें भी कर रहे हैं और जिसकी वजह से ही कुछ माहौल बन रहा है कि वामपंथी ताकतें एक-दूसरे के कुछ नजदीक आएं. तमाम वामपंथी ट्रेड यूनियनों ने ऐसी कोशिशें शुरू भी की हैं.

यह सच बात है कि अभी भी मुसलमानों में, पिछड़ों व दलितों के कुछ हिस्सों में इनकी पकड़ बरकरार है. लेकिन मुसलमानों के अंदर भी जो इनके साथ हैं बहुत से तनाव पैदा हो रहे हैं. उनके अंदर जो उनके तमाम लीडरान हैं उनके बीच तमाम झगड़े हैं; अपनी-अपनी अहमियत को लेकर, क्योंकि आम जनता से इन दलों का सीधा रिश्ता नहीं रहता है. कुछ हुआ करते हैं जो उस समुदाय पर कंट्रोल रखते हैं, नियंत्रण रखते हैं. उन्हीं के माध्यम से ये राजनीतिक दल जनता तक अपनी बातें ले जाते हैं. तो ये जो पावर ग्रुप हैं उनके अंदर तमाम किस्म के तनाव, झगड़े ये सब चीजें हैं. इसी तरह से दलित भी जो इनके साथ हैं – रमई राम हों, रामविलास हो या कुछ और – ये अलग से भी अपना ग्रुप बनाए रखना चाहते हैं. हमलोगों के साथ संबंध रखने की कोशिश करते हैं. उनके मुस्लिम पावर ग्रुप का भी जो विक्षुब्ध हिस्सा है वह भी हमलोगों की पार्टी के साथ संबंध बनाए रखना चाहता है. तो इस तरह के तनाव इनके अंदर बढ़ रहे हैं. अपनी तरफ से हमलोगों की रणनीति है कि उन सब लोगों से संबंध बनाए रखे जाएं. हो सकता है कि अभी-अभी वे काम में आएं या न आएं लेकिन ये रिश्ते बनाए रखे जाएं और लालू खेमे के अंदर बढ़ रहे इन तनावों के कारण हमारी पार्टी को आगे बढ़ने में ये चीजें कुछ मदद कर सकती हैं.

अब इन परिस्थितियों के विश्लेषण के बाद मैं अंतिम तौर पर यह कहना चाहूंगा – पहली बात तो हमलोग जरूर एक तीसरे मोर्चे के लिए कोशिश कर रहे हैं. वामपंथियों के साथ भी हम अलग से कोशिश करेंगे दोस्ती बढ़ाने की, लेकिन सबकुछ के बावजूद हमलोगों को आनेवाले चुनाव में स्वतंत्र ढंग से लड़ने के लिए ही मानसिक रूप से तैयार रहना चाहिए. कोई भ्रम नहीं पाल लेना चाहिए. इस सबसे बचना चाहिए. तालमेल की कोशिशें रहेंगी फिर भी कुल मिलाकर परिस्थिति शायद हमको वहीं ले जाए. क्योंकि सम्मानजनक चुनावी समझौता कर पाना यहां किसी के साथ मुश्किल हो जाता है. अगर वो समझौता की बात आए भी तो उनके आधार, हमारे आधार, उनकी सीटें, हमारी सीटें इसमें ही तरह-तरह के टकराव हैं. वास्तव में हम जब तक अपने को स्थापित नहीं कर लेते हैं तब तक उनके साथ चुनावी समझौता से हमको बहुत फायदा होनेवाला नहीं है. तो कोशिश तो हम करेंगे जरूर वामपंथियों के साथ ऐसे समझौतों की, लेकिन यही मानकर चलना बेहतर होगा कि आनेवाले चुनाव में हमें अपने बल पर अकेले लड़ना होगा. हां, देश के पैमाने पर जरूर हम कांग्रेस, भाजपा के खिलाफ एक तीसरी ताकत के हिस्सेदार के रूप में रहेंगे.

दूसरी बात, पिछले चुनाव में या इसके पहले के चुनाव में हमलोगों ने बार-बार लक्ष्य रखा था कि हमें कम-से-कम चार प्रतिशत मत लाना चाहिए जिससे कि हमारी पार्टी को राज्य के स्तर पर मान्यता मिले. लेकिन हमलोग नहीं कर पाए. पिछले चुनाव में भी और इसके पहले भी हम तीन प्रतिशत तक जाकर रह जाते हैं. इसे हमें चार प्रतिशत तक पहुंचाना था. कोई भी पार्टी है तो वो मान्यता के लिए पहले राज्य के पैमाने पर फिर देश के पैमाने पर कोशिश करती ही है. आज भी हमारे सामने यह लक्ष्य है और मैं समझता हूँ कि हमारे साथियों को यह दिमाग में रखना होगा कि ये दर्जा हमें हासिल करना है. दूसरा कि अगले चुनाव में हमें कम-से-कम एक सांसद अवश्य जिताना है क्योंकि इसके साथ ही राष्ट्रीय राजनीति में कुछ असर का सवाल बनता है. तीसरी बात मुझे यह कहनी थी कि तमाम लोकप्रिय मुद्दों पर – जनसंहार, सौंदर्यीकरण आदि मुद्दों पर हम जो पहलकदमी ले रहे हैं, उसे हमेशा बढ़ाते रहना है. राज्य के किसी भी हिस्से में कहीं भी पुलिस दमन या कोई भी इस तरह की घटना हो तो हम ऐसी घटनाओं में पहुंचनेवाली, पहलकदमी लेनेवाली पार्टी रहें. सबसे पहले नम्बर पर रहें इसकी हमें कोशिश करनी होगी. साथ ही मैं ये कहना चाहूंगा कि लोकप्रिय मुद्दों पर जो ये हमारी पहलकदमी होती है इन पहलकदमियों का उद्देश्य होना चाहिए माफिया, प्रशासन, राजनीतिज्ञ का जो गठजोड़ है उसका पर्दाफाश करना. ऐसे इधर-उधर दुनिया भर की पहलकदमियां लेने से कोई फायदा नहीं होता है. लेकिन सारी पहलकदमियां इस दिशा में निर्देशित होनी चाहिए कि हम उस घटना के केन्द्र में जो माफिया ताकतें हैं; उनके साथ जो जुड़ा हुआ प्रशासन है और उसके साथ कहीं-न-कहीं कोई राजनीतिज्ञ है तो इस तरह के गठजोड़ को जो बिहार के माथे पर रखा हुआ सबसे बड़ा बोझ है – माफिया, प्रशासन, राजनीतिज्ञों का गठजोड़ – हमारा संघर्ष हमेशा इस गठजोड़ के खिलाफ निर्देशित हो. अभी बहस हो रही थी कि विकास का सवाल बड़ा है या दूसरे सवाल बड़े हैं. मैं समझता हूं कि विकास का जो सवाल है, उस विकास की संस्थाओं में भी भ्रष्टाचार है. विकास के सवालों को भी आप इस तरह से उठाएं कि वह माफिया, प्रशासन और राजनेताओं के गठजोड़ के खिलाफ निर्देशित हो जाए. मैं समझता हूं कि यह आपका निशाना है और आपका हर वार इस निशाने की तरफ निर्देशित होना चाहिए. इस दृष्टिकोण से आप कोई भी मुद्दा उठाएं वह प्रासंगिक है, लाजिमी है और यह दृष्टिकोण उसमें न रहे तो बढिया-से-बढ़िया मुद्दा भी कोई मायने नहीं रखना. विशेष रूप से मैं ये कहूंगा कि उनकी जो श्रमिक विरोधी या श्रम विरोधी नीतियां हैं इनके भंडाफोड़ के लिए और इन्हें इस रूप में जनता के सामने साफ-साफ तौर पर लाने के लिए कि यह साबित हो कि ये पूंजीपतियों के दलाल हैं, इन मुद्दों को कस कर पकड़ना चाहिए. अंतिम तौर पर मैं यह कहूंगा कि सामंतवाद विरोधी लड़ाकू संघर्ष जो हम बिहार के कई जिलों, कई हिस्सों में चला रहे हैं उसे अवश्य ही हमें तेज करना है. मुझे लगता है कि बिहार में ये सब कार्यभार हमारे सामने हैं.