(समकालीन लोकयुद्ध, 15 मई 1993 से, प्रमुख अंश)

एक समय था जब बिहार में, आंध्र में, हर जगह हमारी पार्टी को धक्का लगा था और लग रहा था कि अब शायद क्रांतिकारी आंदोलन हिंदुस्तान में खत्म हो गया. ऐसा ही समय था जब चारों ओर निराशा छाई हुई थी. हमारे संगठन के ही बहुत सारे लोग उस समय हमें छोड़कर पार्टी के विरोध में चले जा रहे थे. फिर भी कुछ साथी डटे हुए थे. उस समय भोजपुर में एक मशाल जली थी. एक लड़ाई शुरू हुई थी और उसी लड़ाई ने धीरे-धीरे सारे देश में हमारी पार्टी को स्थापित किया और क्रांतिकारी आंदोलन की एक नई धारा कायम हुई और आज आप जानते हैं कि हमारी पार्टी कहां खड़ी है. इसलिए हमारी पार्टी को, यहां तक कि भोजपुर की पार्टी के रूप में ही लंबे समय तक जाना जाता था.

इसबार जब 22 अप्रैल का प्रोग्राम आया. मेरा बुलावा बहुत से जगहों से था. लेकिन जब मैंने सुना कि आपके यहां भोजपुर में भी मीटिंग होने जा रही है तो मैंने कहा कि मैं भोजपुर ही जाऊंगा. क्योंकि पार्टी तो भोजपुर में ही है. यह स्थिति लाने के लिए हमारे बहुत से साथियों ने अपना जीवन दिया है, शहीद हुए हैं. उनकी याद हम अपने दिल में संजोए हुए हैं और उनके बताए रास्ते पर हमेशा चलेंगे. आज 22 अप्रैल हमारे लिए यही शपथ लेने का दिन है. आज आप देख रहे हैं कि सांप्रदायिकता का खतरा पूरे देश पर छाया हुआ है. सारा देश सांप्रदायिकता के इस खतरे से लड़ रहा है, जूझ रहा है. हम यह मानते हैं कि सांप्रदायिकता से राजनीतिक तौर पर लड़ाई लड़ी जाए. इसीलिए जब यहां तक कि भाजपा की राजस्थान, मध्यप्रदेश, हिमाचल प्रदेश की सरकारें गिरा दी गई तो हमारी पार्टी ने कहा कि यह तरीका सही नहीं है, हमें राजनीतिक चैलेंज देना चाहिए. जब 25 फरवरी को उनकी दिल्ली रैली को प्रतिबंधित किया गया तो हमने कहा कि हम इसके पक्ष में नहीं हैं. गैर जनवादी तरीकों से आप भाजपा से नहीं लड़ सकते. उनका राजनीतिक तौर पर मुकाबला करना चाहिए. हमारे कुछ लोग कहेंगे, आप कह तो रहे हैं किंतु आप राजनीतिक मुकाबला कर कहां रहे हैं? ठीक है, बनारस में, जिसे अयोध्या के बाद भाजपा अपना अगला निशाना बनाना चाहती थी, राजनीतिक तौर पर हम उनके चैलेंज के मुकाबले खड़े हुए. जिस रोज उनकी रैली थी, हमने कहा कि हम भी उसी दिन रैली करेंगे. उन्होंने कहा कि हम सड़कों पर उतरेंगे और आईपीएफ वालों को रैली नहीं करने देंगे. हमने कहा कि हम करेगें. हमारी रैली हुई और  उनका एक भी आदमी वहां नजर नहीं आया.

इसके बाद इलाहाबाद में चुनाव हुआ. उस चुनाव में हमारे छात्र लड़े और भाजपा के उम्मीदवार को हमारे छात्र नेता ने काफी बुरी तरह हरा दिया. मंडल वगैरह के समय में छात्रों का बंटवारा हो गया था. हमारे छात्र आंदोलन ने रोजगार के सवाल पर उन्हें फिर से एकताबद्ध किया है और हमने भाजपा को वहां शिकस्त दी है. उसी तरह बनारस हिंदू विश्वविद्यालय आरएसएस का गढ़ रहा है. हमेशा से हम भी वहां थे. वहां भी हमारी लड़ाई शुरू हुई. आरएसएस ने अपनी सारी ताकत लगा दी. हमारे खिलाफ सारी पार्टीयां वहां खड़ी थीं. वहां जनता दल का भी उम्मीदवार खड़ा था. मुलायम सिंह का भी उम्मीदवार खड़ा था. सीपीआई, सीपीएम वालों का भी खड़ा था. हम अकेले लड़ रहे थे. वह लड़ाई भी हमने जीत ली. चुनाव हमने जीत लिया. हमको दलितों, पिछड़ों ने भी वोट दिया, माइनरिटी ने भी वोट दिया और हर जाति से आने वाले हर अच्छे छात्र हमारे छात्र नेता के पक्ष में खड़े हुए. बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में करीब 25-30 साल बाद पहली बार लाल झंडा छात्रसंघ भवन पर फहराया.

हम भाजपा के साथ राजनीतिक तौर पर ही लड़ाई लड़ना चाहते हैं. इस लड़ाई में भाजपा को हमने उसके गढ़ में ही, छोटे पैमाने पर ही सही, उसे शिकस्त दी. यहां भी हम उससे इसी तरह लड़ना चाहते हैं. लेकिन हम यहां देख रहे हैं कि भोजपुर में हो या दूसरी जगहों पर हो, पुरानी किस्म की सामंती ताकतें हैं, इनकी पुरानी निजी सेनाए हैं, उन सारी ताकतों में भाजपा अपना समर्थन एकट्ठा कर रही हैं. हमारे साथ इनकी लंबे समय तक जमीन के सवाल पर जो लड़ाई चलती रही है, उस लड़ाई में सामंती गुंडों के साथ भाजपा आ खड़ी हुई है. वे हमारे लोगों की हत्या कर रहे हैं. हम उनसे यह कहना चाहते हैं कि हम राजनीतिक तौर पर ही तुमसे लड़ना चाहते हैं. लेकिन अगर तुम समझते हो कि भोजपुर में इतने सालों से लड़ाई लड़ने के बाद जनता ने जो अपना हक बनाया है, उसको तुम फिर पीछे धकेल सकोगे तो तुम इस मुगालते में मत रहो. अब वह पुराना समय कभी नहीं लौटेगा. इस बात को तुम्हें समझ लेना चाहिए. अगर बंदूक से तुम्हें लड़ाई लड़ने का शौक है, तो तुम्हें यह भी जान लेना चाहिए कि भोजपुर सूरत, बंबई और अहमदाबाद नहीं है. भोजपुर भोजपुर है. यहां बंदूक का जवाब बंदूक से दिया जाता है.

बिहार में लालू यादव जी की सरकार चल रही है. कहते हैं, सामाजिक न्याय की सरकार है. सामाजिक न्याय! जिस समय लालू यादव पटना में सड़कों की राजनीति किया करते थे, सड़क छाप राजनीति करते थे, उसके पहले से भोजपुर में, वह लड़ाई बिहार के गांवों में, दलितों, पिछड़ों की सामाजिक न्याय की लड़ाई, कौन लड़ रहा था? उसे हमारी पार्टी लड़ रही थी. उस समय ये लालू यादव पटना में सड़क छाप राजनीति करते थे और गांवों में, झोपड़ियों में, सबसे ज्यादा गरीबों और दलितों के बीच रहके सामाजिक न्याय की लड़ाई, सामाजिक मर्यादा की लड़ाई और उनके लिए अपना खून-पसीना बहाना यह हमारी पार्टी बहुत पहले से करती आई है. अचानक ये सब सामाजिक न्याय के दावेदार बन गए और आकर इन्होंने बड़ी-बड़ी बातें करनी शुरू कर दीं. इनकी सरकार के तीन साल हुए. तीन साल के सामाजिक न्याय के शासन में इनको क्या मिला? एक तो लालू यादव जी को उड़नखटोला मिला. अब वे उड़नखटोला में घूमते हैं. वे कहते हैं एक चपरासी का बेटा अब उड़नखटोला में घूमता है. एक तो यह उपलब्धि है उड़नखटोला में घूमनेवाली, जिसमें वे हवा में ऊंचाई पर उड़ने लगे हैं. बातें भी उनकी हवाई होने लगी हैं. दूसरी उपलब्धि है कि जो बात वे कहते हैं, वह है चरवाहा विद्यालय. तो कुल मिलाकर ये दो उपलब्धियां हैं. इन दो सामाजिक न्याय की बातें वे करते हैं. कहते हैं कि अभी तक ये दो उपलब्धियां हुई. उन्होंने खुद एक बार कहा है कि मेरा पिछला तीन साल ऐसे ही बर्बाद हो गया और अगले दो साल में कुछ करूंगा. तो पिछले तीन साल में उन्होंने इतना ही किया. अगर आप इसके उपलब्धि मानते हैं, लालू यादव के उड़नखटोला में घूमने को उपलब्धि मानते हैं, अगर यह सामाजिक न्याय की उपलब्धि है, चरवाहा विद्यालय में भी कहां तक कितना हो रहा है मुझे उसपर संदेह है. तो कुल मिलाकर यही उनके सामाजिक न्याय की उपलब्धियां हैं. और जहां तक जनता की बात हो तो अब मैं देख रहा हूं कि लोगों में यह बहस चलने लगी है कि जगन्नाथ मिश्रा और लालू यादव में किसने ज्यादा पैसा बना लिया है. इसी पर बहस है. क्या हुआ, मुझे नहीं मालूम. लेकिन जहां जाता हूं तो देखता हूं कि यही बहस है. उन्होंने पिछले चुनाव में यहां पर हमारे खिलाफ रामलखन यादव को खड़ा किया था. पिछले दिनों विश्वनाथ प्रताप सिंह से बातें हो रही थीं. बातचीत में वे कहने लगे कि कांग्रेस ने हमारे पांच एमपी को तोड़ लिया. हमने कहा कि उन्होंने तो तोड़ लिया, लेकिन बिहार में आपने क्या किया? वे कहने लगे कि हमें शर्मिंदा मत कीजिए. हमने कहा कि हमें तो खैर एमपी की एक सीट नहीं मिली. लेकिन हमारा संगठन रहा, हमारा उसूल रहा. लेकिन आपका तो एमपी भी गया और उसूल भी गए. सब कुछ गया. वे कहने लगे कि हमसे गलती हो गई. इसके लिए मैं शर्मिंदा हूं. विश्वनाथ प्रताप सिंह भले आदमी हैं, शर्मिंदा हैं. लेकिन लाहू यादव शर्मिंदा हैं या नहीं, ये मुझे नहीं मालूम. हमने देखा है कि किस तरह से उन्होंने आईपीएफ को खत्म करने के लिए, सीपीआई(एमएल) को खत्म करने के लिए, यहां तक कि एक कांग्रेसी आदमी को यहां लाकर खड़ा कर दिया और अंत में दिखाई पड़ा कि यह कांग्रेसी आदमी कांग्रेसी खेमे में ही जा खड़ा हुआ. फिर वे करने लगे कि वे हमारी पार्टी को खत्म कर देंगे. तो हमने कहा कि देखिए आप हमसे एक-दो विधायक ले गए. यहां-वहां से हमारे संगठन के दो-चार आदमी ले गए और कहने लगे कि आईपीएफ खत्म हो गया, सीपीआई(एमएल) खत्म हो गई. तो हम कहते हैं कि जब एक घर होता है तो उसमें अक्सर दो-चार दिन बाद कुछ धूल जमा हो जाती है, कूड़ा-कर्कट जमा हो जाता है तो उसको साफ करना पड़ता है. इसी तरह से एक पार्टी में भी धूल जमा हो जाती है और अगर लालू यादव ने हमारे घर की सफाई कर दी है, तो इसके लिए हम उन्हें धन्यवाद देते हैं. हमारी पार्टी इस तरह का कूड़ा-कर्कट खुद ही झाड़ती रहती है और समाज से नए-नए तत्वों की भर्ती करती रहती है. नई-नई ताकतें इसमें शामिल होती रहती हैं. जिंदा ताकतें इसमें शामिल होती रहती हैं और मुर्दा ताकतें निकलती रहती हैं. यही किसी भी क्रांतिकारी पार्टी का इतिहास है. इसलिए हमारी पार्टी को खत्म करने की बात जो वे कहते हैं तो मैं इतना ही कहना चाहता हूं कि लालू यादव के राजनीति में आने से पहले या मुख्यमंत्री बनने से पहले भी हमारी पार्टी बिहार में थी. जब वो मुख्यमंत्री है तब भी हमारी पार्टी बिहार में है. वे कहते हैं कि वे 20 सालों तक मुख्यमंत्री रहेंगे. मैं नहीं जानता कि वे 20 सालों तक या 25 सालों तक मुख्यमंत्री रहेंगे. लेकिन यह जरूर जानता हूं कि उनके बाद भी मेरी पार्टी बिहार में रहेगी और वे शायद राजनीति से रिटायर हो जाएं, पर हमारी पार्टी पहले भी यहां थी, आज भी है और भविष्य में भी रहेगी. हमारी पार्टी को खत्म करने की ताकत किसी लालू यादव व किसी ऐरे-गैरे में नहीं है.

सामाजिक न्याय के नाम पर उनकी जो लड़ाई यहां पर है, उसकी यही उपलब्धियां रही हैं. असली जो लड़ाई रहीहै, सामंतों से लड़ने की, भूमि सुधार की, इस मामले में उन्होंने कुछ नहीं किया. कुछ दिनों पहले उन्होंने एक सर्कुलर निकाला था भूमि सुधार को लेकर. वह सर्कुलर भी उन्होंने वापस ले लिया. हमें आंदोलन करने पड़ रहे हैं और संघर्ष चलाना पड़ रहा है. इसलिए हम कह रहे हैं कि सरकार जो सामाजिक न्याय की बातें करती है, वह सब ढकोसला है और इस लड़ाई में जीत हासिल करने के लिए हमें अपनी ताकत पर भरोसा करके, अपने आंदोलन पर भरोसा करके आगे बढ़ना पड़ता है. उसी तरह से हम आगे बढ़ रहे हैं.

आज बिहार में एक तरफ पलामू में अकाल पड़ा हुआ है, लोग खाने-पीने बिना मर रहे हैं और दूसरी तरफ हमने देखा कि विधानसभा में वे बिल पास कर रहे हैं, एमएलए और एमपी का पैसा बढ़ाने की बातें कर रहे हैं. तो यह है हालत. इनके अंदर कोई संवेदना ही नहीं रह गई है. कम से कम पहले दिखावा तो करते थे. अब तो वह भी नहीं रह गया है. यहां लोग भूखों मर रहे हैं. पलामू को सोमालिया कहा जा रहा है. अफ्रीका में सोमालिया की जो हालत है, वही पलामू की हालत है. एक से एक लोग आ रहे हैं. दुनिया में इसकी चर्चा हो रही है और हमारे यहां के मुख्यमंत्री? उनको इसकी कुछ भी परवाह नहीं है. वे विधानसभा में बैठकर बिल पास करवा रहे हैं और यह बिल किसकी मदद से पास हो रहा है? कांग्रेस की मदद से उनको ये बिल पास करवाना पड़ा. वामपंथी पार्टियां उनकी सहयोगी थीं, उन सारी पार्टियों को भी उनका बायकाट करना पड़ा. जगन्नाथ मिश्रा और लालू यादव दोनों नें मिलजुलकर बिल पास करवाया है. तो उनके अंदर एक गठजोड़ भी है. जितनी इस तरह की बातें होती हैं उनमें वे साथ हो जाते हैं. ये तो हालत है. वामपंथी पार्टियों ने इस तरह से इसका विरोध किया इससे हम खुश हैं. हमने उनसे कहा कि यह अच्छी बात है. आपको जनता के सवालों पर अपने पैरों पर खड़ा होना चाहिए. हमेशा सर झुका के और दब्बू बनकर मत रहिए. इससे वामपंथ की  मर्यादा खराब होती है. सर उठाइए, उसूलों के लिए लड़िए.

आज हम कहना चाह रहे हैं कि वामपंथियों के बीच लगातार दोस्ती बढ़ती चली जा रही है. हाल में दिल्ली में 14 तारीख को एक रैली हुई. इसके बाद 15 तारीख को वहां एक कन्वेंशन हुआ जिसमें जो सारे वामपंथी जनसंगठन हैं – छात्रों के, मजदूरों के, महिलाओं के, किसानों के, उन सबके लोग वहां जमा हुए. देश भर से आकर उन्होंने हिस्सा लिया. नई आर्थिक नीतियों के खिलाफ, सांप्रयादिकता के खिलाफ उन्होंने सितंबर महीने में 9 तारीख को भारत बंद का फैसला किया. उसके बाद मुझसे, सीपीआई-सीपीएम की खेत मजदूर यूनियन के जो अखिल भारतीय प्रेसिडेंट और जेनरल सेक्रेटरी हैं, वे लोग कह रहे थे कि देश भर में तूफान पैदा करना चाहिए. खेत मजदूर संगठनों के एक राष्ट्रीय ढांचे का निर्माण किया जाए. हमने कहा कि यह बात ठीक है. हमारे लोग जरूर ऐसा करें, क्योंकि हम ऐसा महसूस करते हैं कि हमारी खेत मजदूर जनता, हमारे भूमिहीन किसान, मजदूर ही वह वर्ग है जो सारी कठिनाइयों को झेलते हुए हमारी पार्टी के पक्ष में खड़ा रहा है, तमाम मुश्किलों के बीच खड़ा रहा है और लाल झंड़े को थामें रहा है. इसलिए अखिल भारतीय पैमाने पर इन्हें संगठित किया जाए.

इस तरह से वामपंथी पार्टियों के बीच आपस में सहयोग बढ़ रहा है. बिहार में सीपीआई वाले इस बात से थोड़ा डरते हैं कि हमारे साथ अगर काम करेंगे तो शायद उनकी कतारों, शायद उनकी जनता, सब आईपीएफ में न चली जाए, सब सीपीआई(एमएल) में न चली जाए. इस डर के मारे वे थोड़ा हिचकिचाते रहते हैं. थोड़ी रुकावटें डालते रहते हैं. लेकिन कुल मिलाकर धीरे-धीरे हम यहां भी उनके साथ एकताबद्ध कार्यवाहियां कर रहे हैं और देश के पैमाने पर भी ये कार्यवाहियां चल रही हैं.

वामपंथी सरकार इस देश में एक सपना लेकर आएगी. चूंकि आम आदमी यह देख रहा है कि कांग्रेस की जो सरकार है उसके रहते पहले तो 4000 करोड़ रुपए का एक घोटाला हुआ. उसके बाद हमने देखा कि बाबरी मस्जिद वाली घटना के बाद बंबई में मुसलमानों का, इतना बड़ा कत्लेआम हो गया जिसका जवाब नहीं. फिर हमने देखा कि इतना बड़ा बम ब्लास्ट हुआ. अब वे कहते हैं कि इसमें विदेशी हाथ है. हमने कहा कि इसमें विदेशी हाथ है कि नहीं यह दूर की बात है. लेकिन विदेशी हाथ तो बिना देशी हाथ के काम नहीं कर सकता. ये देशी हाथ तो सामने आ रहे हैं. आपके सारे देशी हाथ दिखाई पड़ रहे हैं. ये सब अंडरवर्ल्ड वाले, माफिया, गुंडे, बदमाश वे ही हैं जिनको आप लोगों ने ही तैयार किया है और इनके हाथ क्या है? विदेशी हाथ कहां तक पहुंच रहे हैं? अभी तक संजय दत्त से सुनील दत्त तक पहुंचे हैं. अब ये देशी हाथ कहीं दिल्ली तक न पहुंच जाएं. देशी हाथों को खोजिए. कहीं देशी हाथों को दबाने के लिए तो विदेशी हाथों की बात नहीं उठा रहे हैं? मुझे लगता है कि यह सरकार के चलने की हालत नहीं है. यह सरकार दमखम खो चुकी है. इसलिए सांप्रदायिकता और उसके विरोध की, और धर्मनिरपेक्षता की जो ये सारी बातें हैं, इसको लेकर जनता के बीच जाया जाए. हम इसके पक्ष में हैं. भाजपा को हमने अगर इचरी में शिकस्त दी है तो हमें चुनावों में भी शिकस्त देनी है, इस बिहार में और भोजपुर में भी.
सभी शहीदों को लाल सलाम.