उदारीकरण और वैश्वीकरण के इस दौर में, कामगार विभिन्न हिस्सों में बंटे हुए हैं; कुछ तो बहुराष्ट्रीय निगमों, बड़े काॅरपोरेट घरानों और सार्वजनिक क्षेत्र में काम करने वाले स्थाई श्रमिक हैं जो उच्च वेतन पाते हैं, जबकि साथ ही बेहद कम वेतन पाने वाले, असुरक्षित ठेका और अस्थाई श्रमिकों की एक भारी जमात मौजूद है. स्थाई मजदूरों का यह हिस्सा बहुत तेज़ी से घट रहा है जबकि ऐसे मजदूरों की संख्या में बहुत तेजी से बढ़ोतरी हो रही है जिन्हें न्यूनतम वेतन तक नहीं दिया जाता. कुछ बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने सबक सीख लिया है और रास्ता ढूंढ लिया है, वे मौजूदा श्रम कानूनों से बचने के रास्ते के तौर पर अब मजदूरों को 6 से 8 माह की अवधि के लिए ट्रेनी (प्रशिक्षु) के बतौर नौकरी पर रखते हैं. अब हर संस्थान एक ही साथ स्थाई मजदूरों, ठेका मजदूरों, ट्रेनी और अप्रेंटिस, दिहाड़ी और कैजुअल मजदूरों को काम पर रखते हैं जिनमें सिर्फ स्थाई मजदूरों को ही वेतन, रोजगार एवं सामाजिक सुरक्षा जैसा प्रतीत होने वाला कुछ हासिल होता है. हालांकि ऐसे क्षेत्रों में जहां ट्रेड यूनियनें नहीं हैं, मिसाल के तौर पर गारमेंट उद्योग, स्थाई मजदूरों को इसकी भी कोई गारंटी नहीं है. मजदूरों को ना तो रोजगार की सुरक्षा हासिल है ना ही वेतन की, और अब नये कानून आने के बाद, ये मजदूर ईएसआई और पीफ तक की न्यूनतम सामाजिक सुरक्षा से भी वंचित हैं. नये कानूनों के मुताबिक, ईएसआई और पीएफ वैकल्पिक कर दिए गए हैं और कंपनियों को कानूनी तौर पर छूट दे दी गई है कि वो नामभर के लिए बीमा करवा लें और छुट्टी पाएं. सरकार ‘स्थाई’ नौकरी की जगह पर ‘नियमित’ रोजगार की अवधारणा ले आई है, जिसे नियत अवधि नियोजन रोजगार के तौर पर कानूनी जामा पहनाया जा रहा है. मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार अब इस बात पर विचार कर रही है कि न्यूनतम वेतन की अनिवार्य शर्त को हटा दिया जाए और उसकी जगह ‘फ्लोर वेज’ का विचार ले आया जाए, जो लगभग 4500-5000 रु. तक होगा. तो ‘न्यूनतम वेतन’ का विचार, जो असल में भुखमरी वेतन से अधिक कुछ नहीं है, इसकी जगह तथाकथित सार्विक (युनिवर्सल) ‘राष्ट्रीय वेतन’ अथवा फ्लोर वेज लाया जा रहा है. इस बात पर ध्यान दें कि यह 18,000 रु. नहीं है जैसा कि अफवाहबाज़ फेक न्यूज़ मीडिया उछाल रही है. 8 घंटे के कार्यदिवस को माना ही नहीं जाता और ज्यादातर निजी क्षेत्र की कंपनियों में 12 घंटे के कार्यदिवस का चलन पूरी तरह स्थापित किया जा चुका है.

नये संशोधनों के मुताबिक ठेका मजदूर, ‘समान काम के लिए समान वेतन’ का दावा नहीं कर सकते, वे केवल राज्य में न्यूनतम वेतन पाने का दावा कर सकते हैं. हायर एंड फायर चलन बन चुका है. ठेका मजदूर प्रथा को दूसरे स्थान पर धकेला जा रहा है और अप्रेंटिसशिप और ट्रेनी की प्रथा को, जहां न्यूनतम वेतन की अदायगी अनिवार्य नहीं है, रोजगार देने का प्रमुख तरीका बनाया जा रहा है. सरकार की कार्ययोजना है कि अगले तीन सालों में अप्रेंटिसों की संख्या को 3 लाख के स्तर से सीधा 30 लाख तक बढ़ाया जाए.

छंटनी और तालाबंदी के लिए सरकारी अनुमति मांगने की शर्त में मजदूरों की संख्या को 100 से बढ़ाकर 300 तक करने के संशोधन के साथ ही लगभग 75 प्रतिशत कंपनियां श्रम कानूनों के दायरे से ही बाहर हो जाएंगी. अगर आप 300 मजदूरों से ज्यादा वाली कंपनियों द्वारा छंटनी के लिए अनुमति लेने की शर्त हटाने के खिलाफ आवाज उठाते हैं तो, पांच साल की अवधि में स्थापित कंपनियां जिनकी कार्यकारी पूंजी 25 करोड़ रूपये से कम है, उन्हें ‘स्टार्ट अप’ कह दिया जाता है ताकि उन्हें हर किस्म के श्रम कानूनों के दायरे से बाहर रखा जा सके.

ट्रेड यूनियन बनाने की पूरी प्रक्रिया को बहुत पेचीदा बना दिया गया है और जनरल कामगार यूनियनों (जिनमें कामगारों के विभिन्न हिस्से शामिल हों) का तो पंजीकरण ही रोक दिया गया है. मजदूरों के ‘हड़ताल के मौलिक अधिकार’ को विभिन्न तरीकों से छीना जा रहा है. ये सभी मौजूदा कानून मजदूर वर्ग के महान बलिदानों और जुझारू हड़तालों के बाद बने थे. और अब, मजदूर वर्ग आंदोलन को फिर मजबूरन सदियों पुरानी 8 घंटे के कार्य दिवस और ट्रेड यूनियन अधिकारों की मांग को उठाना पड़ रहा है. मजदूर-विरोधी, काॅरपोरेट-परस्त संशोधनों के खिलाफ आंदोलन खड़ा करना आज हमारा मुख्य कार्यभार बन गया है, और हमें खुद को मजदूर वर्ग द्वारा जवाबी हमले कराने के लिए तैयार करना होगा. मजदूर वर्ग को सिर्फ अपनी आजादी के लिए ही नहीं बल्कि समस्त जनता की आजादी, विरोध और असहमति के अधिकार के लिए संघर्ष करने को तैयार होना होगा. और ये सिर्फ काॅरपोरेट, साम्प्रदायिक, मनुवादी फासीवाद के खिलाफ जुझारू संघर्षों के ज़रिए ही संभव है.

काॅरपोरेट भूमि हड़प को आसान बनाने के लिये भूमि अधिग्रहण कानूनों में बदलाव, और श्रम कानूनों में मालिक-परस्त सुधार आज मोदी सरकार के सबसे महत्वपूर्ण एजेंडा हैं. 44 केन्द्रीय कानूनों को वेतन, औद्योगिक संबंध, सामाजिक सुरक्षा और सुरक्षा एवं सेवा शर्तों जैसे चार कोड्स में समेट देने के भी पहले से, ये कोड नीति आयोग द्वारा (2017-18 से 2019-2020) तीन साल के प्रस्तावित ऐक्शन एजेंडा की वजह से बेकार हो चुके हैं. ये ऐक्शन प्लान बहुत खुल कर कहता है कि इन कानूनों को चार कोड्स में सीमित कर देना तब तक फायदेमंद नहीं होगा जब तक इन्हें श्रम कानून में त्वरित सुधारों का सहारा नहीं मिलेगा. असल में तो अब असली मुद्दा औपचारिक क्षेत्र को अनौपचारिक बनाने और संगठित क्षेत्र को असंगठित बनाने का है. असल मामला ये है कि औपचारिक मजदूर वर्ग क्षेत्र को इतना ज्यादा अनौपचारिक बना दिया जाए ताकि मौजूदा औपचारिक मजदूरों को अनौपचारिक मजदूरों के साथ प्रतिद्वंद्विता के लिए मजबूर होना पड़े. ‘कम उत्पादकता और कम वैतनिक रोजगार” की स्थिति को सुधारने के नाम पर सरकार उच्च वेतन प्राप्त मजदूरों को भी कम वेतन वाली स्थिति में धकेल रही है.

अब मामला केवल सैंकड़ों एकड़ वाले विशेष आर्थिक क्षेत्रों – सेज़ का नहीं है जिन्हें श्रम कानूनों से छूट मिली हुई है, बल्कि वर्तमान मोदी-नीत भाजपा सरकार की प्रस्तावित नीति यह है कि पूरे पूर्वी और पश्चिमी तटीय इलाकों के कई हज़ार एकड़ को सीईजी (यानी कोस्टल एम्पलाॅयमेंट जोन), औद्योगिक और माल (फ्रेट) काॅरिडोर घोषित कर दिया जाय और लाखों मजदूरों के लिए श्रम कानूनों को खत्म कर दिया जाय.

श्रम बाज़ार के उदारीकरण को आर्थिक नीतियों के उदारीकरण के अनुरूप बनाये रखना बहुत पुराना एजेंडा है, लेकिन फिर भी पिछली सरकारें इसे छेड़ने से हिचकिचा रहीं थीं. लेकिन आईएमएफ और अन्य अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के बढ़ते दबाव और साम्राज्यवादी निर्देशों के साथ और काॅरपोरेट-साम्प्रदायिक-मनुवादी फासीवादी ताकतों के केन्द्रीय सत्ता पर काबिज़ होते ही बाज़ार-चालित श्रम स्थितियां और संशोधन सबसे प्रमुख एजेंडा बन गया है. यहां तक कि मनरेगा को भी सिर्फ इसलिए तहस-नहस किया जा रहा है ताकि श्रमिकों को मजबूरन शहरों की ओर पलायन करना पड़े जिससे श्रम की कीमतों को न्यूनतम रखा जा सके. सस्ते घर और ऐसी ही अन्य योजनाएं तो सिर्फ आने वाले संकट के प्रभाव को कम करने के लिए चलाई जा रही हैं. अब इस सरकार की रणनीति ये है कि श्रमिकों की भारी तादाद में आपूर्ति के जरिये श्रम की कीमतों को कम से कम किया जाय ताकि भारी मुनाफा बनाया जा सके.