अनौपचारिकरण, आउटसोर्सिंग, अस्थाईकरण और ठेकाकरण पूंजी की कुछ रणनीतियां हैं जिनका मकसद है मेहनत से हासिल किए गए श्रम अधिकारों को नाकाम करना और चरम मुनाफा कमाना. नियत अवधि नियोजन (फिक्स्ड टर्म एम्प्लाॅयमेंट-एफटीई) और अप्रेंटिसशिप ‘हायर एंड फायर’ (रखो और निकालो) की नई रणनीतियां हैं. पूंजी की मांग के अनुसार श्रम बाजार की पुनर्संरचना की प्रक्रिया में तेज़ी लाने के लिए मौजूदा श्रम कानूनों की सुरक्षा को खत्म किया जा रहा है. सार्वजनिक क्षेत्र को अपनी उल्लेखनीय ऊंचाइयों से नीचे गिराने एवं नष्ट करने, अर्थव्यवस्था के अंधाधुंध निजीकरण एवं उदारीकरण, योजना मशीनरी के अंत और साम्राज्यवादी वैश्वीकरण के साथ ही निजी पूंजी ने सत्ता की बागडोर अपने हाथों में ले ली है.

इस पृष्ठभूमि में, भारतीय पूंजी के पैरोकार मौजूदा उदारीकरण की प्रक्रिया और राजकीय पूंजीवाद के काल (’80 के दशक के पूर्व) के श्रम कानूनों के बीच असंतुलन से परेशान हैं. उनके विचार से, श्रम बाजार की स्थितियां संगठित क्षेत्र के मजदूरों की ‘सुरक्षा’ के लिए बने कानूनों की वजह से ज्यादा विकृत थी, जो कुल श्रम शक्ति का मात्र 7 प्रतिशत थे. दूसरी तरफ, असंगठित क्षेत्र की 93 प्रतिशत श्रम शक्ति जो किसी भी अर्थपूर्ण कानून द्वारा संरक्षित नहीं थी वो सुलगता हुआ बम था जो कभी भी फट सकता था जैसे बढ़ती हुई बेरोजगार श्रम शक्ति. हालांकि यह एक तथ्य है कि ये कानून आमतौर पर अपने कमजोर क्रियान्वयन की वजह से नज़रों का धोखा के अलावा कुछ नहीं रहे हैं, फिर भी केवल अपने अस्तित्व के चलते – इन कानूनों के क्रियान्वयन के लिये मजदूरों को संगठित होने को मिली वैद्यता – पूंजीपतियों के लिए ये कानून एक बड़े अवरोध के बतौर देखे जाते हैं. प्रस्तावित कानूनों से अपेक्षा की जाती है कि ये ट्रेड यूनियन अधिकारों को नष्ट करेंगे और असंगठित क्षेत्र के असंतुष्ट मजदूरों के किसी भी विस्फोट की संभावना को स्थगित करेंगे. यह श्रम बाजार की स्थितियों का उदारीकरण की प्रक्रिया के साथ संतुलन बनाने की एक कोशिश है.

जहां असुरक्षित और सस्ते असंगठित क्षेत्र के मजदूरों से वैश्विक श्रम से प्रतिद्वंद्विता करने की अपेक्षा की जाती है, वहीं इस देश की संगठित श्रम शक्ति से यह अपेक्षा की जाती है कि वो घरेलू असंगठित श्रम से प्रतिद्वंद्विता करे. इस तथाकथित ‘असंतुलन’ को सुलझाने के लिए वैश्वीकरण और उदारीकरण की प्रक्रिया की गति के अनुसार श्रम बाजार की पुनर्संरचना करने के वास्ते श्रम कानूनों में सुधार अपरिहार्य हो जाते हैं. मजदूर वर्ग के बहादुराना संघर्षों की बदौलत हासिल किए गए श्रम कानूनों की सुरक्षा को खत्म करने के मौजूदा दौर से पहले ही 1991 से सरकारों द्वारा विनिवेश और निजीकरण की नीतियों का दौर चलाया गया था.

स्पेशल इकनाॅमिक जोन्स (विशेष आर्थिक क्षेत्र) के कानून जो इन क्षेत्रों को श्रम कानूनों के क्रियान्वयन से पूरी तरह छूट देते हैं, औद्योगिक विवाद कानून में संशोधन जिनके जरिए छंटनी और तालाबंदी – हायर एंड फायर – को बिल्कुल आसान बना दिया गया है, महिलाओं के लिए रात के काम की अनुमति देना, पीएफ ऐक्ट में संशोधन जिससे मजदूरों के भविष्य की सुरक्षा के फंड को बाजार के उतार-चढ़ाव के भरोसे छोड़ दिया जाएगा और उसे पेंशन फंड रेग्युलेटरी एंड डेवलपमेंट अथाॅरिटी (पीएफआरडीए) के ज़रिए निजी कंपनियों को सौंप दिया जाएगा, नया गढ़ा गया ‘सिद्धांत’ जो सरकारी कर्मचारियों के वेतन तय करने और तदानुसार केन्द्रीय वेतन आयोगों को निर्देशित करने की अनुमति बाजार को देता है, और प्रस्तावित शासकीय आदेश और नियम, आदि – सब एक दूसरे के पूरक हैं. इस सब का तथाकथित उद्देश्य व्यापार को आसान बनाना है जो कि मजदूरों के सबसे बुनियादी अधिकारों पर सीधा हमला है. असल में, मोदी-नीत भाजपा सरकार पहले शासकीय आदेशों और सर्कुलरों के जरिए एक सहायक वातावरण बनाने की कोशिश करती है, और फिर अनिवार्य कानूनों में ‘छोटे-मोटे’ बदलाव करती है जो संसदीय जांच के दायरे में नहीं आते हैं, या फिर जो किसी भी समीक्षा से बच सकते हैं, जैसा कि स्टैंडिंग आॅर्डर्स एमेंडमेंट ऐक्ट के मामले में किया गया.