मजदूर वर्ग को वापस औद्योगिक क्रांति के समय की सामाजिक और आर्थिक स्थिति में ले जाने के एकमात्र उद्देश्य से उसे चैतरफा हमलों का निशाना बनाया जा रहा है. अंतर्राष्ट्रीय रूप से यह वो मोड़ है जिसमें निरंतर वैश्विक आर्थिक संकट, विशाल असमानता और कामगार अवाम की जीवन स्थितियों और मूलभूत अधिकारों पर लगातार हमले व्याप्त हैं. इस आर्थिक संकट के साथ-साथ युद्ध और नस्लीय हिंसा, बेरोकटोक इस्लामोफोबिया और राज्य द्वारा निगरानी पर सवार फासीवादी प्रवृत्तियों और ताकतों का पुर्नउत्थान जारी है. 2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा-नीत एनडीए की जीत के बाद रिकार्ड तोड़ संख्या में विभिन्न राज्यों में भाजपा-नीत सरकारों के उभार ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस), भाजपा का कोर संगठन जो भाजपा और कई तरह के सहयोगी व संबद्ध संस्थानों के व्यापक तंत्र का नेतृत्व करता है, को अभूतपूर्व आक्रामकता और तेजी के साथ अपने फासीवादी एजेंडा को थोपने का साहस दिया है. आज भाजपा हर क्षेत्र में नव-उदारवादी हमले का नेतृत्व कर रही है, जबकि साथ ही वह आरएसएस के एजेंडा को आगे बढ़ाते हुए समाज का पूरी तरह साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण कर रही है और राजकीय व गैर-राजकीय संस्थाओं की पूरी श्रृंखला को अधीन कर अपने कब्जे में ले रही है. इतिहास हमें बार-बार यही दिखाता है कि फासीवाद कमगार वर्ग के संगठनों पर हमला करता है और संघर्षों द्वारा जीते गए राजनीतिक और आर्थिक अधिकारों से उसे वंचित कर देता है.
ये फासीवादी ताकतें मुख्यतः मजदूर वर्ग के खिलाफ निर्देशित होती हैं क्योंकि ये मजदूरी में कटौती करती हैं, यूनियनों को नष्ट करती हैं, हड़ताल के अधिकार पर हमले करती हैं और मालिकों के पूर्ण शासन की पुनस्र्थापना करती हैं. अब यह मौजूदा फासीवादी हमला अस्थाई औजार के बतौर हो या ना हो, सर्वहारा की यह जिम्मेदारी है कि इसके खिलाफ सीधे संघर्ष किया जाय. फासीवादी हमले को सिर्फ सर्वहारा की संगठित क्रान्तिकारी वर्ग संघर्ष की ताकत के हथियार से ही हराया जा सकता है. यह और भी ज़रूरी हो जाता है क्योंकि फासीवाद जनता के बहुत बड़े हिस्से को, जिसमें सर्वहारा भी शामिल है, अपनी तरफ आकर्षित करने में सफल रहता है, उनकी सबसे आवश्यक ज़रूरतों और मांगों को लेकर लोक लुभावनी अपील करने के जरिये, जैसे मोदी ”अच्छे दिन” और ”सबका साथ, सबका विकास” के जुमलों के साथ सत्ता में आया था.
18वीं सदी से ही औद्योगीकरण और उपनिवेशवाद मार्का एक नई विश्व व्यवस्था की स्थापना हुई. औद्योगिक क्रान्ति पूंजीपति वर्ग के लिए खुशहाली और मजदूरों के लिए भीषण शोषण लेकर आई थी, जिसमें पुरानी सामाजिक दासता की व्यवस्था को वैतनिक दासता में बदल दिया गया था. लेकिन जल्द ही कामगारों ने अपने नये मालिकों यानी पूंजीपति वर्ग के खिलाफ विद्रोह करना शुरु कर दिया. पूरी दुनिया में मजदूर संघर्षों की बाढ़ आ गई. 1917 में रूस में क्रान्ति, 1949 में चीन में क्रान्ति और तीसरी दुनिया के देशों में भी मजदूरों के अनेकों संघर्ष नयी पूंजीवादी व्यवस्था द्वारा समाज में उत्पन्न उथल-पुथल का परिणाम थे. भारत में भी, पूंजीपतियों के खिलाफ कई जुझारू संघर्ष हुए. ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के खिलाफ संघर्ष में मजदूर वर्ग हिरावल भूमिका में था. क्रान्तिकारी भगत सिंह के उन शब्दों को याद कीजिए जिन्होंने कहा था कि मजदूर समाज का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है; फिर भी उन्हें उनके श्रम के लुटेरों द्वारा लूटा जाता है और उनके मूलभूत अधिकारों से वंचित कर दिया जाता है; वो किसान जो सबके लिए अन्न उपजाता है, अपने परिवार के साथ भूखों मरता है; वो जुलाहा जो पूरी दुनिया के बाजार को कपड़ा आपूर्ति करता है, उसके पास अपने और अपने बच्चों का तन ढकने के लिए कपड़ा पूरा नहीं पड़ता है; भवन मिस्त्री, लुहार, बढ़ई जो शानदार भव्य महल बनाते हैं, वो झुग्गी-झोपड़ियों में रहने को मजबूर हैं, जबकि पूंजीपति और शोषक, इस समाज की जोंके हैं, जो अपनी सनक में लाखों रुपये यूंही बरबाद कर देते हैं.
मजदूर आंदोलन अपने लंबे और जुझारू संघर्षों की बदौलत और साम्राज्यवादी औपनिवेशिक ताकतों को उखाड़ फेंकने के जरिये अपने ट्रेड यूनियन बनाने के अधिकार, रोजगार की सुरक्षा, वेतन की सुरक्षा और सामाजिक सुरक्षा हासिल करने में सफल रहे. स्वतंत्र भारत में राज्य-केन्द्रित श्रम सत्ता का उदय हुआ, जिसने औद्योगिक शांति कायम करने, जिम्मेदार ट्रेड यूनियनों को संरक्षण देने और संगठित क्षेत्र में मजदूरों पर केन्द्रित सामाजिक नीति का विकास करने के माध्यम से मजदूर आंदोलन की इस राजनीतिक ऊर्जा को नियंत्रित करने के प्रयास किये. लेकिन असंगठित क्षेत्र अब भी बिना किसी सुरक्षा के दुर्दशा में रहने को मजबूर रहा.
भारत में उदारीकरण के आगमन से कामगारों के अधिकारों को श्रम शक्ति के ठेकाकरण, ‘हायर एंड फायर’, भुखमरी वेतन, रोजगार की सुरक्षा में कमी, वार्षिक वेतन वृद्धि न होना, कोई सामाजिक सुरक्षा लाभ न होना आदि अनेकों तरीकों के जरिए छीना गया. यहां तक कि यूनियन बनाने के अधिकार पर भी हमला किया गया. पिछले तीन दशकों में यह स्थिति और भयानक ही हुई है. भारत के “विकास” और “प्रगति” जैसे भ्रामक नारों को सत्ताधारी वर्ग ने हमेशा चलाया है जबकि असल में, मजदूरों को लूटा गया और उनकी गरीबी और आर्थिक असमानता में वृद्धि ही हुई है. मोदी सरकार, जो कि क्रोनी पूंजीपतियों और साम्राज्यवादी ताकतों की अभिन्न मित्र है, ने ”मेक इन इंडिया” के नाम पर सर्वहारा की ‘‘श्रम शक्ति’’ समेत इस देश को लूटने का खुला निमंत्रण ही जारी कर दिया है. मोदी ने वैश्विक और स्थानीय कोरपोरेशनों के लिए “ईज़ आॅफ डूइंग बिजनेस” उपलब्ध कराने की शेखी बघारी हैः और इस सिलसिले में श्रम और पर्यावरणीय सुरक्षा कानूनों को नष्ट कर रहा है. सत्ता की काॅरपोरेट-परस्त छवि को छुपाने के लिए, मोदी और उसके मंत्रियों ने ”ईज़ आॅफ डूइंग बिजनेस” के साथ ही साथ ”ईज़ आॅफ लिविंग” (जीवन को सुगम बनाना) भी कहना शुरु कर दिया है. लेकिन धोखेबाजी भरी इन चालों का भी भुखमरी से होने वाली मौतों और किसानों की आत्महत्या से भांडा फूट जाता है. मोदी के “स्किल इंडिया” का भी भांडा फूट गया है जबकि किसी नई ट्रेनिंग और वैतनिक रोजगार के नये अवसरों को उपलब्ध करवाने की जगह, बेरोजगार युवाओं का मजाक बनाया जा रहा है, देश के बेरोजगार रेहड़ी लगाकर या ऐसे ही अन्य अनौपचारिक धंधे करके अपनी आजीविका का जुगाड़ कर रहे हैं, और बेशर्म मोदी सरकार इसका भी श्रेय लेने के लिए तत्पर है और खुद प्रधानमंत्री मोदी ये कहते घूम रहे हैं कि आखिर पकौड़े बेचना भी तो रोजगार ही है, जैसे कि ये रोजगार युवाओं को सरकार ने उपलब्ध करवाया हो.
जाहिरा तौर पर, रेहड़ी-पटरी वालों ने भी आक्रोश से सरकार का ध्यान इस तरफ दिलाया कि खुद उनके ”ईज़ आॅफ लिविंग” और ‘‘ईज़ आॅफ डुइंग बिजनेस” पर भी हमले हो रहे हैं, उन्हें शहर की सड़कों से हटाया जा रहा है. विश्व विकास सूचकांक (मार्च 2017) यह दिखाता है कि भारत में कुल रोजगार में वैतनिक नौकरियों का प्रतिशत 21.2 है – कितनी शर्म की बात है कि यह दक्षिण एशिया के औसत (26), बांग्लादेश (44.5), पाकिस्तान (39.6) से भी नीचे है, और यहां तक कि भारी कर्ज के बोझ तले दबे ग़रीब देशों में (28.9) और सबसे कम विकसित देशों में (33.3) प्रतिशत से भी नीचे है. विश्व बैंक की एक हालिया ड्राफ्ट कंट्री डायग्नोस्टिक रिपोर्ट में इस बात पर बल दिया गया है कि भारत को, बहुसंख्यक लोगों को जोखिमभरे और किसी तरह जिंदा रखने वाली अल्प-आमदनी के कार्यकलापों की तरफ धकेलने की जगह, ऐसे नियमित, वैतनिक रोजगारों का सृजन करना होगा जिनमें कमाई में वृद्धि हो.
गिरती विकासदर और अधिकतर भारतीयों की असल आमदनी में गिरावट की स्थिति के बीच, असमानता बहुत तेजी से बढ़ रही है. पिछले तीन दशकों में इस प्रक्रिया में लगातार तेज़ी आती जा रही है, और खासतौर पर आम आदमी के लिए आर्थिक विनाश के बीचों बीच अनियंत्रित काॅरपोरेट हमलों के मोदी काल में. 2014 से लेकर अब तक शीर्ष पर बैठे 1 प्रतिशत लोगों का संपत्ति में हिस्सा बहुत तेज़ी से बढ़ा है, जहां 2014 में यह 49 प्रतिशत था वहीं 2017 में यह 73 प्रतिशत हो गया है. नवीनतम अध्ययन दिखाते हैं कि शीर्ष के 5 प्रतिशत की आमदनी बाकी 95 प्रतिशत लोगों की कुल आमदनी के बराबर है. ठीक इसी समय भारत ने दुनिया के सबसे ज्यादा भूखे देश का स्थान भी यथावत बनाए रखा है जहां 2017 के ग्लोबल हंगर इंडेक्स में 119 देशों की कतार में भारत का स्थान 100वां है.
भारत की न्यायपालिका सिर्फ नव-उदारवाद की मदद में लगी हुई है. न्यायालयों में से तीव्र प्रतिक्रियावादी आदेश पारित हो रहे हैं, जो उदारीकरण की नीतियों के साथ पूरी तरह फिट बैठते हैं. मजूदर आंदोलन के जरिए जीते गए अधिकारों जैसे रोजगार सुरक्षा, सामाजिक सुरक्षा और सामूहिक सौदेबाजी को छीन लिया गया है. सेल (स्टील अथाॅरिटी आॅफ इंडिया) के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 2001 में आदेश दिया कि ठेका मजदूरी के खात्मे का यह मतलब नहीं है कि ठेका मजदूरों को स्वतःप्रवृत तरीके से नियमित किया जाएगा. उमा देवी के अनौपचारिक और अस्थाई मजदूरों के मामले में 2006 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि बिना उपयुक्त चयन प्रक्रिया के काम पर रखे गए मजदूरों के पास नियमित होने का अधिकार नहीं है. नव-उदारवाद के दौर में, भारत के न्यायालय और सरकारें एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. न्यायालय हर स्तर पर, जिसमें स्थानीय न्यायालय भी शामिल हैं, और साथ ही श्रम विभाग भी, उद्योगपतियों का पक्ष ले रहे हैं. अब मजदूरों को यकीन हो गया है कि न्यायपालिका भी निष्पक्ष नहीं है.
काॅरपोरेटों के लिए यूनियन बनाना और हड़तालें अभिशाप हैं. श्रम कानूनों में मोदी के सारे संशोधन देश को 18वीं सदी के जंगलराज वाले हालात की तरफ ले जा रहे हैं. बहुराष्ट्रीय कंपनियों और काॅरपोरेट घरानों को हायर और फायर की खुली छूट दे दी गई है. मजदूरों के साथ गुलामों की तरह बर्ताव किया जा रहा है. ‘विकास’ के नाम पर कड़े संघर्षों द्वारा हासिल किए गए मजदूरों के अधिकारों को छीना जा रहा है. यहां तक कि मजदूरों को अब तक भी दी जाने वाली न्यूनतम कानूनी सुरक्षा को भी पूंजीवाद के निर्बाध विकास के लिए हटा दिया जा रहा है. मोदी और संघ परिवार के हमले का पहला और सबसे बड़ा निशाना है मजदूरों के प्रतिरोध का अधिकार, यूनियन बनाने का अधिकार और सौदेबाजी का अधिकार. मारुति, येनम, नोएडा, जूट मिल और चाय बागान के मालिकों की बंगाल में हत्याएं आदि, मजदूरों के आक्रोश के फूट पड़ने की हालिया घटनाएं हैं. ये घटनाएं किसी यूनियन द्वारा निर्देशित नहीं थीं, बल्कि यह इस बात की तरफ साफ इशारा था कि जब लाचार और सताए हुए मजदूरों के पास प्रतिकार का कोई कानूनी, संगठित माध्यम नहीं होगा तो उसके क्या परिणाम हो सकते हैं. भाजपा सरकार एक काॅरपोरेट-परस्त, साम्प्रदायिक, मनुवादी, फासीवादी सरकार है. वर्तमान दौर की परिस्थिति बिल्कुल 18वीं सदी में मजदूरों की दुर्दशा के समान होती जा रही है.
इस राजनीतिक संदर्भ में भारत में फासीवाद सामने आ रहा है, मजदूर वर्ग के संघर्षों को अब फैक्टरी की चारदीवारी में बंद करके नहीं रखा जा सकता है और ना ही इन्हें सिर्फ आर्थिक संघर्षों तक सीमित रखा जा सकता है. इन संघर्षों को मजदूर वर्ग के फासीवाद के खिलाफ संघर्ष का, अपने सम्मान को स्थापित करने का और समाज में सामाजिक और वर्गीय न्याय स्थापित करने का आयाम हासिल करना होगा. इसमें फासीवादी प्रवृत्तियों के खिलाफ संघर्ष, खुद मजदूर वर्ग के भीतर हर तरह के जातीय और पितृसत्तामक पूर्वाग्रहों और रुढ़िवाद के खिलाफ संघर्ष शामिल है. जाहिर है जब अंबेडकर ये कहते हैं कि जाति श्रम का विभाजन नहीं है बल्कि श्रमिकों का विभाजन है तो वो असल में श्रमिकों को एक वर्ग के तौर पर जाति-विरोधी आधार पर एकजुट होने का आहृान कर रहे होते हैं. वे मजदूर ही थे, और आज भी हैं, एक ऐसा वर्ग जो मेहनतकश जनता को अपनी किस्मत का मालिक बनने की क्षमता तक उन्नत कर सकता है. अब सारी उम्मीद मजदूर वर्ग के संघर्षों की क्रान्तिकारी क्षमता पर टिकी हुई है.
आज भारत में, हमारे सामने सिर्फ सामान्य किस्म के पूंजी की वर्ग सत्ता का मामला नहीं है, बल्कि हम एक फासीवादी सत्ता का सामना कर रहे हैं जिसमें सबसे निर्लज्ज क्रोनी पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के प्रति अधीनता तथा बहुसंख्यकवाद और उसके साथ ही सबसे खतरनाक किस्म की जातीय और लैंगिक हिंसा और दमन का मिश्रण शामिल है. अब जहां भारतीय संविधान को दिनोदिन नष्ट किया जा रहा है, हत्या करने वाली उन्मादी भीड़ का राज, जिसे खुलेआम सत्ता और सत्ताधारी पार्टी का समर्थन व संरक्षण मिल रहा है, आज के समय की व्यवस्था बन गया है. यह प्रवृत्ति तब एक व्यवस्था बन रही है जब किसी भी पूंजीवादी गणतंत्र का आधार कानून का शासन माना जाता है. भारतीय इतिहास के सर्वाधिक प्रतिगामी विचार ओर प्रवृत्तियां, जो कि उपनिवेश-विरोधी संघर्ष के दौरान अधिकाधिक हाशिए पर पड़ी हुई थीं, ऐसा लगता है कि उन्होंने संसदीय तख्तापलट कर दिया है, और अब वे चुनावी जीत को लाइसेंस मानते हुए सर्वाधिक प्रतिगामी नीतियों के आधार पर राज्य का पुनर्गठन कर रही है और समाज को कठपुतली … गुलाम … ... संरचना के का कार्य कर रहे हैं।
भारत का वसंत का वज्रनाद भारतीय क्रान्तिकारी राजनीति में आमूल परिवर्तन की ऐतिहासिक घटना थी जो इस आजाद राष्ट्र के पहले बड़े आर्थिक और राजनीतिक संकट के दौर में उभर कर सामने आई थी, जिसने वर्ग संघर्ष और भारतीय क्रान्ति के सपने के अनिवार्य संबंध को प्रदर्शित किया था. किसान संघर्षों की युद्धभूमि पर गढ़ी गई क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट राजनीतिक विचारधारा आज भी हमारे रास्ते, विचारों, तरीकों और काम की शैली को निर्देशित कर रही है. समय की पुकार है कि मजदूर वर्ग की क्रान्तिकारी क्षमता को संघर्षरत जनता की सुरक्षा और न्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था की स्थापना के लिए खोल दिया जाय.