बुनियादी सुविधाओं का प्रावधान करने वाले सरकारी कार्यक्रमों को ध्वस्त किया जा रहा है, कई जगहों पर तो ये दायित्व निजी/स्वयंसेवी संस्थाओं और निजी कंपनियों के पास चला गया है. प. बंगाल में स्वयं सहायता समूहों द्वारा मिड-डे मील चलाना एकमात्र तरीका बन गया लगता है. झारखंड में देखा गया है कि ‘जल सहिया’ के नाम पर कर्मियों का चरम शोषण किया जाता है. वो हर घर में शौचालय बनाने के लिए जिम्मेदार हैं, हर घर में पानी की गुणवत्ता जांचने के लिए जिम्मेदार हैं, आदि लेकिन उन्हें कोई नियमित वेतन नहीं दिया जाता, पर ये वादा किया जाता है कि हर शौचालय पर उन्हें कुछ 75 रु. और हर जांच पर 15 रु. की प्रोत्साहन राशि दी जाएगी जो आज तक नहीं मिली. इन परिशोधित योजनाओं के तहत जमीनी स्तर पर काम करने वाले लोगों को
स्वयंसेवक/स्वयंसेविका का नाम देकर, न कि नियमित कर्मी मानकर, मूलभूत अधिकारों से भी वचित रखा जाता है, उन्हें वेतन की जगह मानदेय दिया जाता है. आज ऐसे करीब दो करोड़ कर्मचारी हैं जिन्हें कर्मचारी का दर्जा नहीं दिया जाता है. मोदी सरकार के अंतर्गत यह एजेंडा और खुल कर, साफ तौर पर सामने आ गया है, क्योंकि अब सारी नीतियों और योजनाओं को अंतर्राष्ट्रीय वित्त पूंजी की मदद से ‘राष्ट्रीय विकास’ की आड़ में चलाया जाना है.
इन सामाजिक क्षेत्रों को व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए हड़पने के लिए निजी क्षेत्र को भारी प्रोत्साहनों का लालच दिया जाता है. इसके उलट मनरेगा, आईसीडीएस, एनआरएचएम, मिड-डे मील, नेशनल लिटरेसी मिशन, ट्राइबल सब-प्लान, शेड्यूल कास्ट सब-प्लान, पीने के पानी और स्वच्छता, आदि जैसी योजनाओं के लिए बजट आबंटन को बुरी तरह घटा दिया गया है, जिससे कि ये योजनाएं नामभर की रह गई हैं.