हमारे देश की लगभग साठ प्रतिशत श्रमशक्ति आज भी अपनी आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर है, फिर भी राष्ट्रीय आय में उसका योगदान लगातार घट रहा है. औद्योगिक पूंजी, आज तक भी, कृषि और ग्रामीण इलाकों की अतिरिक्त श्रमशक्ति को खपाने में असफल रही है. ये जो भारी संख्या में ग्रामीण कामगार आबादी रोजगार की तलाश में शहरी क्षेत्रों में पलायन कर रही है, इसकी वजह औद्योगिक वृद्धि का आकर्षण नहीं है बल्कि ये तो कृषि संकट की वजह से होने वाला पलायन है. लगभग तीन दशक लंबी वैश्वीकरण और उदारीकरण की नीतियों को लागू करने की वजह से असमानता में भारी बढ़ोतरी हुई है. नवउदारवादी आर्थिक नीतियों ने इस देश में खरबपतियों की संख्या में इजाफा ज़रूर किया है, लेकिन यह उन करोड़ों गरीबों की कीमत पर है जो और अधिक गरीब, भूख के शिकार होते जा रहे हैं.
भारतीय पूंजीवाद की एक प्रमुख खास पहचान है एक विशाल असंगठित क्षेत्र की मौजूदगी – जो सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 65 प्रतिशत का योगदान करता है, देश की 40 प्रतिशत से ज्यादा आबादी को रोजगार प्रदान करता है, और जिसमें देश की कुल कामगार आबादी का 93 प्रतिशत हिस्सा शामिल है. हालांकि असंगठित क्षेत्र के मजदूरों पर कई कानून पूरे या आधे-अधूरे तौर पर लागू होते हैं, लेकिन इनमें से किसी को भी ठीक से लागू नहीं किया जाता. ये हर किस्म की रोजगार-सुरक्षा या सामाजिक कल्याण लाभ से वंचित हैं.