एक भारी चिंताजनक प्रवृति औपचारिक क्षेत्र में काम का अनवरत अनौपचारिकरण है. एनएसएसओ के अनुमान के अनुसार 2011-12 में (जो कि सबसे हालिया उपलब्ध अनुमान है) कुल श्रमिकों की संख्या 48 करोड़ 47 लाख में से अनौपचारिक श्रमिकों की संख्या 44 करोड़ 72 लाख थी. इनमें से ज्यादातर मजदूरों को ‘असुरक्षित’ माना जा सकता है, जो कि असुरक्षित नौकरियां करते हैं और इनके पास नाममात्र की सामाजिक सुरक्षा है. जैसा कि पहले भी देखा गया है, सकल घरेलू उत्पाद की अपेक्षाकृत उच्च वृद्धि दरों के बावजूद अनौपचारिकता और असुरक्षा लगातार बढ़ रही है; सामाजिक क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण जगहों से भारतीय राज्य के पल्ला झाड़ने के चलते मजदूर वर्ग के अस्तित्व की असुरक्षा में और वृद्धि ही हुई है.
जहां एक ओर संगठित क्षेत्र में कुल रोजगार 1999-2000 में 3 करोड़ 88.9 लाख से बढ़ कर 2011-2012 में 8 करोड़ 16 लाख हो गया था, इसी दौरान संगठित क्षेत्र में ही अनौपचारिक नौकरियां 1 करोड़ 59.5 लाख से बढ़ कर 4 करोड़ 72 लाख हो गईं थी. असल में एनएसएसओ के सबसे हालिया अनुमान के अनुसार ‘औपचारिक क्षेत्र’ में अनौपचारिक मजदूरों की संख्या 1990 के अंत में 30 प्रतिशत से बढ़कर अभी 58 प्रतिशत तक हो गई है. इससे पता चलता है कि पिछले दशक में संगठित क्षेत्र में जो नये रोजगार सृजित हुए हैं उनमें बहुसंख्या अनौपचारिक प्रकृति के हैं, ऐसे में संगठित क्षेत्र में वर्तमान अनौपचारिक नौकरियां 58 प्रतिशत हैं. कुल मिलाकर बहुत बड़ी संख्या में मजदूर अनौपचारिक वेतन पर नौकरी कर रहे हैं या फिर स्वरोजगार में लगे हुए हैं, और उनमें से ज्यादातर बहुत ही असुरक्षित कार्य ओर जीवन स्थितियों में फंसे हुये हैं. यहां यह भी बताना महत्वपूर्ण है कि इनमें से ज्यादातर के पास तरक्की करने के बहुत ही सीमित मौके उपलब्ध हैं.
हालांकि हाल के कुछ सालों में नियमित कामों में महिलाओं के रोजगार में कुछ बढ़ोतरी हुई है, अध्ययन ये दिखातें है कि इसमें वृद्धि मुख्यतः सामुदायिक और निजी सेवाओं में हुई है जिसमें घरेलू काम का बहुत बड़ा हिस्सा है. लेबर ब्यूरो के सबसे हालिया आंकड़े दिखाते हैं कि जहां 2014 में पुरुषों की सबसे अधिक उत्पादकता उम्र समूह (18-29 साल) में सहभागिता की दर 70.1 प्रतिशत है वहीं महिलाओं में यह दर बहुत ही कम यानी सिर्फ 29.4 प्रतिशत है.
अनौपचारिक क्षेत्र में सबसे ज्यादा गरीब मजदूरों में शोषित जातियां जैसे दलित हैं, ये उनके रोजगार की किस्मों और हर जगह उन्हें जिस तरह का भेदभाव झेलना पड़ता है, उसकी वजह से होता है. सामाजिक हाशिए में पड़े समूहों की भारी बहुसंख्या हाथ से किए जाने वाले, ‘तुच्छ’ समझे जाने वाले और झाड़ू-पोछा के कामों से आगे नहीं बढ़ पाती.
अर्जुन सेनगुप्ता कमेटी की रिपोर्ट कहती है कि देश के 80 प्रतिशत से ज्यादा मजदूर ‘गरीब और असुरक्षित’ की श्रेणी में आते हैं, जिसका मतलब है कि उनकी प्रतिदिन प्रति व्यक्ति कुल खपत, 2004-05 की कीमत के हिसाब से, 20 रु. या उससे भी कम है. इस तथाकथित आर्थिक सुधार के दौर में इन मजदूरों के कल्याण में कोई खास सुधार दिखाई नहीं देता है.
अनौपचारिकरण के बढ़ते प्रचलन से संगठित और असंगठित क्षेत्रों तथा औपचारिक और अनौपचारिक रोजगार के बीच द्वंद्व और विषमता मजबूत हो रही है. अर्थव्यवस्था में ढांचागत बदलाव (लोगों को निम्न-उत्पादकता से उच्च-उत्पादकता वाले रोगजार में ले जाना) को बढ़ती हुई विषमता और असमानता से अवरोध का सामना करना पड़ता है. किसी भी श्रम सुधार का लक्ष्य अनौपचारिकता की प्रक्रिया को उलटने और अनौपचारिक रोजगार के औपचारिकरण को प्रोत्साहन देने के जरिये इस विषमता को कम करना होना चाहिए. विनियमन (सरकारी हस्तक्षेप को कम करना) या बाज़ार की ताक़तों को खुला छोड देने से असुरक्षित कर्मचारियों की विशाल फौज में भारी बढ़ोतरी होगी, और बल्कि, ये स्थिति आगे और भयावह रूप ले सकती है.
इसलिए मुख्य बात या मुख्य मुद्दा ये है कि औपचारिक और अनौपचारिक क्षेत्रों में अनौपचारिक श्रमिकों की सुरक्षा के लिए कानून बनाये जायें. देश के पूरे मजदूर वर्ग का बहुत छोटा सा हिस्सा यानी सिर्फ 7 प्रतिशत के आसपास ही अधिकतर कानूनों की सुरक्षा पाता है और ये कानून भी अब खत्म किए जा रहे हैं. यहां तक कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी सिर्फ ठेका मजदूरों या प्रशिक्षुओं को ही काम पर रख रही हैं. कई कंपनियां प्रशिक्षुओं को छः महीने से सिर्फ एक दिन कम तक नौकरी पर रखती हैं और फिर उन्हें बाहर कर देती हैं. कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां और काॅरपोरेट कंपनियां तो सिर्फ 5 प्रतिशत नियमित कर्मचारियों को रखती हैं जो कि सिर्फ प्रबंधकीय स्टाफ होता है और बहुत ही कम नियमित मजदूर होते हैं. ऐसे में उद्योगों के लिए हायर एंड फायर को आसान बनाना बेकार का बहाना है.
अगर नौकरी के प्रचुर या वैकल्पिक रास्ते मौजूद हों तो हायर एंड फायर तो अपने आप आसान हो जा सकता है. लेकिन भारतीय परिदृश्य में, जहां बेरोजगारी दर इतनी ज्यादा है और रोजगार सृजन नकारात्मक है, हायर एंड फायर को आसान बनाने से सिर्फ बेरोजगारों की भारी फौज ही खड़ी होगी जो पहले से ही सामाजिक-राजनीतिक मुद्दा बना हुआ है.
अल्प-रोजगार, स्वरोजगार और असुरक्षित रोजगार देश की बड़ी समस्याएं हैं. सरकार तो सिर्फ ‘पकौड़ा तलने’ जैसे स्वरोजगार का माॅडल पेश कर इस समस्या को बढ़ाने का ही काम कर रही है, जबकि औपचारिक, उचित और कुशल रोजगार को कम कर रही है. मानव संपदा, जो कि इस देश की सम्पत्ति है, को बेरहमी से बर्बाद किया जा रहा है.