यह बहुत स्वाभाविक है कि कामगार सिर्फ ज्यादा वेतन, ज्यादा लाभ और बेहतर कार्यस्थितियां हासिल करने की प्रक्रिया में ही संगठित होते हैं. पिछले कुछ समय में, जो कुछ जुझारू संघर्ष हुए हैं वे बंगलूरू में गारमेंट कामगारों का संघर्ष, प्रिकोल में आॅटो कम्पोनेंट कामगारों का संघर्ष, मारुति में आॅटोमोबाइल कामगारों का संघर्ष सहित दिल्ली के आसपास कुछ अन्य उद्योगों के संघर्ष और केरल के मुन्नार में महिला बागान कामगारों का संघर्ष शामिल है. यहां ध्यान देने की बात है कि गारमेंट कामगारों का संघर्ष एक बिल्कुल ही स्वतःस्र्फूत संघर्ष था जो बिजली की तेजी से शुरु हुआ और कोई भी संगठित ट्रेड यूनियन आंदोलन इसे नेतृत्व उपलब्ध नहीं करवा पाया था. इसका कुल जमा हासिल यह था कि इसकी वजह से केन्द्र सरकार द्वारा अपने पीएफ सर्कुलर को वापस लेना पड़ा; शायद यह अकेला ऐसा संघर्ष था जिसने मोदी-नीत भाजपा सरकार को किसी मजूदर-विरोधी कदम को वापस लेने के लिये बाध्य किया.  हमें इसे एक सबक की तरह लेना चाहिए और मजदूरों के ऐसे ही स्वतःस्फूर्त आंदोलनों को अपने हाथों में लेने के लिए खुद को तैयार रखना चाहिए जिनके, मोदी सरकार के तहत चल रहे तीव्र उदारीकरण के संदर्भ में कई गुना बढ़ने की अपेक्षा है. कोयम्बटूर में प्रिकोल मजदूरों का ऐतिहासिक संघर्ष ऐक्टू के नेतृत्व में चल रहा है. यहां दो कामगारों को आजीवन कारावास के दंड और प्रबंधन ही नहीं बल्कि राज्य प्रशासन और न्यायालय की तरफ से भी भारी दमन झेलने के बावजूद कामगारों ने अपना संघर्ष जारी रखा हुआ है.

प्रिकोल, मारुति, मुन्नार और बंगलूरु के गारमेंट कामगारों ने आने वाले दिनों के मजदूर वर्ग आंदोलन में संघर्ष के नये रूपों और नई संभावनाओं और दिशा के विकास की तरफ इशारा किया है. मौजूदा आॅटो उद्योग के कामगारों के संघर्ष के अलावा, विनिर्माण, भवन-निर्माण, लाॅजिस्टिक, वस्त्र उद्योग के मजदूर और अधिकाधिक सेवा क्षेत्र के अन्य मजदूर जैसे ई-काॅमर्स कामगार, स्कीम कर्मी, आदि देश में मजदूर वर्ग आंदोलन की चालक शक्ति बनने की क्षमता के साथ नयी ताकतों के बतौर उभरे हैं.