कृषि में रोजगार का प्रतिशत 1980 की शुरुआत में करीब 70 था, जो 1999-2000 में घट कर 60 और 2011-12 में और घटकर सिर्फ 49 प्रतिशत रह गया (रिपोर्ट बताती हैं कि 58 प्रतिशत लोग वर्तमान में कृषि पर निर्भर हैं). इसमें सबसे चैंकाने वाली बात यह है कि रोजगार पर पहली बार आंकड़े दर्ज करने से अब तक पहली बार, कृषि में नियोजित लोगों की कुल संख्या में गिरावट आई है; 2004 और 2011-12 के बीच, करीब साढे तीन करोड़ लोग इस क्षेत्र से अलग हुए. कृषि संकट के कारण कृषि में बढ़ते घाटे के चलते लाखों किसानों ने आत्महत्या कर ली है, और इनमें खासतौर से वो किसान हैं जिनके पास कम जमीन है. कृषि के व्यावसायीकरण और काॅरपोरेटीकरण ने छोटे और हाशिए के किसानों को बिल्कुल तोड़ दिया है और उन्हें रोजगार की तलाश में शहरों की ओर पलायन के लिए मजबूर कर दिया है.

मनरेगा योजना ग्रामीण बेरोजगारी जैसी भीषण समस्या का मुकाबला करने के लिए बनाई गई थी. लेकिन योजना के उद्देश्य को इसकी मजदूरी को न्यूनतम वेतन कानून 1948 से अलग करके पूरी तरह नाकाम कर दिया गया और इसे पूरी तरह अनाकर्षित और अप्रभावी बना दिया गया. और फिर केन्द्र सरकार ने इस योजना के बजट आबंटन को और घटा कर समस्या को और भी गंभीर बना दिया. वेतन को वास्तविक अर्थों में एक बेहतर स्तर तक ना बढ़ाने के चलते इस योजना को भारी धक्का लगा है और इसकी वजह से भारत की श्रम शक्ति के सबसे असुरिक्षत हिस्सों पर मार पड़ी है. और अधिक, जब शहरी इलाके ग्रामीण इलाकों से मजदूरों को अपनी ओर नहीं खींच पाते और दूसरी तरफ रोजगार की तलाश में इन ग्रामीण गरीबों को शहरों की तरफ मजबूरन पलायन करना पड़ता है, तो उससे असंतुलन पैदा होता है जिसका नतीजा होता है बेरोजगारी का भीषण संकट.