यह एक स्थापित तथ्य है कि सिर्फ सकल घरेलू उत्पाद में तीव्र वृद्धि से भारी संख्या में अतिरिक्त रोजगार सृजन की जरूरत को पूरा नहीं किया जा सकता है. लेकिन, पूंजीपतियों और सरकारों ने इस सिद्धांत को अपना लिया है कि केवल तीव्र विकास दर से ही इसे हासिल किया जा सकता है. और इसका नतीजा सबके सामने है.

भारत में बेरोजगारों की संख्या 2017 और 2019 के बीच 1 करोड 83 लाख से बढ़कर 1 करोड़ 89 लाख होने की संभावना है और इसके अलावा ऐसे रोजगार जो कभी भी हाथ से निकल जा सकते हैं, में शामिल लोगों की कुल संख्या में भी बढ़ोतरी होने की संभावना है. सभी क्षेत्रों और गैर-कृषि क्षेत्रों में अनौपचारिक रोजगार की हिस्सेदारी क्रमशः लगभग 90 प्रतिशत और 80 प्रतिशत बताई जाती है. हाल ही की विश्व बैंक की “रोजगार-विहीन विकास?” के शीषर्क वाली एक रिपोर्ट में बहुत ही गमगीन तस्वीर उभरती हैः “नसांख्यिकी बदलाव की वजह से ज्यादातर दक्षिण एशिया में काम करने वाली उम्र की जनसंख्या में भारी बढ़ोतरी हो रही है. इसी संदर्भ में, रोजगार की दरों को स्थिर रखने के लिए भारी मात्रा में रोजगार सृजन करना होगा. लेकिन एक प्रचलित विचार यह है कि काम करने वाली उम्र की जनसंख्या में बढ़ोतरी … … … का करण असल में रोजगार की दरों में गिरावट है, और यह कि महिलाएं इस गिरावट दर की जिम्मेदार है. (पृ. 29).” 15 वर्ष और उससे अधिक उम्र के लोगों की संख्या पर आधारित अपने अनुमान के आधार पर रिपोर्ट यह कहती है कि 2025 तक अपनी रोजगार दर को स्थिर बनाए रखने के लिए भी भारत को हर साल कम से कम 80 लाख रोजगार सृजन करने की जरूरत होगी. हमें यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि भारत का अपना अधिकारिक अनुमान है कि वर्तमान समय में हर साल रोजगार बाजार में कुल 1 करोड़ से सवा करोड़ तक नये लोग आते हैं. मोदी ने हर साल दो करोड़ तक रोजगार सृजन का वादा किया था जबकि साल 2016-17 में केवल 4 लाख रोजगार सृजित किए गए हैं.

अधिकारिक अनुमानों के अनुसार, श्रम-शक्ति में संभावित नये प्रवेशकों को खपाने के लिए हर साल एक से सवा करोड़ रोजगार सृजित करने की जरूरत है. लेबर ब्यूरो में उपलब्ध हालिया अनुमान रोजगार सृजन की गति के मामले में बहुत ही निराशाजनक तस्वीर दिखाते हैं. पूर्ण रोजगार तक पहुंचने की बात तो दूर, यहां तो नये रोजगार सृजन में भी 90 प्रतिशत तक की भारी गिरावट देखी जा रही है; नये रोजगार 2010 में 11 लाख से गिरकर 2016 में 1.5 लाख तक पहुंच गये हैं.

यहां तक कि भारत सरकार के सबसे हाल के आर्थिक सर्वेक्षण में भी यह माना गया है कि रोजगार सृजन समेत अर्थव्यवस्था के विभिन्न आयामों पर इन कदमों के बहुत विपरीत प्रभाव पड़े हैं. इसी तरह सीएमआईई-सीपीएचएस के आंकड़ों के अनुसार, 2017 के पहले चार महीनों में ही लगभग 15 लाख लोग बेरोजगार हो गये हैं, जिसकी वजह नोटबंदी को माना गया था. कई उद्योग एवं विनिर्माण संघों और व्यक्तिगत अनुसंधानकर्ताओं के जमीनी अध्ययनों ने बतलाया है कि 2017 और 2018 के दौरान नोटबंदी और जीएसटी के धक्कों की वजह से भारी मात्रा में लोगों की नौकरियां चली गई थीं. ये भी खबरें मिली थीं कि भारी संख्या में मजदूरों की छंटनी हुई है, भारी मात्रा में विपरीत (शहरों से गांवो की ओर) पलायन हुआ है और मनरेगा आदि के तहत रोजगार की मांग में इजाफा हुआ है. अगर हम इन सबको लेबर ब्यूरो के 2011-2012 और 2015-2016 के बीच हुए वार्षिक सर्वेक्षण से मिलाएंगे तो ये साफ हो जाता है कि मोदी-नीत भाजपा सरकार पूरी तरह काॅरपोरेट-परस्त और मजदूर-विरोधी है और रोजगार सृजन के खिलाफ है.

ऐसा लगता है कि जिनके पास पहले से रोजगार था उन्हें हालिया सरकारी नीतियों के चलते अब पंजीकृत किया गया है. मिसाल के तौर पर 2016 से पहले सिर्फ उन्हीं उद्यमों को ईपीएफओ के अंतर्गत अनिवार्य तौर पर पंजीकरण कराना होता था जिनमें 20 से ज्यादा कर्मचारी कार्यरत होते थे, जिसे 2016 में कम करके 10 कर्मचारी कर दिया गया; इस पारिभाषिक परिवर्तन के चलते औपचारिक नौकरियों की वृद्धि का भ्रम पैदा होता है, जबकि वास्तव में नौकरियों में कोई कुल बढ़ोतरी नहीं है. लेकिन मोदी सरकार इसे ऐसे दिखाना चाहती है जैसे कि भारी रोजगार सृजन हो रहा है.