शुरु कर दिया. उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की नीति को 1991 में आर्थिक स्थिरता और ढांचागत अनुकूलन कार्यक्रम के एक हिस्से के तौर पर, विश्व बैंक और आईएमएफ, के हुक्म पर अपनाया गया था, जिसकी वजह से सार्वजनिक क्षेत्र में विनिवेश को निजीकरण के रास्ते के तौर पर इस्तेमाल किया गया और नतीजतन भारी तादाद में मजदूरों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. यह, असल में, सिर्फ रोजगार-विहीन विकास ही नहीं था बल्कि रोजगार छीनने वाला विकास था. मोदी सरकार ने इसे अविश्वसनीय स्तर तक बढ़ा दिया है जिसमें वह सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों जिनमें एनएचपीसी, कोल इंडिया, ओएनजीसी आदि शामिल हैं को सीधे तौर पर बेच दे रही है और खत्म कर दे रही है. रेलवे और डिफेंस जैसे रणनीतिक सेक्टर 100 प्रतिशत एफडीआई (विदेशी निवेश) के लिये खोल दिये गये हैं.

सरकार की नीति है कि काॅरपोरेट घरानों और बेतहाशा अमीर लेागों पर टैक्स लगाने की बजाय, लाभ कमाने वाले सार्वजनिक उपक्रमों को विनिवेश के नाम पर बेच कर आमदनी की जाए और इससे बजट में पैसा डाला जाए. मोदी सरकार का मंत्र यह है कि सरकार का काम बिजनेस करना नहीं होता. नीति आयोग ने 20 सार्वजनिक क्षेत्र इकाइयों की रणनीतिक ब्रिकी, बेरहम निजीकरण के लिये एक अन्य शब्द, और अन्य 20 सार्वजनिक क्षेत्र इकाइयों के विनिवेश का सुझाव दिया है. एयर इंडिया को बेचना तय लगता है. रेलवे का निजीकरण दूसरा बड़ा कदम है. हालांकि यह हो सकता कि है कि ट्रेनों और पटरियों को समुचित तौर पर फौरन निजी कंपनियों को न दिया जाए लेकिन स्टेशनों, अस्पतालों और वर्कशाॅपों को निजी काॅरपोरेट घरानों, विदेशी कंपनियों और पीपीपी (पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) नीति के अधीन कर दिया जाना तो पक्का लगता है. और साथ ही, प्रतिरक्षा विनिर्माण इकाइयों के आंशिक निजीकरण की तैयारियां भी पूरी हैं.

सार्वजनिक क्षेत्र इकाइयों का विनिवेश ’90 के दशक की नीति है लेकिन विनिवेश के 25 सालों बाद, हाल में जो हो रहा है, वह इसका अंतिम हिस्सा है – सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र की संपत्तियों को निजी कंपनियों को पूरी तरह से सौंप दिया जा रहा है यानि ताबूत में अंतिम कील ठोकी जा रही है. सरकार ने इस वित्त वर्ष में 72,500 करोड़ रूपये के रिकाॅर्ड विनिवेश का लक्ष्य तय किया है. उसमें से 15,000 करोड़ निजी क्षेत्र के हाथों रणनीतिक बिक्री से आएंगे, भूमि इस सौदे का एक हिस्सा होगी ओर प्रबंधकीय नियंत्रण निजी कंपनियों के हाथों में ही बना रहेगा.

जिन कंपनियों में सरकार ने हिस्सेदारी बेचने और प्रबंधकीय नियंत्रण को निजी हाथों में सौंपने का प्रस्ताव दिया है उनमें ड्रेड्जिंग काॅरपोरेशन आॅफ इंडिया, सेंट्रल इलेक्ट्राॅनिकस्, स्कूटर्स इंडिया, हिंदुस्तान प्रीफैब और पवन हंस शामिल हैं. अन्य में हिंदुस्तान लेटेक्स, गोवा शिपयार्ड, त्रिवेणी स्ट्रक्चरलस् और एचईसी शामिल हैं. साथ ही, सरकार ने ओएनजीसी के 11 और आॅयल इंडिया के चार इलाकों की सूची तैयार की है जिनमें 60 प्रतिशत हिस्सेदारी निजी कंपनियों को नीलाम की जायेगी. अब 10 कोयला ब्लाॅकों को 2018 तक व्यावसायिक खनन निजी कंपनियों के लिये खोल दिया जाएगा – जिनमें से चार-चार ब्लाॅक ओडिश और छत्तीसगढ़ में होंगे, और एक-एक ब्लाॅक मध्य प्रदेश और झारखंड में होगा. इसका अगला कदम अधिसंरचनात्मक विकास में निजी कंपनियों को प्रोत्साहन देना है.

अभी ऊर्जा वितरण के निजीकरण की बातें भी चल रही हैं, जो शायद इलेक्ट्रिसिटी ऐक्ट 2003 में संशोधन के साथ ही हो जाएगा. सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के निजीकरण को, इनमें पूंजी डाल कर, फिलहाल के लिए रोक दिया गया है. इनमें पूंजी संचार का असल उद्देश्य है कि इन्हें बिक्री के लिये अधिक आकर्षक बनाया जा सके और इन्हें जीवनक्षम बनाने के लिये तत्काल निवेश की कठिनाई से भविष्य के निजी खरीददारों को बचाया जा सके. अक्सर निजीकरण से ऐसी स्थिति पैदा होती है कि सार्वजनिक क्षेत्र इकाइयां धीरे-धीरे खत्म हो जाती हैं. जैसा कि हम टेलीकाॅम क्षेत्र में देख सकते हैं. देश के नेतृत्वकारी चार टेलीकाॅम आॅपरेटर निजी कंपनियां हैं, जिन्होंने सरकारी बीएसएनएल और एमटीएनएल को बिल्कुल ही खत्म जैसा कर दिया है.

2019 के संसदीय चुनाव नजदीक हैं, और इसी चलते इस बात पर सवालिया निशान लगा हुआ है कि क्या मोदी सरकार चुनावों के पहले निजीकरण के जरिए करोड़ों मजदूरों को नाराज़ करने का खतरा उठा सकती है. लेकिन निजीकरण की पूरी योजना तैयार है और भारी तादाद में विनिवेश के ज़रिए  इसका रास्ता साफ किया जा चुका है, चाहे नई सरकार कोई भी बने, चाहे उसका रंग कोई भी हो, उसे इसी रास्ते पर चलना होगा.