सबसे महत्वपूर्ण श्रम कानून – औद्योगिक विवाद अधिनियम, ट्रेड यूनियन अधिनियम, औद्योगिक रोजगार (स्थायी आदेश) अधिनियम, कामगारों का मुआवजा अधिनियम, मजदूरी भुगतान अधिनियम इत्यादि – रूसी क्रांति और कई अन्य राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों के प्रभाव के चलते, जिनकी अग्रिम पंक्ती में जुझारू मजदूर वर्ग था, औपनिवेशिक काल मे 1926 और 1947 के बीच में बनाये गए थे.

भारतीय उद्योग का नियमन 1881 मे लंकाशायर (ब्रिटेन) उद्योग के दबाव में फैक्ट्री कानूनों के बनने के साथ शुरू हुआ क्योंकि उन्होंने भारतीय कपास मिलों के महिलाओं और बाल श्रम के अनियंत्रित उपयोग और दिन में 16 घंटे तक काम कराने को ‘अनुचित प्रतिस्पर्धा’ के रूप में देखा. पहला विश्व युद्ध पूरा होने तक नियमन कमजोर और टुकड़े टुकड़े मे रहा, लेकिन दिलचस्प बात यह है कि हम इन ’फैक्ट्री कानूनों’ में परिभाषिक सीमाओं के प्रयासों को शुरुआत से ही पाते हैं ताकि ’पारंपरिक’ और छोटे उद्योगों का एक बड़ा हिस्सा जानबूझकर नियमन के अधिकार क्षेत्र से बाहर रखा जा सके.

1920 के दशक में पहले विश्व युद्ध के बाद एक प्रमुख बदलाव ध्यान देने योग्य है. नए स्थापित अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के प्रेरित करने पर और युद्ध के बाद व्यापक औद्योगिक अशांति के कारण, औपनिवेशिक राज्य ने, हम कह सकते हैं कि, आधुनिक श्रम कानून व्यवस्था को स्थापित करने के लिए पहले उपाय किए. दंड संविदा प्रणाली समाप्त कर दी गई और ट्रेड यूनियनों को वैध औद्योगिक विवाद (1926) के लिए आपराधिक अभियोग के खिलाफ रक्षा प्रदान की गई. श्रमिक मुआवजा अधिनियम 1923, मातृत्व कल्याण लाभ अधिनियम और मजदूरी की अदायगी अधिनियम, 1936 के कल्याणकारी कानूनों की एक श्रृंखला 1922 के संशोधित फैक्टरी कानून के साथ लाये गये. हालांकि, इन सभी कानूनों के लिए आम तौर पर सीमित दायरा रखा गया और निश्चित ’दहलीज’ जिसमें एक निश्चित आकार या एक निश्चित स्थिति के नीचे प्रतिष्ठानों में काम करने वाले श्रमिकों के एक विशाल बहुमत को शामिल नहीं किया गया.

उभरते श्रम कानून व्यवस्था का मुख्य बिंदु, हालांकि, 1947 के औद्योगिक विवाद अधिनियम का अधिनियमन ही था. 1920 के दशक के अंत में औद्योगिक कार्रवाई का एक बड़ा हिस्सा, जिसमें प्रमुख 1928 और 1929 में बम्बई कपास मिलों में कम्युनिस्ट ट्रेड यूनियन गिरनी कामगार यूनियन के नेतृत्व में चली सात महीने की लंबी आम हड़ताल थी, के चलते ट्रेड यूनियन विवाद अधिनियम पारित हुआ जो औद्योगिक विवादों में राज्य के हस्तक्षेप को औपचारिक रूप से लागू करता था. इसमें सार्वजनिक उपयोगिता की सेवाओं में हड़तालो और लॉकआउट को प्रतिबंधित करने के प्रावधानों को लाया गया. इसमें न्यायिक निर्णय की प्रक्रिया जिसमें समझौते के लिए एक बोर्ड या राज्य प्राधिकरण के तहत मध्यस्थता और निर्णय के लिए पूछताछ की अदालत का प्रावधान भी लाया गया.

यह भी गौरतलब है कि यह कानून तब पारित किया गया था जब साजिशाना तरीके से कम्युनिस्ट ट्रेड यूनियन नेताओं को षड्यंत्र और राजद्रोह के आरोपों के तहत लंबी अवधि के लिए कैद किया गया था. इस तथ्य के साथ ही यह भी तथ्य था कि शाही (इप्पीरियल) विधान परिषद् में एनएम जोशी जैसे मध्यमार्गी ट्रेड यूनियन नेताओं ने भी अधिनियम के प्रावधानों का पुरजोर विरोध किया था. इस कानून से जुड़ी एक महत्वपूर्ण घटना यह है कि भगत सिंह और बीके दत्ता ने बम फेंक कर गिरफ्तारी दी थी, जब शाही विधानसभा में इस पर बहस की जा रही थी. तत्कालीन प्रस्तावित कानून का उद्देश्य उभरते मजदूर वर्ग आंदोलन को कानूनी रूप से अनुमोदित तौर-तरीकों में खींचकर क्रांतिकारी संघर्षो की कार्रवाई से दूर करना था. इसमें वह केवल आंशिक रूप से ही सफल रहा.