पिछले एक वर्ष से भी ज्यादा समय से रुपया का मूल्य लगातार नीचे लुढ़कता रहा है. 26 जून 2013 को एक डाॅलर का मूल्य 60 रुपया हो गया. 20 अगस्त को अब तक के सबसे निचले स्तर पर गिरते हुए इसका मूल्य एक डाॅलर में 64.13 रुपये के बराबर हो गया और उस दिन के अंत तक यह कुछ संभलकर 63.25 रुपया रह गया. अगस्त माह के उस दिन एक ब्रिटिश पाउंड 100 रुपये के बराबर था और ‘यूरो’ भी (2 अप्रैल को 69.77 रुपये से) उछल कर 84.66 रुपये के समतुल्य हो गया. 28 अगस्त को रुपया का मूल्य और भी नीचे फिसला और यह एक डाॅलर के मुकाबले 68.85 रुपये के स्तर पर चला गया. इसके बाद से इसका मूल्य डाॅलर की तुलना में 61-63 रुपये के इर्दगिर्द डोलता रहा है – यह मूल्य भी पिछले वर्ष (2012) की अपेक्षा लगभग 12-14 प्रतिशत कम है.

बेशक, सरकार तो यही कह रही है कि चिंता की कोई बात नहीं है. वह इस तथ्य को छिपाने की कोशिश कर रही है कि भारतीय मुद्रा की यह कमजोरी कोई अल्पकालिक समस्या नहीं है. वह इस सच्चाई पर पर्दा डालने का प्रयास कर रही है कि यह कमजोरी समग्र अर्थों में देश के खराब आर्थिक प्रदर्शन की ही अभिव्यक्ति है जो जीडीपी की वृद्धि दर में तेज गिरावट जैसे कई सूचकों में प्रतिबिंबित हो रही है.

अधिक प्रत्यक्ष या तात्कालिक अर्थ में रुपये के मूल्य में यह तीखी गिरावट एक ओर भारत के भुगतान संतुलन में बढ़ते चालू खाता घाटे से पैदा हो रही है, तो दूसरी ओर यह लगातार चढ़ते जा रहे विदेशी कर्ज से उत्पन्न हो रही है. इन दोनों वजहों से अंतरराष्ट्रीय निवेशकों का भरोसा खत्म हो रहा है और विदेशी निवेश बाहर निकलना शुरू हो चुका है. पिछले दो वर्षों में भारत में आए निजी विदेशी इक्विटी निवेशकों की संख्या 20 प्रतिशत कम हो गई है. 2012-13 के वित्तीय वर्ष (यानी, अप्रैल 2012 से मार्च 2013 तक की अवधि) में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) 2011-12 की तुलना में 30 प्रतिशत नीचे चला गया. मांग और आपूर्ति के सामान्य नियम के मुताबिक, डाॅलर – यानी, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा – की आपूर्ति में कमी के चलते यह रुपये के मुकाबले अधिक महंगा हो गया है; जबकि संकट के दौर में मुद्रा बाजार में बढ़ी हुई सट्टेबाजी गतिविधियां स्थिति को बदतर बना दे रही हैं.

तेजी से बढ़ते चालू खाता घाटे के पीछे दो प्रमुख कारण दिख रहे हैं. पहला कारण है सोने के वार्षिक आयात में लगभग 90 प्रतिशत का उछाल (यह अपने आप में डंवाडोल अर्थतंत्र को प्रदर्शित करता है; क्योंकि धनिक वर्ग इस पीली धातु को उस वक्त अपनी सबसे पसंदीदा परिसंपत्ति समझता है, जब अर्थतंत्र में अनिश्चितता का माहौल रहता है). स्वर्ण आयात में आए इस उछाल ने अप्रैल 2013 में व्यापार घाटे को बढ़ाकर 20.1 अरब डाॅलर तक पहुंचा दिया, जबकि मई 2012 में यह घाटा 16.9 अरब डाॅलर का था. दूसरा महत्वपूर्ण कारण है हमारा तेल का विशाल आयात बिल. हमारी तेल की 80 प्रतिशत जरूरत आयात से पूरी होती है, और रुपये के मूल्य में आई गिरावट देश के राजकोष पर भयानक दबाव पैदा कर रही है. इस दबाव को तेल और गैस की बढ़ी हुई कीमतों के रूप में फिर आम जनता के कंधों पर लाद दिया जाता है. इसके अलावा, एक सार्वजनिक मध्यवर्ती उपभोग सामग्री होने के नाते जब ईंधन की कीमतें बढ़ती हैं तो उत्पादन की लागतों में, और साथ ही परिवहन खर्चों में भी सीधे बढ़ोतरी हो जाती है. आसमान छूती मूल्यवृद्धि के रूप में यह न केवल आम जनता पर चोट करती है, बल्कि इससे भारत का आयात खर्च भी बढ़ जाता है. इसीलिए, निर्यात वृद्धि के अर्थ में रुपये के अवमूल्यन से भारत को जो फायदा होना चाहिए, वह भी काफी देर से और आंशिक रूप से ही महसूस किया जा रहा है. कुल मिलाकर, इसका नतीजा यह हुआ कि भारत का जो चालू खाता घाटा 2000 के दशक के प्रथमार्ध (2000-05) में जीडीपी के 1 प्रतिशत से भी कम था, वह 2010-11 में जीडीपी का 2.7 प्रतिशत, 2011-12 में 4.2 प्रतिशत और 2012-13 में 5.1 प्रतिशत हो गया. यह 1990-91 में दर्ज घाटे (जीडीपी के 3 प्रतिशत) से भी काफी ज्यादा है, जबकि उस दौर में हमारा अर्थतंत्र गंभीर संकट में फंसा हुआ था.

रुपये के अवमूल्यन की एक दूसरी अनुमानित वजह यह थी कि अमेरिका के फेडरल रिजर्व ने जून 2013 के शुरूआती दिनों में संकेत दिया था कि वह अपने मौद्रिक प्रोत्साहन, यानी आसान शर्तों वाली ऋण नीति, को वापस ले सकती है. भारत के लिए इसका अर्थ यह था कि इससे भारतीय काॅरपोरेट घरानों के लिए लिया जाने वाला विदेशी वाणिज्यिक कर्ज काफी महंगा हो जाएगा और इससे विदेशी निवेशकों को भी नुकसान होगा. संभवतः इसी वजह से रुपया पर सट्टेबाजी दबाव बढ़ा और, जैसा कि ऊपर कहा गया है, एक डाॅलर का मूल्य 60 रुपये से भी ज्यादा हो गया. जब 11 जून (2013) को अमेरिकी फेडरल रिजर्व के चेयरमैन बेन बर्नान्के ने इस आशय की घोषणा की कि अमेरिकी अर्थतंत्र की स्थिति उन्हें तत्काल आसान मुद्रा नीति को वापस लेने की इजाजत नहीं दे रही है, तभी जाकर रुपये का मूल्य थोड़ा संभल कर 59.32 रु. प्रति डाॅलर पर आ सका. जब दूसरी बार मौद्रिक नीति में कड़ाई का संकेत आया, तो उससे रुपये के मूल्य में सबसे बड़ी गिरावट दर्ज की गई – जैसा कि ऊपर दिखाया गया है.

लेकिन, भारतीय मुद्रा के मूल्य में यह उतार-चढ़ाव अमेरिकी मौद्रिक नीति से किस प्रकार जुड़ा हुआ है? दरअसल, पिछले कुछ समय से, खासकर 2003-04 के बजट में पूंजी प्राप्ति (कैपिटल गेन) कर के उन्मूलन के बाद से, कुछ इस प्रकार की चीजें हो रही हैं. विदेशी संस्थागत निवेशकों ने डाॅलर बाजार से कर्ज लिया – जहां डाॅलर की प्रचुरता थी और ब्याज दर काफी कम था – तथा उसे उन विकासशील देशों के सट्टा और माल (उपभोक्ता सामग्रियों) बाजारों तथा रियल इस्टेट में निवेश किया जहां आय की दर ऊंची थी, ताकि सस्ते कर्ज और इन निवेशों पर ऊंची आमदनी के जरिए विशाल मुनाफा कमाया जा सके. भारत सरकार ने चालू खाता घाटे को संतुलित करने तथा रुपया को संभालने के लिए इन विदेशी निवेशों पर भरोसा कर लिया. 2003-08 के दौरान, औसतन 45 अरब डाॅलर प्रति वर्ष के पूंजी अंतर्प्रवाह ने 15 अरब डाॅलर तक के चालू खाता घाटे को आसानी से पूरा कर दिया और रुपये पर ऊर्ध्वोन्मुखी दबाव पैदा किया (यानी डाॅलर के मुकाबले उसका मूल्य बढ़ा दिया). फलतः अप्रैल 2008 में इसका विनिमय मूल्य एक डाॅलर के मुकाबले 40 रुपये से भी कम हो गया, और फुटलूज (मनमौजी) वित्तीय पूंजी का अंतर्प्रवाह बढ़ने से सेंसेक्स में भी भारी उछाल दिखाई पड़ा.

बहरहाल, वैश्विक वित्तीय संकट के दौर में अंतरराष्ट्रीय (वित्तीय) खिलाड़ियों ने भारतीय बाजार में अपने शेयरों को बेचकर मुनाफा बटोरना और अपने अन्य दायित्वों को पूरा करने के लिए इस देश से उस मुनाफे को बाहर ले जाना ही जरूरी समझा. इससे सेंसेक्स नीचे लुढ़का, जीडीपी की वृद्धि दर नीचे गिरी और रुपये का अवमूल्यन हुआ जो सिर्फ एक वर्ष के अंदर, यानी मार्च 2009 तक, गिरकर 52 रु./डाॅलर हो गया. उसके बाद से रुपये के विनिमय मूल्य में गिरावट का रुझान लगातार जारी है. इस प्रकार, वित्तीय बाजारों के वैश्विक एकीकरण के जमाने में वित्तीय पूंजी का अंतर्प्रवाह काफी हद तक अमेरिकी ऋण/मुद्रा नीति पर निर्भर करता है – यह प्रवाह बढ़ता है, जब डाॅलर में कर्ज की प्रचुरता रहती है और यह प्रवाह घट जाता है, जब डाॅलर में कर्ज मिलना मुश्किल होता है. इस किस्म के अस्थिर अंतर्प्रवाह पर निर्भरता खतरनाक हो सकती है, जैसा कि भारतीय रिजर्व बैंक ने पिछले वर्ष2 दिखाया था (बाॅक्स देखें).

फुटलूज विदेशी पूंजी की कमजोरियां

“चालू खाता घाटे के ऊंचा होने के बावजूद, हमलोग 'धक्के' (पुश) और 'खिंचाव (पुल) कारकों के सम्मिलित प्रभाव से वित्त प्रबंध करने में कामयाब रहे हैं. विकसित अर्थतंत्र वाले देशों के केंद्रीय बैंकों द्वारा दिए गए असाधारण मौट्रिक प्रोत्साहन के परिणामस्वरूप वैश्विक प्रणाली में अतिरिक्त तरल मूद्रा की मात्रा ही 'धक्का' का पक्ष है. … इतने बड़े चालू खाता घाटे के वित्त प्रबंध के लिए हम लोग पूंजी प्रवाह के आकस्मिक ठहराव एवं बहिर्गमन की जोखिम पर अपने अर्थतंत्र को खोल रहबे हैं. जिस हद तक पूंजी अल्प-कालिक मुनाफे के लिए (हमारे देश में) आएगी, उस हद तक यह जोखिम बना रहेगा. और अगर पूंजी बहिर्गमन का खतरा सचमुच आकार ग्रहण कर ले, तो विनिमय दर अस्थिर हो जाएगी और बड़ी-अर्थतंत्रीय गड़बड़ियां उत्पन्न होंगी.”

डी सुब्बाराव : “इंडियाज मैक्रो-इकोनॉमिक चैलेंजेज : सम रिजर्व बैंक पर्सपेक्टिव”, आरबीआइ बुलेटिन, अप्रैल 2013 (जोर हमारा)

 

सरल भाषा में कहें तो इस नाभरोसेमंद (पूंजी) अंतर्प्रवाह के सूख जाने की स्थिति में हमारे देश के पास ऐसा कोई साधन नहीं बचा रहेगा जिससे विशाल घाटे को पाटा जा सके, और तब देश राजकीय ऋण संकट में फंस जाएगा, जैसा कि ग्रीस में देखा गया.

बहरहाल, 2012-13 की तीसरी तिमाही में जीडीपी के 6.5% की असामान्य उंचाई से नीचे उतरते हुए भी चालू खाता घाटा 2013-2014 की चैथी तिमाही में काफी असुविधाजनक 3.6% के स्तर पर बना रहा. इसके पीछे कई कारण थे. जैसा कि 30 दिसंबर 2013 को जारी आरबीआइ की ‘वित्तीय स्थायित्व रिपोर्ट’ (एफएसआर) में कहा गया है, अमेरिकी फेडरल रिजर्व ने बौंड खरीदने की प्रक्रिया को शिथिल करने में जो देरी लगाई उससे भारत को चालू खाता घाटे के साथ सामंजस्य बिठाने और अपने विदेशी मुद्रा भंडार की पुनःपूर्ति करके सुरक्षित कोष तैयार करने का मौका मिल गया. 2013 के द्वितीयार्ध में सोने का आयात शुल्क 6% से बढ़ाकर 8%, और उसके बाद 10% कर दिया गया, जिससे इसके आयात में कमी आई. तीसरे, जैसा कि उपर बताया गया है, कमजोर रुपये ने एक सीमित स्तर तक निर्यात को बढ़ावा दिया, जबकि मंद अर्थतंत्र ने आयात की वृद्धि को भी मंद कर दिया.