इस प्रकार, डूबते रुपये से लेकर दबाव में फंसी बैंकिंग प्रणाली तक, प्रवृत्तियां सचमुच खतरनाक हैं. लेकिन, मंद अर्थव्यवस्था के बावजूद सेंसेक्स तो खूब अच्छा चल रहा है! हां, यह तो है, लेकिन प्रमुखतः इसलिए कि विकसित अर्थव्यवस्था वाले देशों में सस्ते ऋण और आसान मुद्रा नीतियों का प्रचलन है, जिससे निवेशकों को अपने देश में लगभग शून्य ब्याज दर पर पैसे लेने और उसके एक हिस्से का उभरती अर्थव्यवस्थाओं में पोर्टफोलियो निवेश करने और उस पर अच्छी आमदनी हासिल करने की प्रेरणा मिलती है. इसीलिए, सेंसेक्स ऊंचा उछलता रहता है – वैश्विक संकट के पहले अधिकांश समय यह 20,000 अंकों के आसपास रहा था, और तीखे किंतु अल्पकालिक गिरावट के बाद जून 2009 के बाद से यह 15,000-20,000 के बीच बना रहा है. लेकिन यह किसी भी तरह से भारतीय अर्थतंत्र के मजबूत बुनियादी तत्वों को नहीं दर्शाता है, जैसा कि हमने ऊपर देखा है और आने वाले पृष्ठों में देखेंगे.

इस प्रकार, चमकते सेंसेक्स के बावजूद, गहरे जड़ जमाई सर्वव्यापी मंदीस्फीति में भारतीय अर्थतंत्र फंसा हुआ है. वह तमाम वृद्धि कहां चली गई और क्यों? बहुत ही मौजूं सवाल, जो एक दूसरा सवाल भी पैदा करता हैः वह कहां से आई थी और कैसे आई? रटा-रटाया सरकारी जवाब, और सरकारी अर्थशास्त्रियों के बीच की स्थापित सर्वानुमति, यही है कि हाल के वर्षों की उच्च वृद्धि दर 1991 में शुरू किए गए शानदार साहसपूर्ण पुनर्गठन से ही पैदा हुई (और, अब और अधिक ‘सुधारों’ के जरिए इसे पुनः हासिल किया जा सकता है.

क्या मामला इतना ही सरल है? आइए, हम इसकी जांच-पड़ताल करते हैं.