जीडीपी में वृद्धि 2008-09 के प्रथमार्ध में 7.8 प्रतिशत के मुकाबले गिरकर द्वितीयार्ध में 5.8 प्रतिशत हो गई. ... जीडीपी में निम्न वृद्धि का आंशिक कारण निजी उपभोग वृद्धि में गिरावट थी. यह औसत उपभोग वृद्धि 2007-08 के समूचे वर्ष में 8.5 प्रतिशत थी, लेकिन 2008-09 के द्वितीयार्ध में वह गिरकर सिर्फ 2.5 प्रतिशत रह गई. 2009-10 की पहली तिमाही में यह और भी गिरकर 1.6 प्रतिशत हो गई. स्थिर (फिक्स्ड) निवेश में वृद्धि भी 2008-09 के द्वितीयार्ध में घटकर 5.9 प्रतिशत हो गई, जो इसी वर्ष के प्रथमार्ध में 10.9 प्रतिशत तथा 2007-08 में औसतन 12.9 प्रतिशत थी. स्थिर निवेश में वृद्धि 2009-10 की पहली तिमाही में और भी गिरकर 4.2 रह गई. दूसरी ओर, सरकारी उपभोग वृद्धि 2008-09 के प्रथमार्ध में 0.9 प्रतिशत और 2007-08 में 7.4 प्रतिशत से  छलांग लगाते हुए 2008-09 के द्वितीयार्ध में 35.9 प्रतिशत हो गई. सरकारी उपभोग में इस तेज वृद्धि ने सकल मांग के अन्य घटकों की वृद्धि में गिरावट पर लगाम लगाई तथा 2008-09 के द्वितीयार्ध में जीडीपी वृद्धि में किसी बड़ी गिरावट को रोक दिया.” (जोर हमारा है)

मौद्रिक और राजकोषीय प्रोत्साहन के उपर्युक्त पैकेज ने – जो अमेरिका में अपनाए गए उपायों की दिशा में ही मोटामोटी बनाया गया था – ऋण के पैसे से उपभोग को बढ़ावा दिया (पहले तो सार्वजनिक क्षेत्र में और फिर कुछ हद तक निजी क्षेत्र में भी). इसने निजी-सार्वजनिक भागीदारी (पीपीपी) माॅडल के आधार पर बुनियादी ढांचों में निवेश को भी प्रोत्साहित किया (अनेक मामलों में लागत-लाभ के उचित मूल्यांकन के बगैर ही, जैसा कि हम अगले अध्याय में देखेंगे). विदेशों से होने वाले वित्तीय अंतर्प्रवाह को शीघ्र ही पुनः हासिल कर लिया गया – अमेरिका और अन्य विकसित अर्थतंत्रों में लागू किए गए प्रोत्साहन पैकेज के जरिए विशाल नकदी के अंतर्प्रवेश (इन्फ्यूजन) ने इसमें काफी मदद की. कुछ अन्य कारकों के साथ मिलकर इन उपायों ने जीडीपी की वृद्धि दर को 2009 में 8 प्रतिशत और फिर 2010-11 में 9.9 प्रतिशत तक पुनः उठा दिया.देखें जेनुफ्रलेक्टिंग बिफोर फाइनांस कैपिटल (ईपीडब्ल्यू संपादकीय, 27 अप्रैल 2013). यह एक वी(अंग्रेजी अक्षर)-आकार वाली रिकवरी थी, जो कुछ अन्य उभरती अर्थव्यवस्थाओं में भी दिखाई पड़ी.

बहरहाल, इस किस्म का आकस्मिक पड़ाव अधिक दिन तक नहीं टिकने वाला था. जल्द ही, ऊंची मुद्रास्फीति का झटका लगा, खासकर, खाद्य-पदार्थों की कीमतें कुछ अवधियों में काफी ऊंची हो गई थीं. इसके मुख्य कारण थे: बढ़ता आयात खर्च (जो अन्य बातों के अलावा रुपये के अवमूल्यन से लगातार बढ़ रहा था), गलत तरीके से बढ़ता राजकोषीय घाटा (जो उत्पादक रोजगार-सृजन क्षेत्रों/गतिविधियों में राजकीय खर्च से उतना नहीं बढ़ा, जितना कि फालतू के खर्चों से और धनिकों को दी गई रियायतों व “राजस्व छोड़ देने” से बढ़ा), सब्सिडियों में कटौतियां और प्रशासित कीमतों को भी बाजार के हवाले कर देने जैसी नवउदारवादी कार्रवाइयां. मुद्रास्फीति को रोकने के लिए रिजर्व बैंक ने ब्याज दरों को तेजी से बढ़ाया. इससे ऋण के जरिए होने वाला निजी उपभोग और निवेश  मंद हो गया जिसके चलते वृद्धि पर बुरा असर पड़ा. पूंजीपति समूह और उनके प्रवक्ता वित्त मंत्री बारंबार, अधिकाधिक उग्र स्वर में, मांग करने लगे कि वृद्धि दर को पुनः बढ़ाने के लिए ब्याज दरों में कमी लाई जाए. लेकिन अड़ियल और प्रायः बढ़ती मुद्रास्फीति देश के केंद्रीय बैंक को इजाजत नहीं दे रही थी कि वह कीमतों के स्तर को नियंत्रित करने की अपनी जिम्मेवारी छोड़ दे. इस प्रकार, चिदंबरम-सुब्बाराव टकराव चलता रहा, जब तक कि जनवरी-फरवरी 2013 में दोनों के बीच एक प्रकार का समझौता न हो गया – रिजर्व बैंक ब्याज दरों को थोड़ा घटाकर ऋण को सस्ता बनाने पर सहमत हो गया और वित्त मंत्री ने चरम राजकोषीय रूढ़िवादिता का रास्ता अपनाया – असल में इसके लिए उन्होंने चालू राजकोषीय वर्ष में, और साथ ही अगले वर्ष के बजट प्रावधानों में भी, सार्वजनिक व्यय में जमकर कटौतियां कीं.

इस समझौते की आशा इसलिए की जा सकती थी, क्योंकि वित्त मंत्रालय और देश का केंद्रीय बैंक, दोनों ही, अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के बौद्धिक वर्चस्व के अंतर्गत काम करते हैं, हालांकि उनकी फौरी प्राथमिकताएं और बाध्यताएं भिन्न हो सकती हैं, और यदा-कदा टकराहटों को भी जन्म दे सकती हैं – इसमें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि रिजर्व बैंक के गवर्नर कौन हैं. इसी आधार पर संकट प्रबंधन का नया दौर शुरू हुआ.