यह ऊंची वृद्धि (आंतरिक रूप से उत्पन्न होने के बजाय) बाहरी रूप से प्रेरित परिघटना थी. चीन के बाद भारत ही वित्तीय अंतर्प्रवाह का दूसरा सबसे चहेता गंतव्य स्थल बन गया था, जबकि कई अन्य विकासशील देश भी इसी प्रक्रिया से गुजर रहे थे. हमारे मामले में घरेलू और विदेशी निवेशकों को दी गई रियायतों ने इसे बड़ी हद तक सहज बनाया. 2003-04 के बजट में दीर्घ अवधि वाले पूंजी प्राप्ति करों की समाप्ति एक प्रमुख कदम था, जिसने तमाम व्यावहारिक अर्थों में भारत के इक्विटि बाजार को कर-मुक्त अड्डे में बदल दिया; फलतः विदेशी संस्थागत निवेशकों व अन्य स्रोतों से निवेशों की बाढ़-सी आ गई. बाद के वर्षों में (अभी हाल तक) भी कमोबेश यह बाढ़ बरकरार रही. यह कहने की जरूरत नहीं कि किसी को भी इस बात की चिंता नहीं रही कि पूंजी प्राप्ति कर के रूप में राजस्व का एक महत्वपूर्ण स्रोत सरकार के हाथ से निकल गया.

विदेशी पूंजी का यह बढ़ा हुआ अंतर्प्रवाह मुख्यतः शेयर बाजार में, उपभोक्ता सामग्री बाजार की सटोरिया गतिविधियों में और कुछ हद तक रियल इस्टेट में भी मनमौजी वित्तीय निवेशों के रूप में सामने आया. इस तत्व ने जीडीपी की वृद्धि में तो योगदान किया, किंतु अर्थतंत्र के वास्तविक उत्पादक क्षेत्रों को इसने अत्यंत सीमित हद तक ही प्रोत्साहित किया.

बहरहाल, विदेशी पूंजी के बड़े अंतर्प्रवाहों से उत्पन्न तरल मुद्रा प्रचुरता ने ऋण को सस्ता बना दिया, जिसने अपनी बारी में कम से कम तीन तरीकों से औद्योगिक वृद्धि को आवेग प्रदान किया. पहला, इसने आॅटोमोबाइल्स की खरीद को बढ़ावा दिया और आॅटोमोबाइल उद्योग में उभार पैदा किया, जिसे हाईवे और एक्सप्रेस-वे के विस्तारण से भी बल मिला. दूसरा, इसने आवास-निर्माण व रियल इस्टेट में निवेश को प्रोत्साहित किया, जिससे निर्माण-सामग्रियों के उत्पादन में वृद्धि हुई और बड़ी संख्या में (कैजुअल) रोजगारों का सृजन हुआ. तीसरा, ऊंची आय-समूह वाले लोग जल्द धनी होने लगे, क्योंकि उनमें से कइयों के लिए प्रभावकारी आय-कर दरें गिर रही थीं, और कर्ज के पैसे से विभिन्न किस्म की आयातित व देशी उपभोक्ता सामग्रियों की खरीद के अवसर से खुश होकर वे बेतहाशा खर्च कर रहे थे और ‘लाइफस्टाइल उत्पादों’ की मांग में वृद्धि ला रहे थे. इन तमाम चीजों की अभिव्यक्ति कुल बैंक ऋण में व्यक्तिगत कर्जों के तेजी से बढ़ते अनुपात में हो रही थी. इस प्रकार, ऋण-प्रेरित उपभोग व निवेश में विस्तार जीडीपी में वृद्धि का एक महत्वपूर्ण करीबी कारण बन गया.

एक अन्य कारक साॅफ्टवेयर, पेट्रो-रसायनों, धातुओं और आभूषणों वगैरह के निर्यात में हो रही वृद्धि में भी खोजा जा सकता है. निर्यात में यह वृद्धि अधिकांशतः वाह्य कारणों से, अर्थात् भारत के आर्थिक प्रदर्शन से पृथक, विश्व बाजार की स्थितियों में आए अनुकूल परिवर्तनों से, प्रेरित हो रही थी. उदाहरणार्थ, अत्यंत प्रदूषणकारी स्पोंज आइरन समेत लोहा-इस्पात उद्योग में वृद्धि, और नतीजतन कोयला व लौह-अयस्क निकासी में भी हुई वृद्धि बड़ी हद तक वैश्विक मांग में आए उभार से प्रेरित थी, जो अन्य चीजों के अलावा, चीन में बीजिंग ओलिंपिक की तैयारियों से भी पैदा हुआ था.

निर्यात में वृद्धि एक हद तक बेहतर प्रतियोगी माहौल का भी नतीजा थी: ‘वर्ल्ड इकाॅनोमिक फोरम’ द्वारा तैयार ग्लोबल कंपीटिटिवनेस रिपोर्ट (2005-06) के अनुसार ग्रोथ कंपीटिटिवनेस (वृद्धि प्रतियोगिता) सूचकांक में भारत 2004 के अपने 55वें स्थान से ऊपर उठकर अगले वर्ष 50वें स्थान पर चला आया. यह बात खास तौर पर साॅफ्टवेयर निर्यातों के क्षेत्र में ज्यादा सही थी; इसका निर्यात वित्तीय  वर्ष 1996 में एक अरब डाॅलर से भी कम था, लेकिन वर्ष 2005 में वह बढ़कर 23 अरब डाॅलर के करीब पहुंच गया और यह वृद्धि कमोबेश हाल-हाल तक जारी रही. सेवाओं के समग्र निर्यात में तेज उछाल के पीछे यह प्रमुख कारण रहा है, और इस क्षेत्रा में शुद्ध निर्यातक के बतौर भारत की सुविधाजनक स्थिति ने माल-व्यापार में भारत के बड़े और बढ़ते नकारात्मक संतुलन को दुरुस्त करने में काफी मदद की.

ऊपर वर्णित क्षेत्रों में भारतीय उद्यमों की वृद्धि में जिन तुलनात्मक लाभकारी स्थितियों से मदद मिली, उनमें निश्चय ही सर्वप्रमुख बात थी कम लागत वाले मानव-संसाधनों की उपलब्धता– न सिर्फ सस्ता श्रम, बल्कि तकनीकी और प्रबंधकीय कुशलता भी, जो पश्चिमी मुल्कों की अपेक्षा यहां आधी से चैथाई कीमत पर उपलब्ध थी (कुछ मामलों में, जैसे कि औषधि-निर्माण, साॅफ्टवेयर और आइटी-निर्भर सेवाओं के क्षेत्रा में यह कुशलता ज्यादा महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है). दूसरी लाभकारी स्थिति यह है कि अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त आबादी के लिहाज से भारत दुनिया का (अमेरिका के बाद) दूसरा सबसे विशाल देश माना जाता है (हालांकि, इस अर्थ में चीन की तेज अग्रगति से भारत की यह स्थिति लंबे समय तक शायद न टिक सके). बहरहाल, बुनियादी ढांचे के स्तर पर चीन की तुलना  में भारत कोसों दूर है और यह कमजोरी वृद्धि के रास्ते का बड़ा अवरोधक मानी जा रही है. दूसरी ओर, अन्य विकासशील देश भी इस मुनाफे-भरे विश्व बाजार में प्रवेश कर रहे हैं; इसीलिए, भारत की यह तुलनात्मक लाभकारी स्थिति उसी समय तक बनी रहेगी, जब तक कि सस्ते श्रम वाले अन्य देश समान कौशल के साथ श्रम बल न तैयार कर लें.

वृद्धि में योगदान करने वाला दूसरा महत्वपूर्ण कारक था विदेशों में काम कर रहे भारतीयों द्वारा भेजा गया धन – खासकर, बड़ी संख्या में प्रवासी भारतीय मजदूर अपनी आमदनी का सबसे बड़ा अंश अपने घर भेजते हैं. विदेशों में कमाए गए और भारत में खर्च किए गए इस पैसे से आंतरिक बाजार का विस्तार हुआ. उसके एक हिस्से को लद्यु उद्योगों में निवेशित किया गया जिससे रोजगार-सृजन करने वाले अनौपचारिक क्षेत्र में स्वस्थ उभार पैदा हो सका; और साथ ही इससे हमारा विदेशी मुद्रा भंडार भी मजबूत बन गया. बहरहाल, वैश्विक स्तर पर मंदी आने के बाद यह स्रोत अंशतः सूखने लगा, और साॅफ्टवेयर तथा आइटी-निर्भर सेवाओं के निर्यात से होने वाली आमदनी भी गिरने लगी.आइटी-निर्भर सेवाओं के निर्यात और प्रवासी मजदूरों द्वारा देश में भेजी जाने वाली राशि की संयुक्त वृद्धि दर 2009-10 और 2010-11 में गिरकर क्रमशः 4 और 8 प्रतिशत हो गई. 2011-12 में यह बढ़कर 20 प्रतिशत हुई, लेकिन फिर 2012-13 में गिरकर यह अनुमानित 4 प्रतिशत पर आ गई.

प्रोत्साहन देने वाला एक अन्य महत्वपूर्ण कारण था भारतीय राज्य द्वारा विशाल रियायतों की शक्ल में बड़े काॅरपोरेटों को उपलब्ध कराया गया असाधारण मुनाफे का उपहार. इसने उद्योग व सेवा के कतिपय क्षेत्रों में निवेश को प्रोत्साहित किया. कुछ वर्षों तक भुगतान संतुलन के सरदर्द के बगैर वृद्धि दर संतोषजनक ढंग से बढ़ती रही, क्योंकि ऊंची निर्यात आमदनी और प्रवासी भारतीयों द्वारा भेजे गए धन के अलावा विदेशी पूंजी का पर्याप्त से भी ज्यादा अंतर्प्रवाह हो रहा था. मुद्रास्फीति की समस्या जरूर टकरा रही थी, लेकिन इसे सहनीय सीमा के अंदर समझा जा रहा था. एक कारण यह था कि रुपये की मजबूत स्थिति ने तेल के आयात बिल और अन्य आयात-लागतों को नियंत्रण में बनाए रखा था. बहरहाल, यह अभूतपूर्व वृद्धि दर उन लोगों की जिंदगी में रोशनी नहीं ला सकी, जिन्होंने अपने श्रम से इसे संभव बनाया था.