मान्यता के लिए संघों की मांग को संबोधित करने के लिए बताये जाने के बावजूद, विधेयक के वास्तविक प्रावधान पूरी तरह से विपरीत हैं. यूनियनों की मांग एक ऐसे कानून की आशा कर रही है जो सामूहिक सौदेबाजी को प्रोत्साहित करने के लिए नियोक्ताओं/प्रतिष्ठानों को यूनियनों को पहचानने के लिए अनिवार्य प्रावधान बनाता हो लेकिन, विधेयक सिर्फ़ केंद्र सरकार/राज्य सरकार द्वारा केंद्रीय/राज्य ट्रेड यूनियन के रूप में मान्यता के बारे में प्रावधान करते हैं और नियोक्ता की इस बारे में कोई जिम्मेदारी सुनिश्चित नहीं करते. यह केंद्रीय ट्रेड यूनियनों को मान्यता देने के मामले में सरकार को व्यापक अनियंत्रित शक्ति प्रदान करता है.
विडंबना यह है कि, नेशनल टेक्सटाइल वर्कर्स यूनियन और अन्य बनाम पी.आर. रामकृष्णन और अन्य (ए.आई.आर. 1983 एस.सी 75) मे सर्वोच्च न्यायालय ने एक प्रासंगिक सवाल उठाया था “उत्पादन में समान रूप से महत्वपूर्ण कारकों मे, अधिक महत्वपूर्ण न भी माने तो, श्रमिक भी है..... तो यह कैसे कहा जा सकता है कि पूँजी जो केवल उत्पादन के कारकों में से एक है को कोई विशेष प्रभुत्व रखने वाले कारक के रूप में माना जाना चाहिए, जैसे कि उद्योग का मालिक वही हो?”
अदालत के रुख में इस बदलाव को वास्तव में सर्वोच्च न्यायालय ने द्वारा हरिंदर सिंह बनाम पंजाब राज्य वेयरहाउसिंग कॉर्पोरेशन ((2010) 3 एस.सी.सी. 192) में खुद उल्लेख किया है, और कहा है कि “इन दिनों, अदालतों के नजरिये मे बदलाव आया है सामाजिक कल्याण कानूनों की व्याख्या से जुड़े मामलों में. भूमंडलीकरण और उदारीकरण के आकर्षक मंत्र तेजी से न्यायिक प्रक्रिया के कारक बन रहे हैं और एक छवि बन रही है कि संवैधानिक न्यायालय अब औद्योगिक और असंगठित श्रमिकों की दुर्दशा के प्रति सहानुभूति नहीं रखते हैं’’, और आगे कहा कि, “वैश्वीकरण” की तथाकथित प्रवृत्तियों को बढ़ावा देने के लिए संवैधानिक अनिवार्यता को कम करने के कोई भी प्रयास के परिणाम संकटपूर्ण हो सकते हैं”. हालांकि, इसके बाद भी अदालतों ने हाल में भी यहां तक कि पिछले साल ही श्रमिकों को मिली संवैधानिक गारंटी को ख़त्म करना जारी रखा है जब कर्नाटक में राज्य भर के लाखों श्रमिकों को न्यूनतम मजदूरी में वृद्धि तकनीकी आधार पर ख़ारिज कर दी गई. दिल्ली उच्च न्यायालय ने भी हाल में दिल्ली सरकार की न्यूनतम मजदूरी अधिसूचना को ख़ारिज कर दिया.
लघु कारखाने (रोजगार और सेवा शर्तों का विनियमन) विधेयक, 2014 का मसौदा 40 से कम श्रमिकों को नियोजित करने वाले सभी कारखानों को 14 केंद्रीय श्रम कानूनों के प्रावधानों से बाहर रखता है, ये केंद्रीय कानून हैंः (1) कारखाना अधिनियम (फैक्टरीज ऐक्ट), 1947; (2) औद्योगिक विवाद अधिनियम (आईडी ऐक्ट), 1947; (3) औद्योगिक नियोजन (स्थायी आदेश) अधिनियम (इंडस्ट्रीयल एम्प्लायमेंट-स्टैंडिंग आॅडर्स ऐक्ट), 1946; (4) न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948, (5) मजदूरी का भुगतान अधिनियम (पेमेंट आॅफ वेजेस् ऐक्ट), 1936, (6) बोनस का भुगतान अधिनियम (पेमेंट आॅफ बोनस ऐक्ट), 1965; (7) कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम (ईएसआई ऐक्ट), 1948; (8) कर्मचारी भविष्य निधि एवं विविध प्रावधान अधिनियम (ईपीएफ ऐक्ट), 1952; (9) प्रसूति लाभ अधिनियम, 1961; (10) कर्मचारी मुआवजा अधिनियम, 1923; (11) अंतर-राज्य प्रवासी श्रमिक (रोजगार और सेवा की शर्तों का विनियमन) अधिनियम, 1979; (12) (राज्य) दुकान और प्रतिष्ठान अधिनियम; (13) समान पारिश्रमिक अधिनियम, 1976; और (14) बाल श्रम (निषेध और विनियमन) अधिनियम, 1986.
यह माना जा रहा है कि इस तरह के बदलाव से देश के फैक्टरी प्रतिष्ठानों में से 70 प्रतिशत से अधिक इन कानूनों के दायरे से बाहर हो जाएंगे.
सामाजिक सुरक्षा पर श्रम कोड (मसौदा) 17 कानूनों को रद्द करना चाहता हैः (1) कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम, 1948 (2) कर्मचारी भविष्य निधि और विविध प्रावधान अधिनियम, 1952 (3) कर्मचारी मुआवजा अधिनियम, 1923 (4) व्यक्तिगत चोट (आपातकालीन प्रावधान) अधिनियम (पर्सनल इन्जुरीज-प्रोविजन्स् ऐक्ट), 1962 (5) व्यक्तिगत चोट (मुआवजा बीमा) अधिनियम (पर्सनल इन्जुरीज-बीमा ऐक्ट), 1963 (6) प्रसूति लाभ अधिनियम, 1961 (7) ग्रैच्युटी भुगतान अधिनियम, 1972 (8) असंगठित श्रमिक सामाजिक सुरक्षा अधिनियम, 2008 (9) माइका खान श्रम कल्याण निधि अधिनियम, 1946 (10) चूना पत्थर एवं डोलोमाइट खान श्रम कल्याण निधि अधिनियम, 1972 (11) लौह अयस्क, मैंगनीज और क्रोम अयस्क खान श्रम कल्याण निधि अधिनियम, 1976 (12) बीड़ी श्रमिक कल्याण निधि अधिनियम, 1976 (13) सिने श्रमिक कल्याण निधि अधिनियम, 1981 (14) लौह, मैंगनीज और क्रोम अयस्क खान श्रमिक कल्याण (सेस) अधिनियम, 1976 (15) सिने श्रमिक कल्याण (सेस) अधिनियम, 1981 (16) बीड़ी श्रमिक कल्याण सेस अधिनियम, 1976 और (17) भवन और अन्य श्रमिक कल्याण सेस अधिनियम, 1996.